नेताओं व नौकरशाहों के भरोसे चल रहे सरकारी तंत्र में महिला सशक्तिकरण के विभिन्न दावों के बावजूद महिलाऐं व लड़कियाँ आज भी पूरी तरह असुरक्षित।
सावन के महिने में हरियाली तीज के अवसर पर उमंग और तरंग से अभिभूत महिला समाज स्थानीय लोकगीतों की गूंज के साथ उल्लास में डूबा हुआ है और देश के प्रधानमंत्री समेत तमाम छोटे-बड़े नेता बेटी बचाओं-बेटी पढ़ाओं या इससे ही मिलते-जुलते नारे लगाकर समाज में महिलाओं की घटती जनसंख्या की ओर देश की जनता का ध्यान आकृष्ट कर रहे है लेकिन इस सबके बावजूद हमारे देश व समाज में महिलाओं के खिलाफ अत्याचार और अपराध रूकने का नाम नही ले रहा। कानून अपना काम कर रहा है और जनसुरक्षा के मद्देनजर गठित देश का पुलिस विभाग सत्तापक्ष के नेताओं की कठपुतली बनकर उनकी इच्छा एवं हितों के अनुरूप तथ्यों व सबूतों को पेश करते हुऐ न्याय को प्रभावित करने की कोशिशों में जुटा हुआ है लेकिन हालात जस के तस नजर आ रहे है और निर्भया के बाद गुड़िया ही नही बल्कि रोजाना के हिसाब से सैकड़ों बच्चियाँ इंसानी हवस का शिकार बनायी जा रही है। हो सकता है कि कहने में यह तथ्य थोड़ा अटपटा सा जरूर लगे लेकिन यह सच है कि हम तेजी से बदलते वक्त के साथ अपनी मानसिकता नही बदल पाये है और हमारे नेता बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को लड़कों द्वारा नासमझी में हो गया काम या फिर छोटी-मोटी घटना बताते है जबकि सामाजिक शुचिता व बराबरी और जानवर को भी माँ का दर्जा देने की बात करने वाली विचारधारा को समाज में हो रहे लैंगिक अपराधों या महिलाओं को केन्द्र में रखकर की जा रही हिंसा के पीछे उनके पहनावें व अंदाज में आ रहा बदलाव ज्यादा जिम्मेदार लगता है जिससे बचने के लिऐ तुगलकी फरमानो वाले अंदाज में महिलाओं के लिऐ ड्रेस कोड व वक्ती पाबन्दी की बरसात लगभग हर छोटी-बड़ी घटना दुर्घटना के बाद होती है और मजे की बात यह है कि ड्रेस कोड व पाबंदी की बात करने वाली इन तमाम तरह की विचारधाराओं से खुद को जुड़ा हुआ बताने वाले लोग मौका मिलने पर मायावती, ममता बनर्जी या सोनिया गांधी जैसी सभ्रान्त व सलीके से कपड़े पहनने वाली महिलाओं पर भी लांछन लगाने या टिप्पणी करने से नही चूँकतेे। हमने देखा कि दिल्ली में निर्भया की मौत के बाद सड़कों पर उतरे आम जनता के हुजूम से डरकर सरकारी तंत्र ने त्वरित अदालत के माध्यम से इस मामले को निपटाया और अपराधियों को सजाये मौत दी गयी लेकिन दुर्घटना व सजा के इस छोटे अतंराल में न जाने कितनी निर्भया पापियों के पाप से दबकर सिसक-सिसक कर ददम तोड़ चुकी है और कानून इन मामलों को अपने संज्ञान में लेने को तैयार ही नही है क्योंकि हमारा पुलिसिया तंत्र इस प्रकार के तमाम विषयों को लेेकर आज तक संजीदा नही हो पाया है। ठीक इसी तरह हमने देखा कि निठारी काण्ड के मुख्य अभियुक्त कोली व पन्देर, तमाम दुर्दान्त हत्याओं व छोटी बच्चियों से अनैतिक सम्बन्ध बनाने के आरोंपो के बावजूद आज तक न सिर्फ जिन्दा है बल्कि इस पूरे घटनाक्रम के पीछे छिपे सच से देश की जनता आज भी महरूम है और कोई भी सरकार यह बताने को तैयार नही है कि एक लंबे समय से चल रहे अपहरण व हत्या के इस सिलसिले को रोकने में नाकाम रही पुलिस व्यवस्था से जुड़े आला अधिकारियों व जिम्मेदार मंत्रियों को अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह से पूरी न करने के लिऐ क्या सजा दी गयी। यह ठीक है कि सरकार हर नागरिक को अलग से सुरक्षा मुहैय्या नहीं करा सकती और न ही सरकारी तंत्र के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी है कि किसी भी दुघर्टना के घटित होने से पहले ही अपराध को रोका जा सके लेकिन इस सबके बावजूद कानून तोड़ने और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ व बलात्कार से जुड़े मामलों में देखने को मिलता है कि अगर पुलिसिया काम-काज में राजनैतिक हस्तक्षेप नही होता तो शायद ज्यादा महिलाओं को वर्तमान में लगने वाले वक्त से कहीं जल्दी न्याय मिलता। सरकार अगर चाहे तो बहुत ही आसानी से पुलिस के कामकाज में राजनैतिक हस्तक्षेप को रोका जा सकता है लेकिन नेताओं के चाल-चरित्र का अवलोकन करने पर हम बड़ी ही आसानी से यह अंदाजा लगा सकते है कि अधिकांश नेताओं की राजनीति पुलिस के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप कर स्थानीय स्तर पर पंचायत लगा कानूनी मामले निपटाने से ही चलती है और न्यायपालिका में स्पष्ट दिखने वाले भ्रष्टाचार से डरी सहमी जनता भी अपनी हक-हकूकों व अपने साथ हो रहे अत्याचार के मामले में न्यायालय से कहीं ज्यादा अपने नेताओं पर भरोसा करती है। यह अलग बात है कि सामाजिक न्याय के पुजारी बन बैठे इन तमाम नेताओं व जनप्रतिनिधियों पर न सिर्फ अनेकानेक मुकदमें दर्ज है बल्कि कई मामलों में न्याय के मन्दिरों से सजायाफ्ता घोषित होने के बावजूद यह तमाम बड़ी हस्तियाँ एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय में चक्कर काटकर अपने मामलों को उलझाऐं हुऐ है। हालातों के मद्देनजर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के आधार पर चलने वाले भारतीय गणराज्य में पुलिस सुधार अधिनियम लागू होेने तथा ठीक सेना की तर्ज पर पुलिस के कामकाज पर भी सवाल उठाने व राजनैतिक हस्तक्षेप बंद होने की संभावनाऐं नगण्य है। लिहाजा देश की जनता यह उम्मीद भी कैसे कर सकती है कि उसे अन्याय व गैर बराबरी के खिलाफ सही और सस्ता न्याय मिल पायेगा। महिलाओं के मामले में हालत और भी ज्यादा खराब है क्योंकि महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक मानने वाले हमारे नेता व सत्ता के शीर्ष पर बैठे अधिकांश चेहरें अपने भाषणों में-यत्र नारी पूजियन्ते‘ का राग भले ही अलापे लेकिन उनकी असली दिलचस्पी ‘बेटी बचाओ‘ में न होकर अपना वोट बैंक बचाने में है और केन्द्र व विभिन्न राज्यों की सत्ता पर बैठी सरकारें इसी हिसाब से अपना फैसला लेती है। हमने देखा कि मुस्लिम समाज में तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं की संख्या पूरे देश में बलात्कार व यौन उत्पीड़न के मामलों में सामने आने वाली शिकायतों के मुकाबले नगण्य है लेकिन सत्ता पक्ष के लिऐ तीन तलाक एक राजनैतिक व देश की अदालतों में विचारधीन लोकप्रिय मुद्दा है जबकि महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा, यौन उत्पीड़न या बलात्कार से जुड़े मामलों में सरकार के पास कोई जवाब नही है या फिर वह महिलाओं को ढ़ंग के कपड़े पहनने और भारतीय संस्कृति का अनुपालन करने जैसी घिसी-पिटी नसीहतें देकर उनकी रक्षार्थ बनाऐ गये कानूनों का हवाला देते हुऐ तथ्यों व सबूतों के आधार पर कार्य करने वाली न्याय की उबाऊ प्रणाली के भरोसे छोड़ देते है। ठीक इसी प्रकार गाय को माँ का दर्जा देकर उसकी रक्षा के लिऐ जीवन-मरण का प्रश्न बनाते हुऐ लट्ठ लेकर सड़कों पर निकलने वाली विचारधारा जब शराब जैसी सामाजिक बुराई का विरोध कर रही माताओं व बहनों के साथ होने वाले पुलिसिया अत्याचार व शराब माफिया की गुण्डई पर चुप्पी साधे दिखती है तो स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय राजनीति में नेताओं की कथनी व करनी में कितना बड़ा फर्क है । इस फर्क को महसूस करने के बाद देश और दुनिया की यह आधी आबादी व्यापक जनहित के नाम पर गठित होने वाली सरकारों तथा इन सरकारों के अधीनस्थ काम करते हुऐ सिर्फ नेताओं का हुकुम बजाने वाली सरकारी व्यवस्था व पुलिस प्रशासन पर किस हद तक भरोसा कर सकती है, यह सोचने योग्य प्रश्न है।