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Saturday, April 20, 2024

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सवाल दर सवाल है

सिर्फ सरकारी आयोजनों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक सिमटा उत्तराखंड का राज्य स्थापना दिवस
तथाकथित रूप से आर्थिक तंगहाली के दौर से गुजर रही उत्तराखंड की सरकार कर्ज लेकर फर्ज पूरा करने वाले अंदाज विकास को अंजाम देने के लिए कंकरीट के जंगल के निर्माण व उत्सवों के आयोजन में जुटी है तथा पुराने नामों व कामों को आगे कर कुछ इस अंदाज में प्रस्तुत किया जा रहा है कि एकबारगी जनता भी चैकन्नी होकर यह मानने को मजबूर होती नजर आने लगती है कि सरकार बहादुर वाकई में कुछ करना चाहते हैं। मौका रैबार का हो या फिर राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर हुए वार्षिक आयोजन को लेकर पत्रकारों के एक विशेष हिस्से के बीच स्पष्ट दिखे आक्रोश का, हर मौके पर यह साफ और स्पष्ट दिखता है कि नौकरशाही के एक हिस्से के गलत फैसले के कारण न सिर्फ सरकार बहादुर की छिछालेदार हुई बल्कि जनसामान्य तक वह तमाम सूचनाएं व योजनाएं नहीं पहुंच पायी जिनकी जनता वाकई में हकदार थी लेकिन सरकार बहादुर पूर्ण बहुमत के दम्भ में है और उन्हें यह लगता है कि जादुई अंदाज में उनके हाथ आयी सत्ता की इस बागडोर को पांच साल से पहले हिलाना किसी के लिए आसान नहीं है। वैसे अगर देखा जाय तो यह सच भी है और सत्ता के मद में चूर नेताओं व मंत्रियों के लिए जनान्दोलन, विरोध या फिर पत्रकारों की नाराजी के कोई मायने नहीं हैं बल्कि लगातार सामने आ रहे घटनाक्रमों अथवा विरोध प्रदर्शनों को लेकर सरकारी पक्ष जानने की कोशिश करें तो सत्तापक्ष का लगभग हर हिस्सा जनान्दोलन को विपक्ष की साजिश बताता प्रतीत होता है और विरोध के सुरों से पनपते सवालों का कोई जवाब देने के स्थान पर वह ताकत के बलबूते विरोध को कुचलने की बात करता नजर आता है। हमने देखा कि इधर पिछले दिनों सरकार द्वारा किया गया महत्वाकांक्षी आयोजन ‘रैबार’ आयोजन स्थल पर पत्रकारों के प्रवेश को लेकर बनाये गए अघोषित नियमों के चलते न सिर्फ दाल-भात तक सिमटा नजर आया बल्कि सरकारी तंत्र के बेहतर मैनेजमेंट के बावजूद तथाकथित गणमान्यों व अतिथियों द्वारा राजधानी के एक बड़े होटल में की गयी अभद्रता की खबरें जनता की नजरों से बची न रह सकी। हमने यह भी देखा कि सरकारी कारकूनों ने राज्य स्थापना दिवस के मौके पर दिए जाने वाले पत्रकारों के वार्षिक भोज व अन्य तमाम सरकारी कार्यक्रमों के बीच दूरी बनाने के कार्यक्रम को किस सफलता से अंजाम दिया और मीडिया के सवालों से खौफ खाने वाले मुख्यमंत्री को किस रणनैतिक अंदाज से खोजी पत्रकारों के एक गुट विशेष से दूर रखने की कोशिश की गयी लेकिन इतना सब कुछ देखने के बावजूद कहीं भी यह अहसास नहीं हुआ कि सत्ता पक्ष किसी भी मोर्चे पर मीडिया के निशाने पर है या फिर विज्ञापन व अन्य सुविधाओं से महरूम हो चुका मीडिया का एक बड़ा हिस्सा किसी भी स्तर पर सरकारी तंत्र या हुक्मरानों की घेराबंदी करने की हिम्मत जुटा पाया है। उत्तराखंड राज्य को अस्तित्व में आए हुए सत्रह साल हो गए और इन सत्रह सालों में यह चैथी जनता द्वारा चुनी गयी लोकहितकारी सरकार राजसत्ता पर काबिज है लेकिन अगर उपलब्धियों व जनस्वीकार्यता की नजरों से देखें तो ऐसा लगता है कि मानो इसकी राजनैतिक सत्ता पर काबिज नेताओं व विचारधाराओं ने जनसामान्य की नब्ज को छूने का प्रयास ही नहीं किया और मौका-बमौका बनायी गयी नीतियों व योजनाओं के जरिए यहां के प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने या फिर मजबूत पारिस्थितिकी तंत्र का लाभ उठाने के प्रयास तो जरूर हुए किंतु प्रकृति के साथ जुड़कर या फिर आम आदमी के हितों को ध्यान में