सियासत के बदलते रंगों के बीच। | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 20, 2024

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सियासत के बदलते रंगों के बीच।

एक ही कार्यकाल में लगातार दो बार शपथ लेकर नितीश कुमार ने बनाया एक नया रिकार्ड हार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने पूरे नाटकीय अंदाज के साथ अपना इस्तीफा दिये जाने के दूसरे दिन ही एक बार फिर बिहार की सत्ता संभाल ली है और अब वह महागठबंधन सरकार के नही बल्कि बिहार की एनडीए सरकार के मुख्यमंत्री होंगे तथा सदन के भीतर लगातार दो साल तक उनकी कार्यशैली का विरोध करते रहे भाजपा के विधायक अब उनकी सरकार को समर्थन देंगे जबकि दो साल तक हर मोड़ पर नितीश का बचाव करते रहे कांग्रेस व राजद के तमाम छोटे-बड़े नेता अब हर मोर्चे पर उनके विरोध में दिखेंगे। वर्तमान में शायद यहीं राजनीति है और राजनीति के इस खेल में माहिर बतायी जा रही अमित शाह व नरेन्द्र मोदी की जोड़ी ने बिना किसी चुनाव के एक और प्रदेश की सत्ता पर भाजपा का परचम लहरा कर एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि वह धीरे-धीरे कर विपक्ष मुक्त भारत के नारे पर काम कर रहे है। हांलाकि यह कहना मुश्किल है कि गुजरात में बघेला के बाद बिहार मंे नितीश कुमार द्वारा ली गयी इस करवट से भारत की राजनीति में क्या-क्या बदलाव आयेगा और अब आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस के इर्द-गिर्द एकत्र हो रहे महागठबंधन की अन्तिम स्थिति क्या होगी लेकिन इतना तय है कि नितीश के इस फैसले के बाद लालू व उनके परिवार की मुश्किलें बढ़ सकती है और संकट की इस स्थिति में कांग्रेस भी उन्हें बहुत ज्यादा मदद नही कर सकती। वैसे राजनैतिक नजरिये से देखे तो केन्द्र की भाजपा सरकार लालू यादव व उनके परिवार को जेल के सीकचों के पीछे ले जाकर जनता की सहानुभूति के लायक नही छोड़ेगी और न ही यह उम्मीद करनी चाहिऐं कि प्रधानमंत्री की कुर्सी हथियानें के ख्वाब देख रहे नितीश कुमार इस तरह एकदम भाजपा की गोद में बैठकर अपने परम्परागत् वोट-बैंक को भाजपा या किसी अन्य दल के साथ जाने देंगे। हाँ इतना जरूर है कि सरकार में आये इस बदलाव के बाद मोदी और नितीश दोनों ही केन्द्र साहयतित योजनाओं के माध्यम से बिहार की जनता को अपनी ओर आकृर्षित करने का प्रयास करेंगे और शराब बंदी जैसे तमाम साहसिक निर्णयों के चलते राज्य सरकार के खाते में साफ दिख रही आर्थिक संसाधनों की कमी को केन्द्र सरकार द्वारा दी जाने वाली विशेष वित्तीय मदद के जरियें पूरा किये जाने के प्रयासों पर जोर दिया जा सकता है। नितीश कुमार को उम्मीद होगी कि इस आर्थिक मदद के जरिये बिहार की जनता के सपनों को पूरा करने की दिशा मे कुछ और कदम आगे की ओर चलकर वह अपनी कुर्सी व आगामी चुनावों के मद्देनजर अपने जनाधार को मजबूती दे सकते है और अपने चुनावी तिलस्म को मजबूत करते हुऐ पहले से भी ज्यादा बेहतर प्रदर्शन करने की कोशिशों में जुटी मोदी व अमित शाह की जोड़ी को लगता है कि बिहार की सरकार में शामिल होने के बाद वह लोकसभा चुनावों में पिछली बार से भी ज्यादा बेहतर प्रदर्शन करने में सफल होंगे लेकिन इस सारी कशमकस का प्रभाव सम्पूर्ण भारतीय राजनीति के पक्ष में क्या होगा और अपनी चुनावी जीत को पक्का करने के लिऐ मोदी व अन्य कौन-कौन से उपाय आजमायेंगे, यह कहा नही जा सकता। हो सकता है कि नितीश कुमार द्वारा लिये गये इस फैसले के बाद महागठबंधन ही टूटकर बिखर जाय और राहुल गांधी के नेतृत्व में जाती दिख रही कांग्रेस अपनी क्षत-विक्षत हालत के बावजूद अकेले ही चुनाव मैदान उतरने का फैसला लें या फिर मुलायम व मायावती जैसे दलित व मुस्लिम वर्ग के नेता माने जाने वाले लोग बिहार समेत देश के अन्य हिस्सों में भी नितीश कुमार जैसे नेताओं का तोड़ ढ़ूढ़ँने और भाजपा की जीत की संभावनाओं को कम करने की कोशिश करें लेकिन यह साफ दिख रहा है कि मोदी व अमित शाह की जोड़ी ने आगामी लोक सभा चुनावों के मद्देनजर अपनी बिसातें बिछाना शुरू कर दिया है और इस खेल में राहुल की कांग्रेस या फिर लालू, मुलायम, मायावती एवं ममता बेनर्जी जैसे महागठबंधन के नेता कहीं टिकते नही दिख रहे है। यह ठीक है कि नितीश कुमार को भाजपा के साथ जाने से दलित व मुस्लिम वोट बैंक का मोह छोड़ना पड़ सकता है लेकिन वह पहले भी राजग का हिस्सा रहे रहे है और उनका विश्वास है कि सुशासन व शराब बंदी का नारा उन्हें बिहार के हर चुनाव की वैतरणी में पार लगा सकता है। नितीश कुमार को उम्मीद थी कि कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल उन्हें महागठबंधन का नेता स्वीकारते हुऐं प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में आगे बढ़ायेंगे लेकिन कांग्रेस का राष्ट्रीय चरित्र इसमें लगातार आड़े आ रहा था। लिहाजा नितीश ने पूरी चालाकी के साथ अपनी बिहार की कुर्सी बचाने का फैसला लेते हुऐ मोदी व अमित शाह की टीम से हाथ मिला लिया और अपनी ही सरकार के उपमुख्यमंत्री व लालू के पुत्र तेजस्वी यादव के खिलाफ दर्ज हो रहे मुकदमों का सहारा लेते हुऐ उन्होंने पहले राष्ट्रपति चुनाव के वक्त महागठबंधन के खिलाफ जाकर अपने इस फैसले के बाद जनता की ओर से आने वाली प्रतिक्रियाओं को जायजा लिया और फिर अपनी ही सरकार के इस्तीफें का नाटक कर झट से पाला बदल लिया। हो सकता है कि भाजपा समर्थकों व मोदी राज के प्रशंसकों को नितीश का भाजपा के खेंमे में खड़े होना और महागठबंधन को धता बताकर राजग के साथ सरकार बनाना मोदी की नीतियों व सिद्धान्तों की जीत लगता हो लेकिन अगर हकीकत में देखा जाय तो यह बिहार की उस जनता के साथ धोखा है जिसने राज्य विधानसभा चुनाव में लालू और नितीश की जोड़ी के पक्ष में मतदान किया था। राजनीति के खेल में सबकुछ जायज है और कांग्रेस भी सत्ता में रहते हुऐ इस तरह के तमाम पैंतरे आजमाती रही है इसलिऐ वह चाहकर भी नितीश कुमार द्वारा एकाएक ही लिये गये इस निर्णय तथा इन निर्णय की पटकथा लिखने वाली मोदी-शाह की जोड़ी के खिलाफ किसी भी तरह की बयानबाजी से बचने की कोशिश करेगी लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि अपने बदले हुऐ स्वरूप के साथ एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले नितीश अपने उन पुराने साथियों के साथ कैसे पेश आते है जिन्होंने हालियाँ विधानसभा चुनाव में नितीश के कांग्रेस से जा मिलने पर जदयू में राजनैतिक तोड़-फोड़ के लिऐ तमाम प्रयास किये थे। खैर कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बिहार सरकार में अब तेजस्वी यादव के स्थान पर सुशील मोदी उप मुख्यमंत्री होंगे और मंत्रीमण्डल के चुनिन्दा चेंहरे भी बदले हुऐ दिख सकते है। यह भी हो सकता है कि नितीश कुमार जब अपना बहुमत साबित करने सदन में जाये तो कांग्रेस समेत महागढबंधन में शामिल कुछ अन्य दलों के विधायक अपनी पार्टी व्हिप से हटते हुऐ नितीश सरकार को समर्थन देने का ऐलान करें लेकिन इस सारी जद्दोजहद से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला और न ही लालू व उनके परिवार की मुसीबतें कुछ कम होती दिख रही है। हाँ इतना जरूर है कि राजनीति में खुद का जिन्दा रखने की कोशिशों के तहत लालू एक बार फिर जमीनी स्तर पर खुद को मजबूत करने के लिऐ आन्दोलन का मोर्चा खोल सकते है लेकिन सवाल यह है कि कल तक जिस सरकार में उनका परिवार व राजनैतिक दल शामिल रहा है उसके खिलाफ आन्दोलन करने के लिऐ वह मुद्दे कहाँ से लायेंगे और रहा सवाल केन्द्र की भाजपा सरकार के खिलाफ किसी भी तरह के आन्दोलन का तो हमें नही लगता कि लालू यादव अपनी चूकती क्षमताओं के दम पर कोई इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा कर पायेंगे जो केन्द्र की मोदी सरकार के लिऐ परेशानी का सबब बन सके। वैसे भी विपक्ष के मुद्दो व सरकार विरोधी आन्दोलनों को कम ही तवज्जो देने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अपना एक अलग राजनैतिक अंदाज है और उनका काम करने का तरीका बताता है कि वह अपने राजनैतिक शत्रु को कानूनी दांव-पेंच में फँसाकर रखने से कहीं ज्यादा अपने मीडिया मेनेजमेंट व अपने स्वंयम्भू प्रशंसकों की फौज के जरिये उसका चारित्रिक व सामाजिक हनन कर उसे राजनैतिक रूप से खत्म करने की रणनीति पर ज्यादा विश्वास करते है। ऐसें में यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी का यह हथियार दलित राजनीति के धुरधर माने जाने वाले लालू यादव पर किस हद तक कारगर साबित होता है और आगे आने वाले एक डेढ़ वर्ष में राजनीति क्या-क्या नयी करवटें लेती है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि अपने राजनैतिक जीवन के शीर्ष पर पहुँचने से ठीक पहले कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाले नरेन्द्र मोदी सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के बाद संघ की विचारधारा पर चलने वाली भाजपा का पूरी तरह कांग्रेसीकरण करते हुऐ इस देश की संवैधानिक व्यवस्थाओं को विपक्ष व विरोध से मुक्त रखने का मन बना चुके है।

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