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Friday, March 29, 2024

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स्पष्ट राजनीति के अभाव में

राजनैतिक प्रचार-प्रसार व फोटो सेशन का जरिया बना स्वच्छ भारत अभियान
राष्ट्रीय पटल पर मौजूद कई गंभीर समस्याओं व व्यापक जनहित को अनदेखा कर भारत सरकार एक बार फिर पूरे जोर-शोर के साथ स्वच्छ भारत अभियान के नारे को अमलीजामा पहनाने में जुट गई है और पूरा का पूरा सरकारी तंत्र देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस महत्वाकांक्षी नारे को परवान चढ़ाने की कोशिशों में जुटा दिख रहा है। हालांकि सरकार की इन कोशिशों को गलत नहीं ठहराया जा सकता और भारत जैसे विकासशील देश के समक्ष खड़ी होती दिख रही जैविक व अजैविक कूड़े के ढेर को ठिकाने लगाने की समस्या को देखते हुए इस तरह के प्रयासों की प्रशंसा करना या प्रचार-प्रसार करना भी नाजायज नहीं माना जा सकता लेकिन सरकारी स्तर पर किए जाने वाले तमाम प्रयासों के बावजूद भी इस तरह के आयोजनों के जरिए किसी लक्ष्य तक पहुंचने की उम्मीद करना एक बेमानी है। यह माना कि स्वच्छता हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है और अपने घर-परिवार व आसपास साफ-सफाई रखने के अलावा पर्यावरणीय दृष्टिकोण से कुछ छोटे-मोटे प्रयासों को अंजाम देकर हम बड़ी ही आसानी के साथ जीवन की कई दुश्वारियों से बच सकते हैं लेकिन यह एक अहम सवाल है कि इस तरह की साफ-सफाई से एकत्र होने वाले घरेलू कूड़े का निस्तारण कैसे किया जाय और यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इस विषय को लेकर सरकारी व्यवस्थाएं मौन रहती हैं। यह ठीक है कि अपने इस अभियान को मजबूती देने के लिए मोदी जी ने इसे न सिर्फ गांधी जी द्वारा पूर्व के किये गये प्रयासों व उनके नारों से जोड़ा है बल्कि इस दिशा में अपने हर नए कार्यक्रम की शुरूआत के लिए दो अक्टूबर का दिन चुनकर देश के प्रधानमंत्री ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह खुद को भारत की आजादी के आन्दोलन से जोड़ते हुए इसे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के सपनों का भारत बनाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह स्वच्छ भारत अभियान सिर्फ और सिर्फ प्रचार तक सिमटकर रह गया है। इसे मोदी के रणनीतिकारों की योजनागत् खामी कहा जाय या फिर चुनावी राजनीति व चेहरे चमकाने के चक्कर में की जा रही व्यर्थ की कवायदों का नतीजा, लेकिन यह सच है कि पूरे जोर-शोर से और समाचार पत्रों में दिए जा रहे विज्ञापनों के बीच चलाया जा रहा स्वच्छ भारत अभियान सिर्फ व सिर्फ फोटों खींचने तक सीमित होकर रह गया है। स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर दिए जाने वाले बड़े-बड़े विज्ञापनों व समाचार पत्रों या टीवी चैनलों में दिखने वाली झख सफेद कपड़े पहने नेताओं व सूटेड-बूटेड नौकरशाहों की तस्वीरों के बावजूद लगभग सभी शहरों व कस्बों में जगह-जगह पर लगे दिखते कूड़े के ढेर और सड़कों पर बेरोकटोक घूमते पालतू व फालतू जानवरों द्वारा फैलाई जाने वाली गंदगी यह इशारा देने का काफी है कि सरकारी तंत्र प्रधानमंत्री के इस आवहन पर पूरी तरह सक्रिय होने के बावजूद अपनी जिम्मेदारियों को लेकर सजग नहीं है लेकिन सत्तापक्ष इस सबको लेकर चिंतित भी नहीं दिखाई देता क्योंकि उसे लग रहा है कि इस बड़े हो-हल्ले के माध्यम से न सिर्फ जनता का ध्यान वास्तविक समस्याओं व बढ़ती हुई महंगाई से हटाया जा सकता है बल्कि इस तरह के अभियानों के नाम पर बड़ी ही आसानी के साथ आगामी चुनावों के लिए भूमिका तैयार करते हुए अपनी छवि को चमकाया जा सकता है। हो सकता है कि राजनीतिक दृष्टिकोण से सरकार का यह निर्णय सही हो और स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर हो रहे हो-हल्ले व पोस्टरबाजी से सत्तापक्ष को कुछ लाभ भी मिलता दिख रहा हो लेकिन पर्यावरणीय दृष्टिकोण एवं आर्थिक प्रबंधन की दृष्टि से देखें तो मोदी सरकार द्वारा