रखते हुए कोई काम ही नहीं किया गया और न ही उन तमाम विषयों व मुद्दों को प्राथमिकता पर रखा गया जिन्हें लेकर एक अलग राज्य के पक्ष में सुरों की लामबंदी शुरू हुई थी। कहने का तात्पर्य यह है कि तथाकथित रूप से पूर्ण बहुमत वाली सरकारें व्यापक जनहित के मुद्दों से परहेज करती रही और एक आम पहाड़ी के हितों की रक्षा के लिए गठित उत्तराखंड नौकरशाहों व नेताओं की ऐशगाह में तब्दील होता गया। शायद यही वजह है कि राज्य स्थापना की वर्षगांठ जैसे अवसरों पर सरकार की ओर से आयोजन है, कार्यक्रम है, विज्ञापन है लेकिन जनता के बीच वह हर्ष, खुशी या उत्साह नहीं है जो इस अवसर पर दिखना चाहिए था और कतिपय आयोजनों को अगर छोड़ दें तो इस अवसर पर किए जाने वाली तमाम घोषणाएं व अन्य सरकारी कार्यक्रम एक रस्म अदायगी मात्र बनकर रह गए हैं। यह माना कि सरकार के आयोजनों में पैसा एक महत्वपूर्ण पहलू है और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता लोक-कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में ठीक-ठाक प्रचार-प्रसार के जरिये राज्य की तमाम सरकारों ने यहां के एक रचनात्मक पक्ष को देश एवं दुनिया के सामने रखा है लेकिन यहां पर यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि उत्सव मनाने के नाम पर हम सिर्फ सांस्कृतिक आयोजनों तक सीमित होकर रह गए हैं और अनुभवहीनता के कारण तमाम पौराणिक मेले व स्थानीय आयोजन अपना भव्य व पुरातन स्वरूप खोते जा रहे हैं। हमने देखा है तीज-त्यौहारों के सरकारीकरण के चलते इन अवसरों पर उमड़ने वाली भीड़ अब ठिठकती दिखाई दे रही है और राजनीति को भीड़ पर आधारित मान लेने की परिकल्पना ने जनपक्ष के मायने ही बदल दिए हैं। उत्तराखंड जैसे उत्सवधर्मी समाज को अगर यह पता चल जाय कि अपनी संस्कृति, लोककला व मान्यताओं के प्रति उसके प्रेम व अनुराग का उपयोग राजनेताओं व सत्ता के शीर्ष पदों पर काबिज माननीयों द्वारा सिर्फ जनता को एकत्र करने के लिए किया जा रहा है और सरकारी खर्च व व्यवस्थाओं से होने वाले तमाम सांस्कृतिक आयोजनों में जनता की भूमिका सिर्फ भीड़ की है, तो यह निश्चित जानिये कि राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले सांस्कृतिक एवं पौराणिक आयोजनों पर सरकार बहादुर के जाने या फिर नेताओं के बुलाये जाने पर प्रतिबंध लग जाएगा लेकिन हाल-फिलहाल तो सब कुछ चल ही रहा है या फिर यो कहिए कि किसी भी सरकारी अथवा गैरसरकारी कार्यक्रम की सफलता या असफलता का जिम्मा सांस्कृतिक दलों एवं इनकी व्यवस्था करने वाले कलाकारों का ही है और इन सत्रह सालों में यही हमारे राज्य की एक उपलब्धि दिखती है। हालांकि तमाम पिछली सरकारों की तरह वर्तमान सरकार के भी अपने दावे व मजबूरियां हैं और पिछली सरकारों वालों अंदाज में उन्होंने भी अपने पिटारे में बहुत कुछ रखकर छोड़ा हुआ है जिसे मौका-बमौका या फिर चुनावी मौकों पर घोषणाओं एवं सरकार की उपलब्धियों के रूप में बाहर निकलना है लेकिन राजनीति की भी अपनी जरूरतें हैं और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि सत्ता पर कब्जेदारी के इन आठ महीनों में कोई विशेष उपलब्धि या लोकप्रियता हासिल न होने के बावजूद त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार की अपनी अपेक्षाएं व महत्वाकांक्षाएं हैं। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि कई तरीके के प्रश्नचिन्हों व किंतु-परंतु के बावजूद हमारी तथाकथित रूप से अपनी सरकारें जनापेक्षाओं पर खरी उतरने में पूरी तरह असफल रही है और चुनाव दर चुनाव वादों के बोझ के साथ ही साथ विकास का दंभ ओढ़े हमारे नीति-निर्धारक राज्य के स्थापना दिवस को पूरे जोर-शोर से मनाने की परम्पराओं का निर्वहन करते चले आ रहे हैं।

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