‘सावधानी हटी, दुघर्टना घटी’ | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 20, 2024

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‘सावधानी हटी, दुघर्टना घटी’

भाजपा व काॅग्रेस के राजनैतिक अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर सकते है पाॅचे राज्यों के विधानसभा चुनाव।
भारत के राजनैतिक परिपेक्ष्य में अपनी राजनैतिक कब्जेदारी बढ़ाने के लिऐ लगातार प्रयासरत् दिख रही मोदी व अमित शाह की जोड़ी के लिऐ यह अच्छी खबर हो सकती है कि उसकी मुख्य प्रतिद्वन्दी माने जाने वाली काॅग्रेस न सिर्फ महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनावों में उससे बहुत पीछे है बल्कि अपना राजनैतिक वजूद बचाने के लिऐ उसे उ0प्र0 में भी ठीक बिहार की तर्ज पर क्षेत्रीय पार्टियों की शरण में जाना पड़ा है लेकिन क्या वाकई भाजपा का काॅग्रेस मुक्त भारत देखने का सपना पूरा होने जा रहा है और मजबूत विपक्ष के आभाव में भाजपा भी काॅग्रेस की तर्ज पर तीन-चार दशक तक लगातार राज करने का स्वप्न सजों सकती है। अगर संघ की रणनीति पर गौर करे तो सत्ता व संगठन के सर्वोच्च नेतृत्व के रूप में मोदी व अमित की जोड़ी को सर्वाधिकार से सुजज्जित कर संघ ने एक दांव खेला है और प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी की एक वर्ग विशेष के रूप में लोकप्रियता को देखकर यह कहा जा सकता है कि संघ का यह दांव बेकार नही गया है लेकिन सवाल यह है कि आखिर कब तक सुनहरें कल के सपने दिखा भाजपा के लोग मोदी का महिमामण्डन करते रहेंगे। वर्तमान में भाजपा के समक्ष जहाॅ एक ओर टूटती-बिखरती काॅग्रेस के राजनैतिक वजूद को खत्म करने की चुनौती है तो वही दूसरी ओर लगभग समाप्ति के कगार पर खड़े वामपथियों व जनकल्याण के लिऐ संवेधानिक व्यवस्थाओं से टकराने को तैयार दिखते जनवादी चिन्तको को साथ लेकर चुनावी जंग के मैदान में उतरती दिख रही आम आदमी पार्टी भाजपा के राजनैतिक अस्तित्व पर हमलावर होती दिख रही है लेकिन इस सबके वावजूद मोदी व अमित शाह की जोड़ी अभी अपना आभामण्डल बचाये रखने में कामयाब है तो उसकी एकमात्र व सबसे बड़ी वजह यह है कि अभी भाजपा के भीतर उनके विरोध में सुर बुलन्द नही हुऐ है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता अपने व्यस्त राजनैतिक कार्यक्रमों के साथ देश-प्रदेश में होने वाले हर छोटे बड़े चुनाव में गहरी दिलचस्पी लेने वाली मोदी-अमित शाह की यह जोड़ी जहाॅ देा-चार बार चूकी या फिर इनके द्वारा आगे बढ़ाये जा रहे मोहरों ने जिस दिन भी अपनी ताकत को बढ़ाना शुरू कर दिया, ठीक उसी दिन भाजपा की उल्टी गिनती शुरू हो जायेगी। काॅग्रेस के रणनीतिकार इस तथ्य को भली-भाॅति समझ रहे है और शायद यहीं वजह है कि काॅग्रेस हाल-फिलहाल के लिऐ चुनावी जीत से कहीं ज्यादा मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने व चर्चाओं में बने रहने पर ध्यान दे रही है और इसके लिऐ काॅग्रेस के बड़े नेताओं केा क्षेत्रीय दलो के साथ मंच साझा करने में भी कोई आपत्ति नही है। बिहार के बाद उत्तरप्रदेश में भी इसी रणनीति का इस्तेमाल करते हुऐ काॅग्रेस ने भाजपा व संघ के रणनीतिकारों को एक पटखनी दी है और अपने पूरे लावा लस्कर के साथ अखिलेश की साईकिल पर सवार राहुल उ0प्र0 में अपनी जीत के लिऐ नही बल्कि भाजपा को हराने के लिऐ संघर्ष कर रहे है। अगर गौर से देखा जाय तो आज उत्तर प्रदेश समेत देश के तमाम हिस्सों में काॅग्रेस की जो हालत है उसके लिऐ भाजपा