सांस्कृतिक विरासत पर हमला | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 20, 2024

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सांस्कृतिक विरासत पर हमला

स्थानीय लोकमान्यताओं व लोकपर्वों से विमुख समाज में कई तरह की विकृतियां पैदा होने का खतरा
उत्तराखंड के उत्सवधर्मी समाज को किसी भी धर्म, प्रान्त या फिर मान्यता के तीज त्योहारों को अंगीकार करने अथवा उन्हें आत्मसात कर लेने से कभी परहेज नहीं रहा है और शायद यही वजह है कि इस देवभूमि में हर परम्परा व मान्यता न सिर्फ फली-फूली है बल्कि देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों से आए अनेक धर्मों व परम्पराओं को मानने वाले धर्मगुरूओं या धर्मावलम्बियों ने इस क्षेत्र को अपने गृह क्षेत्र के रूप में अंगीकार किया है। अर्थात् मुल्क के विभिन्न हिस्सों से पर्यटन अथवा छुटपुट कामधंधों के लिए इस पहाड़ी प्रदेश का रूख करने वाली आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसने न सिर्फ स्थायी रूप से यहां रहना स्वीकार किया बल्कि कालान्तर में यहां रोटी-बेटी के सम्बंध स्थापित कर अपनी परम्पराओं व धार्मिक मान्यताओं को नये आयाम देने की कोशिश की। इसके ठीक विपरीत उत्तराखंड का पहाड़ी समाज जाने-अनजाने में अपने गांव-देहात से दूर पलायन करता गया और प्रदेश की मूल आबादी के एक बड़े हिस्से के गांव-देहात से पलायन कर जाने के चलते उसकी मान्यताएं व परम्पराएं या तो पीछे छूटती चली गयी या फिर उन्हांेने अन्य संस्कृतियों के साथ घालमेल कर कुछ ऐसा रूप ले लिया कि उनकी अपनी पहचान को ही एक खतरा महसूस होता दिख रहा है। वैसे तो सरकारी स्तर पर लोकपरम्पराओं व स्थानीय संस्कृति को बचाने के लिए किए जा रहे प्रयासों के तहत न सिर्फ एक स्वतंत्र विभाग का गठन उत्तराखंड में किया गया है और भारी-भरकम बजट के साथ लोक-कलाकारों की एक बड़ी फौज व तथाकथित सांस्कृतिक विशेषज्ञों की एक बड़ी टोली के सहयोग से यह विभाग अपनी परम्पराओं व विधाओं को सहेजने का दावा करता है लेकिन अगर तथ्यों की गंभीरता के नजरिये से देखा जाय तो गांव-घरों की संस्कृति व लोकपरम्पराओं को मंचों पर सुसज्जित करने के बावजूद इस पूरे मंत्रालय का इस विषय में योगदान शून्य ही कहा जा सकता है। यह माना कि मतदाताओं के प्रति प्रतिबद्ध सरकारें जनता को वही सब कुछ देने को प्रतिबद्ध है जो जनमत की अपेक्षा व आकांक्षाएं हों और वोटों की राजनीति के गड़बड़ाते गणित के बीच सरकारी तंत्र की यह मजबूरी है कि वह पहाड़ी मतदाताओं के स्थानीय तीज-त्योहारों व परम्पराओं को नकारकर अपनी परम्पराओं के प्रति ज्यादा प्रतिबद्ध व समर्पित दिखने वाले पंजाबी, बिहारी अथवा अन्य समुदायों को तवज्जो दें लेकिन अगर यह तवज्जो सामाजिक समीकरण बिगाड़ती हुई लगे या फिर ऐसा महसूस हो कि मतदाताओं के एक वर्ग विशेष को खुश करने के लिए पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी उत्तराखंड राज्य स्थापना की उस मूलभावना के ही विपरीत जा खड़ी हुई है जिसे लेकर इस राज्य की मांग व लम्बा जनान्दोलन किया गया था, तो यह मानना चाहिए कि इन छोटेे-छोटे विषयों पर व्यापक जनाक्रोश कभी भी और कहीं भी भड़क सकता है। हालांकि स्थितियां अभी इतनी बुरी नहीं है कि संभाली ही न जा सके और न ही राज्य की स्थिति इतनी खराब हुई है कि यहां के मूल निवासियों को अपनी पहचान व अस्तित्व खोने का खतरा मंडराता दिख रहा हो लेकिन हालात जो इशारा कर रहे हैं उनके आधार पर हम यह स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि अपनी परम्पराओं, लोकमान्यताओं व धार्मिक रीति-रिवाजों से हटकर सिर्फ मंचीय प्रदर्शन तक सीमित होता जा रहा हमारा समाज इन पिछले दो दशकों में वह बहुत कुछ खो चुका है जिसे हम जनान्दोलन व व्यापक जनभावनाओं को बांधे रखने की एक बड़ी पूंजी मानते थे। यह ठीक है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय फलक पर स्वीकारे जाने के लिए स्थानीय प्रतिभाओं व लोकमान्यताओं की विभिन्न बड़े मंचों पर प्रस्तुति आवश्यक है और यहां पर यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि बिहार की छठ पूजा या फिर पंजाबी समाज के बीच प्रचलित करवाचैथ जैसे आयोजनों के साथ ही साथ कुछ विशेष लोकनृत्यों व लोकमुद्राओं को भारतीय सिनेमा व छोटे पर्दे ने कुछ इस तरह स्वीकृति दी है कि इन्हें समाज के सभी तबकों के बीच प्रचार-प्रसार मिला है लेकिन हमने कभी उन कारणों की तलाश करने की कोशिश ही नहीं की जिनके चलते हमारा