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Saturday, April 20, 2024

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सवाल दर सवाल है

 

सत्ता के शीर्ष पर कब्जेदारी के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर किए गए अनगिनत हमलों के बावजूद दिन-ब-दिन मजबूत हुआ है हमारा गणतंत्र

लाल किले की प्राचीर पर ही नहीं बल्कि देश के हर छोटे-बड़े संस्थान, कार्यालयों व कुछ निजी आवासों पर भी तिरंगा पूरी शान से लहरा रहा है और संवैधानिक सीमाओं व कानून व्यवस्था के सामने ढीली पड़ी कुछ निजी सेनाओं व अराजकतावादियों की अकड़ यह इशारा कर रही है कि लाख खतरों व प्रश्नचिन्हों के बाद भी भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूती की ओर प्रस्थान कर रही है। देश की सर्वोच्च अदालत से जुड़े कुछ न्यायाधीशों ने जब मीडिया के माध्यम से आम जनता को एक संदेश देने की कोशिश की तो एकबारगी यह लगा कि क्या वाकई देश का लोकतंत्र खतरे में है और जब कुछ अति-उत्साही सरकार समर्थकों ने न्यायाधीशों के इस कृत्य का विरोध करते हुए झूठी-सच्ची कथा-कहानियों के जरिये उनके चरित्र हनन के प्रयास शुरू किए तो ऐसा लगा कि मानो अब इस व्यवस्था को डूबने से कोई नहीं बचा सकता लेकिन दूसरे ही पल सब कुछ थमता नजर आया और व्यवस्था के एक अंग को जब दूसरे अंग का सहारा मिला तो सारे भूचाल खत्म होते नजर आए। यही भारतीय गणराज्य की व्यवस्था है और हमें हर्ष है कि हम इस देश के नागरिक के रूप में इस व्यवस्था के अहम् अंग हैं। यह माना कि हमारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार है तथा सत्ता की राजनीति करने वाले नेता अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म, जाति, भाषा व वर्ण व्यवस्था से जुड़े सवालों को उठाते रहते हैं और हमारे नौकरशाह व अन्य सरकारी मशीनरी अपने निजी फायदे के लिए सत्तापक्ष का आंख मूंदकर समर्थन करने की अभ्यस्त है लेकिन इस सबके बावजूद हमें यह कहने में कोई हर्ज प्रतीत नहीं होता कि हम विश्व की सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में से एक हैं और हमारे संविधान ने देश के हर नागरिक को ऐसी शक्तियों से नवाजा है कि उसे अपनी बात रखने व अपने अधिकारों के लिए लड़ने का पूरा अधिकार है। यह ठीक है कि महंगी कानूनी प्रक्रियाओं ने आम आदमी से उसके अधिकार छीनने के प्रयास किए हैं तथा पिछले कुछ वर्षों में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर हावी होते नजर आते छद्म राष्ट्रवाद ने जनसामान्य की बेचैनी में और ज्यादा इजाफा किया है लेकिन यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि आतंकी एवं बलवाई ताकतें आखिरकार पराजित ही होती दिखी हैं और राष्ट्र अथवा राज्य की राजनैतिक सत्ता हथियाने के लिए तमाम तरह के दन्द-फन्द आजमाने वाले नेताओं व अन्य राजनैतिक ताकतों ने अंत में हमेशा ही सच का साथ दिया है। यह निर्णय विवशता के चलते लिए गए हों या फिर राजनैतिक स्वार्थों के वशीभूत होकर लेकिन अगर व्यापक परिपेक्ष्य में भारतीय राजनीति के पटल पर लिए गए तमाम बड़े निर्णयों की समीक्षा करें तो हम पाते हैं कि यह भारतीय गणतंत्र की ताकत एवं लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का चमत्कार ही है कि यहां सत्ता के शीर्ष पर बहुमत हासिल करने के बावजूद कोई भी सरकार या राजनैतिक दल मनमानी करने में सफल नहीं रहा है। हमने देखा कि एक सर्वशक्तिमान नेता