या अन्य क्षेत्रीय दल जिम्मेदार नही है बल्कि पूर्व में काॅग्रेस के बड़े नेताओं ने सत्ता पर अपनी कब्जेदारी बनाये रखने के लिऐ संगठन को केन्द्रीकृत करते हुए टिकटों के बंटवारे व मुख्यमंत्री के चुनाव को लेकर जो रणनीति अपनायी थी, यह उसी का प्रतिफल है। आज मोदी के नेतृत्व में भाजपा भी उसी दिशा की ओर जा रही है और ठीक इन्दिरा गांधी की तर्ज पर मोदी ही हर छोटे बड़े चुनाव में भाजपा का चेहरा है लेकिन कई झझांवातो व विपक्षी आक्रमणों के बाद भी काॅग्रेस आज इन्दिरा गाॅधी की तीसरी पीढ़ी के रूप में राहुल गाॅधी के नेतृत्व में लड़खड़ाती किन्तु खड़ी दिखाई दे रही है क्योंकि नंरसिहाराव के कार्यकाल में काॅग्रेस से जुड़े दिग्गज नेताओं को यह सबक मिल चुका है कि काॅग्रेस का अस्तित्व व राजनैतिक वजूद गाॅधी परिवार के इर्द गिर्द बने रहने पर ही है जबकि भाजपा के साथ न तो ऐसी कोई बाध्यता है और न ही अपने तमाम बड़े फैसलो के लिऐे संघ पर निर्भर भाजपा के लिऐ यह सब सम्भव है। हाॅलाकि संघ से जुड़े भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि नीतियों, सिद्धान्तों और कार्यकर्ताओं के समन्वय से चलने वाली भाजपा के लिऐ वक्त आने पर कठोर फैसले लेना या नये नेतृत्व को सामने लाना कठिन नही होगा लेकिन हालात यह इशारा कर रहे है कि मोदी व अमित शाह के नेतृत्व में अपना राजनैतिक परचम पूरे भारत वर्ष में फैलाने की चाह में नीतियों, सिद्धान्तों व मुद्दो पर कई तरह के समझौते करती भाजपा अपने गठन के उद्देश्यों से बहुत दूर निकल आयी है और सत्ता पर अपनी कब्जेदारी बनाये रखने के खेल में मोदी जी इतना ज्यादा आगे निकल आये है कि अब सिर्फ समर्पित कार्यकर्ताओं के बलबूते सत्ता एवं संगठन चलाने की बात करना भी बेमानी लगता है। हो सकता है कि उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड समेत पाॅच राज्यों के चुनाव नतीजें भाजपा के पक्ष में न होने पर भी सत्ता एवं संगठन में मोदी के विरूद्ध लामबन्दी न हो और सत्ता के शीर्ष पदो को पाने के लिऐ फड़फड़ा रहे भाजपा के तमाम द्वितीय पक्ती के नेता इस हार को मुद्दा बनाते हुऐ मोदी के खिलाफ बगावत का ऐलान न करे लेकिन यह तय मानना चाहिऐं कि इस तरह स्थानीय व प्रदेश स्तरीय नेताओ को एक तरफ कर हर छोटे-बड़े चुनाव को अपने नाम व प्रचार के बूते लड़ने की जिद मोदी व भाजपा के लिऐ भारी पड़ सकती है। हो सकता है कि अपने हिन्दुत्ववादी ऐजेण्डे पर चलकर भाजपा व नरेन्द्र मेादी आगामी लोकसभा का चुनाव भी जीत जाये और मजबूत विपक्ष के आभाव में उनके पुराने नारों व वादो को चुनावी चर्चाओं के दौरान जगह भी न मिले लेकिन यकीन जानियें देश के प्रधानमंत्री के रूप में ‘इकला चलो’ व मनमर्जी का अंदाज मोदी के लिऐ नुकसानदायक हो सकता है और अगर अपनी करिश्माई छवि व मीडिया के एक हिस्से के बेहतर मेनेजमेन्ट के चलते मोदी जी अपना अगला कार्यकाल पूरा कर भी लेते है तो यकीन जानियें इन पाॅच-सात वर्षो में भाजपा पूरी तरह समाप्त होकर काॅग्रेस से बदतर हालत में आ जायेगी जो कि इस देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के लिऐ नुकसानदायक हेागा। इसलिऐं भाजपा व संघ के रणनीतिकारों को चाहिऐं कि वह मोदी सरकार के महिमामण्डन व देश के विभिन्न हिस्सों में सरकार बनाने की केाशिशों के साथ ही साथ राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय व कुशल वक्ता नेताओं को तैयार करने का क्रम जारी रखे।

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