समाज अपनी लोकपरम्पराओं व लोकमान्यताओं से दूरी बनाता दिख रहा है। समाज में आ रही इन कुरीतियों या बदलाव के लिए राज्य की जनहितकारी सरकारें सीधे तौर पर दोषी भले ही न हो लेकिन एक संस्कृति व सभ्यता में आ रहे इस सामाजिक बदलाव के लिए सरकारी तंत्र अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकता और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि अगर सरकारें चाहें तो वह अपने सूक्ष्म प्रयासों से ही समाज के बीच मरणासन्न अवस्था में सांसें ले रही तमाम लोकपरम्पराओं को नवगति प्रदान कर सकती है लेकिन अफसोसजनक तथ्य है कि सरकारी तंत्र व सत्ता के उच्च प्रतिष्ठानों पर काबिज नेताओं व नौकरशाहों के तालमेल ने उत्तराखंड की तमाम लोककलाओं को अपना चारणदास बनाकर रख छोड़ा है और हमें यह कहने में कोई हर्ज प्रतीत नहीं होता कि हमारे सरकारी तंत्र पर काबिज मंत्रियों, विधायकों या अन्य तथाकथित जनप्रतिनिधियों की नजर में लोककला, लोक परम्परा या फिर लोक कलाकार का अर्थ अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए भीड़ एकत्र करने तक सीमित होकर रह गया है। हमने देखा कि अपने छोटे से कार्यकाल के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने जब स्थानीय कृषि उत्पादों के साथ ही साथ यहां के पौष्टिक व्यंजनों व लोक परम्पराओं की ओर तवज्जों देने की कोशिश की तो उनके इन प्रयासों का शासन तंत्र के भीतर व बाहर दोनों स्तर पर विरोध हुआ तथा उनके शुरूआती प्रयास मात्र से ही वैश्विक पर्यावरण के आदर्श पर्व के रूप में स्थापित होते दिख रहे लोक पर्व ‘हरेला’ के साथ इतने प्रयोग किए गए कि सरकार बदलने के बाद ‘हरेला’ अपने मूल उद्देश्य व मूल भावना को ही खोता दिख रहा है और अगर सरकारी अवकाश की ‘नजरे इनायत’ को दृष्टिगत रखते हुए बात करें तो हम पाते हैं कि करवाचैथ, चेट्टीचन्द, गुरूपर्व या फिर छठ जैसे विभिन्न अवसरों पर सरकारी अवकाश की मांग के साथ ही साथ इन अवसरों पर जनता को बधाई देने के लिए उत्साहित नजर आने वाले हमारे नेताओं को वट सावित्री, सातो-आठो, अष्टिका-नष्टिका, पितृ विसर्जन अमावस्या समेत ऐसे तमाम अवसरों की जानकारी ही नहीं है जिन्हें हमारा पहाड़ी समाज कालान्तर से धार्मिक मान्यताओं व लोकपरम्पराओं के रूप में सहेजकर चल रहा है। हम कितने ही आधुनिक हो जाएं या फिर दिखावे व बाजारवादी संस्कृति की होड़ में हम कितने ही आडम्बर क्यों न कर लें लेकिन हम इस तथ्य को नकार नहीं सकते कि देवभूमि उत्तराखंड में पर्यटन को बढ़ावा देने का एकमात्र तरीका यहां की धार्मिक मान्यताओं व परम्पराओं को अंगीकार करके ही आगे बढ़ता दिखाई देता है और इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि उत्तराख्ंाड में धार्मिक पर्यटन को बढ़ाने के लिए धर्म प्रेमी जनता को सिर्फ चारधाम यात्रा तक सीमित करने के स्थान पर उसे सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की लोकमान्यताओं व लोक पर्वों से जोड़ना होगा लेकिन अफसोसजनक पहलू यह है कि हमारा सरकारी तंत्र जाने-अनजाने में उत्तराखंड की लोकसंस्कृति व लोकमान्यताओं पर लगातार हो रहे सांस्कृतिक हमलों को खुद आमंत्रण दे रहा है और हम अपने परम्परागत् परिधानों व मान्यताओं को छोड़कर कुछ इस अंदाज में बाजारवाद के साथ कदमताल कर रहे हैं कि हमारा सांस्कृतिक ह्रास निश्चित दिखाई दे रहा है। कितना आश्चर्यजनक है कि क्षेत्रीय एवं भौगोलिक कारणों के चलते अस्तित्व में आये उत्तराखंड राज्य की स्थानीय बोली-भाषा को लेकर सरकार की कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई देती जबकि राज्य में हिन्दी अकादमी की तर्ज पर उर्दू अकादमी व पंजाबी अकादमी न सिर्फ अस्तित्व में है बल्कि इन्हें लेकर सरकार समय-समय पर विभिन्न घोषणाएं भी करती है। ठीक इसी तरह हमारे लोकपर्व, लोकपरम्पराएं व लोकमान्यताएं सरकारी तंत्र के लिए चिंता का विषय नहीं हैं लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों से राज्य में मजदूरी करने आए बिहारी समुदाय के लोगों अथवा अन्य प्रांतवासियों की तमाम छोटी-बड़ी धार्मिक मान्यताओं को राज्य की नौकरशाही के एक गुट विशेष की सक्रियता के चलते विशेष तवज्जो दी जा रही है और कुछ विशेष अवसरों पर होने वाले आयोजनों को देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कुछ संगठित जनसमुदाय पहाड़ी समाज को उनकी थाती पर वैध-अवैध कब्जेदारी की चेतावनी सी दे रहे हां।

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