के रूप में जब इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की तो सम्पूर्ण सरकारी मशीनरी व तंत्र के सत्ता पक्ष के साथ होने के बावजूद उन्हें हार माननी पड़ी। ठीक इसी तरह सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के लिए या फिर इसके बाद विभिन्न राज्यों की सत्ता को हासिल करने के लिए कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाले देश के प्रधानमंत्री को लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तहत राष्ट्र की सर्वोच्च राजनैतिक ताकत होने के बावजूद जनता की अदालत में यह स्वीकार करना पड़ा कि कांग्रेस मुक्त भारत से उनका तात्पर्य एक राजनैतिक दल के रूप में कांग्रेस व उसकी विचारधारा को समाप्त करना नहीं बल्कि भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी कांग्रेसी संस्कृति को समाप्त करना मात्र है। हालांकि अभी यह साबित होने में वक्त है कि कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने वाले तमाम तथाकथित भ्रष्ट नेताओं को अपनी पार्टी का टिकट देने के बाद उन्हें सांसद, विधायक व मंत्री पद से नवाजने वाले नरेन्द्र मोदी व भाजपा के अन्य रणनीतिकार यह दावा कैसे कर सकते हैं कि वह भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी कांग्रेसी संस्कृति को समाप्त करना चाहते हैं लेकिन अगर बयानों व कार्यशैली के आलेख में बात करें तो हम पाते हैं कि सत्ता का अंग बनने से पूर्व अराजकता व बड़बोलेपन का आचरण करने वाले भाजपाई सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के बाद अपनी हदों में रहने व मर्यादित आचरण करने को मजबूर हैं और यही भारतीय लोकतंत्र की वह विशेषता है जिस पर कायल हुआ जा सकता है क्योंकि अगर ऐसा न होता तो अपना जनाधार बढ़ाने के लिए राममंदिर आंदोलन का चक्रव्यूह रचकर विवादित स्थल में तोड़फोड़ की कार्यवाही को अंजाम देने वाली भाजपा केन्द्रीय सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के साथ ही साथ उत्तरप्रदेश की भी सत्ता पर काबिज होते ही अपने समर्थकों को खुश व एकजुट रखने के लिए राम मंदिर निर्माण का कार्य शुरू कर देती और भारत को एक हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाता किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि अगर व्यापक परिपेक्ष्य में देखा जाय तो पूर्व में सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के लिए भाजपा व संघ के नेताओं द्वारा अपनायी गयी कट्टरवाद की रणनीति अब उनके लिए ही भारी पड़ने लगी है और कई मामलों में तो सत्ता पक्ष को इस तरह की समस्याओं का समाधान ही नजर नहीं आ रहा। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा के रणनीतिकारों ने कांग्रेस को पटखनी देने के लिए सरकारी स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार और महंगाई जैसी तमाम समस्याओं को राष्ट्रवाद से जोड़ा और एक व्यापक रणनीति के तहत बाबा रामदेव व अन्ना हजारे द्वारा आंदोलन के जरिये बनाये गए राष्ट्रवादी माहौल का पूरा फायदा उठाया लेकिन अब यही माहौल उनके लिए समस्या बनता जा रहा है और गोडसे को गांधी से ज्यादा राष्ट्रवादी बताने वाली मानसिकता देश के प्रधानमंत्री से यह सवाल पूछ रही है कि वह भारत दौरे पर आने वाले अपने विदेशी मित्रों व अन्य राष्ट्राध्यक्षों को गांधी समाधि पर ले जाने के स्थान पर गोडसे, वीर सावरकर या अन्य तथाकथित हिन्दू मानसिकता वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की याद दिलाने वाले स्थलों पर क्यों नहीं ले जाते। हालांकि सरकार अभी अपने एजेंडे से बहुत ज्यादा हटती हुई प्रतीत नहीं होती और भाजपा के रणनीतिकारों को यह लगता है कि पाकिस्तान में की गयी सर्जिकल स्ट्राइक व इसी तरह के छदम् युद्ध के किस्सों और पूर्ववर्ती सरकारों पर पूरे दावे के साथ लगाये जाने वाले भ्रष्टाचार व राष्ट्रदोही होने के आरोपों से जनसामान्य को बहलाते हुए सत्ता के शीर्ष पर कब्जेदारी कायम रखी जा सकती है लेकिन जातिगत आरक्षण के मुद्दे पर खड़े हो रहे सवालों तथा तथाकथित स्वाभिमान व राष्ट्रधर्म की रक्षा को लेकर गठित की जा रही नयी सेनाओं व संगठनों ने सत्ता पक्ष के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं और हमें यह कहने में कोई हर्ज प्रतीत नहीं होता कि यह तमाम वह हथियार हैं जिनका उपयोग भाजपा ने पूर्व में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं व सत्तापक्ष की पकड़ को कमजोर करने के लिए किया था। अगर हमारा अनुमान सही है तो अब भाजपा को अपना अस्तित्व बचाने के लिए इन तमाम लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए घातक ताकतों से लड़ना होगा और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में कुल मिलाकर लोकतंत्र ही मजबूत होगा। यही भारतीय गणतंत्र की खासियत है और शायद यही वजह भी है कि अपनी आजादी के इन सत्तर सालों में कई तरह के आंतरिक व बाह्य हमले झेलने के बाद भी भारत हमेशा मजबूती के साथ खड़ा दिखा है। यह ठीक है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर काबिज राजनैतिक विचारधाराएं जब अपने राजनैतिक फायदे अथवा नुकसान को सामने रख देश की जनता से यह सवाल पूछती है कि उन्हें इन पिछले साठ-सत्तर सालों में क्या-क्या हासिल हुआ या फिर क्या हासिल नहीं हुआ तो उनका मंतव्य हमेशा ही भिन्न होता है लेकिन हम इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते कि देश की आजादी के बाद इन पिछले सत्तर सालों में देश के संविधान व हमारे पुरखों के असीम प्रयासों से रची गयी इस व्यवस्था ने हमें इतने असीम अधिकार दिए हैं कि हम बहुत ही आसानी के साथ सड़क के किनारे से चिल्लाकर किसी सत्ताधारी नेता अथवा मंत्री से यह सवाल पूछ सकते हैं कि आखिर उसने किया क्या है और व्यवस्था के खिलाफ रोष प्रकट करने अथवा अपनी बात रखने के लिए भी हमें किसी अनुमति की जरूरत नहीं है। यह माना कि पिछले कुछ वर्षों में इन व्यवस्थाओं में थोड़ा बहुत परिवर्तन आया है और सरकार कानूनों की आड़ लेकर लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात कहने वाले जनसंगठनों व सामान्य जनता को बरगलाने की कोशिशें करने लगी है जबकि लोकतांत्रिक सत्ता पर कब्जेदारी के लिए बहुमत की परिभाषाएं बदलने के प्रयास तेजी से जारी हैं लेकिन हमें विश्वास है कि यह सब कुछ ज्यादा लंबे समय तक चलने वाला नहीं है और मीडिया के एक हिस्से पर काबिज होकर या फिर तानाशाही वाले अंदाज में अपनी वाहवाही लूटने के लिए कुछ चारणदासों के बलबूते सब कुछ प्रायोजित करने की स्थितियों में बदलाव आना अवश्यम्भावी है और यही भारतीय लोकतंत्र की खासियत भी है। इसलिए हम यह विश्वास कर सकते हैं कि कई तरह के किंतु और परन्तु लगने के बावजूद भारतीय गणतांत्रिक व्यवस्थाओं का जलवा कायम है और इन्हें हाल-फिलहाल किसी तरह का कोई खतरा भी नहीं है।

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