इस अभियान की सफलता के लिए झोंकी गयी ताकत व विभिन्न सरकारी या गैर सरकारी उपक्रमों द्वारा स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर पानी की तरह पैसा बहाए जाने की परम्परा को किसी भी लिहाज से ठीक नहीं कहा जा सकता। अगर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आवहन पर स्वच्छ भारत अभियान में भागीदारी करने वाले केंद्र व राज्य सरकारों के विभिन्न मंत्रालयों, उनके अधीनस्थ विभागों एवं तमाम सरकारी व गैर सरकारी उपक्रमों और स्वयंसेवी संगठनों द्वारा इस आयोजन में किए गए खर्च का हिसाब जोड़ा जाय तो हम पाते हैं कि एक बहुत बड़ी धनराशि के अलावा लाखों की संख्या में पढ़े-लिखे कर्मचारियों व अधिकारियों के हाथों में झाडू पकड़ाकर हासिल होने वाली उपलब्धि का हमारे पास कोई आंकड़ा नहीं है, बल्कि इस तरह के आयोजनों के नाम पर झटपट बन जाने वाले प्लास्टिकनुमा प्लेक्स व कार्यक्रम के फोटोसेशन के नाम पर होने वाला वातावरणीय प्रदूषण सामाजिक रूप से इस प्रकार प्राप्त किसी भी उपलब्धि के मुकाबले ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला प्रतीत होता है। क्या यह ज्यादा बेहतर नहीं होता कि सरकार स्वच्छता के मुद्दे पर इस तरह के दिखावे व हो-हल्ले के स्थान पर उन तमाम उपक्रमों व स्थानीय निकायों को मजबूत करती जिनको स्थानीय स्तर पर इस तरह की साफ सफाई व व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी दी गयी है। इस दिशा में सरकार द्वारा किया गया कोई भी प्रयास न सिर्फ रोजगार के तमाम नये अवसर पैदा करता बल्कि स्वच्छता के मिशन पर खड़ा किया गया कोई भी मजबूत ढांचा उन तमाम खामियों व अव्यवस्थाओं को दूर करता जो सार्वजनिक स्तर पर स्वच्छता को लेकर किए जाने वाले इंतजामात के दौरान नजर आती लेकिन सरकार ने इस तरह के उपायों पर अमल करने के स्थान पर स्वच्छता के मिशन के साथ उन नौकरशाहों व सरकारी बाबूओं के हाथों में झाडू देना ज्यादा आसान समझा जिन्हें अपनी कलम चलाने में भी तकलीफ होती है। सरकार की यह कोशिश अगर एक बार होती तो इसे सांकेतिक मानते हुए अनदेखा या स्वीकार्य भी किया जा सकता था लेकिन सरकार के नीति-निर्धारक जनकल्याणकारी योजनाओं पर ध्यान देने के स्थान पर इस तरह के आयोजनों के जरिए किए जाने वाले प्रचार-प्रसार को ही अपनी प्राथमिकता मान रहे हैं और जनता की मेहनत की कमाई का पैसा बस यूं ही फिजूलखर्ची के जरिये उड़ाया जा रहा है। स्वच्छता जैसे मुद्दे पर जनभागीदारी की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व उनकी टीम के अन्य सदस्यों के इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता है कि अपने इर्द-गिर्द साफ-सफाई बनाए रखना तथा पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाना हमारा पहला कर्तव्य है तथा स्वच्छता को लेकर निर्धारित किए गए लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जनजागरूकता किया जाना आवश्यक है लेकिन लक्ष्य प्राप्ति की ओर बढ़ने का दावा करने वाली सरकार या उसके तंत्र से यह प्रश्न किया जाना भी वाजिब है कि इस तरह के आयोजनों से पूर्व उसने लगभग हर शहर व कस्बे में मौजूद कूड़े के ढेरों या गंदगी से अटी पड़ी नालियों से कूड़ा निस्तारण की क्या योजना बनायी है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि पहले से मौजूद कूड़े को ठिकाने लगाये बिना चलाया जाने वाला कोई भी सफाई अभियान न सिर्फ समय बल्कि धन की भी बर्बादी है और सरकारी तंत्र की मध्यम चाल को देखते हुए यह साफ लग रहा है कि साफ-सफाई के नारे के बाद या उससे पहले से ही दिखाई दे रहे गंदगी के अम्बार में मौजूद तमाम तरह के कूड़ा-करकट को लेकर उसके पास कोई योजना नहीं है। इन हालातों में बार-बार स्वच्छता का नारा लगाने या फिर विभिन्न कार्यक्रमों के आयोजन के जरिये अपना प्रचार-प्रसार करने से कोई बड़ा राजनैतिक या सामाजिक फायदा सरकार अथवा सत्तापक्ष को होगा, ऐसा नहीं लगता।

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