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Saturday, April 20, 2024

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सवाल दर सवाल है

उत्तराखंड के एक सुदूरवर्ती पहाड़ी जिले में रहने वाली स्कूली छात्रा की देश के प्रधानमंत्री को सम्बोधित पाती ने झकझोरा आम आदमी का मन और खड़े किए कई सवाल

देश की जनता से रेडियो के जरिये मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पहाड़ की एक बेटी ने अपने मन की बात कही है और बातों ही बातों में पहाड़ की पीड़ा बयान करते हुए इस सुदूरवर्ती पहाड़ी गांव की निवासिनी ने अपने शब्दों के माध्यम से पलायन के दर्द व उत्तराखंड की राजधानी के रूप में गैरसैण की जरूरत को बड़े ही मार्मिक अन्दाज में उकेरा है। हालांकि इन दिनों उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण बनाये जाने का नारा चरम पर है और इस मुद्दे पर राज्य के विभिन्न हिस्सों में आंदोलनों व प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है लेकिन एक स्कूल पढ़ने वाली बच्ची ने जिस अन्दाज में मोदी सरकार के नारे ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का इस्तेमाल करते हुए देश की सर्वोच्च सत्ता तक आम आदमी की भावनाएं पहुंचाने का काम किया है, वह वाकई काबिलेतारीफ है और यह तय है कि अगर देश के प्रधानमंत्री कार्यालय में सुदूरवर्ती क्षेत्रों से भेजी जाने वाली चिट्ठी-पत्री पर गौर फरमाने की परम्परा है तो पहाड़ की इस बेटी की भावनाएं उत्तराखंड के वर्तमान परिवेश में एक व्यापक बदलाव लाने में कामयाब हो सकती है। यह ठीक है कि देश के प्रधानमंत्री के रूप में अपने चुनावी मंचों से उत्तराखंड की जनता से बड़े-बड़े वादे करने वाले नरेन्द्र मोदी से इस प्रदेश की जनता बहुत ज्यादा आशान्वित नहीं है और न ही स्थानीय स्तर पर यह उम्मीद की जा रही है कि चुनावों के दौरान जनपक्ष की ओर से दिए गए पूर्ण बहुमत के बावजूद केन्द्र व भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा राज्य की जनता पर थोपी गयी वर्तमान सरकार अपने इस कार्यकाल में आम आदमी की अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी लेकिन यह माना जा रहा था कि जनता द्वारा लगाये गये बदलाव के नारे के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आयी उत्तराखंड की पूर्ण बहुमत सरकार अपने कामकाज के शुरूआती दौर में पहाड़ की लाइफलाइन मानी जाने वाली सड़कों और पुलों के निर्माण को लेकर सजग दिखाई देगी। अफसोस का विषय है कि भाजपा उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही शराब की बिक्री और खनन से जुड़े सवालों से जूझ रही है तथा राज्य के लगभग हर कोने में जनान्दोलनों की सुगबुगाहट साफ सुनाई दे रही है लेकिन सत्ता के शीर्ष पर काबिज जनप्रतिनिधि आम आदमी की परेशानी को अनसुना कर रहे हैं और पलायन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक आयोग का गठन कर सरकार ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली है। हालातों के मद्देनजर जनसामान्य के बीच आक्रोश होना सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा माना जा सकता है और नोटबंदी व जीएसटी लागू होने के बाद युवा वर्ग में तेजी से बढ़ रही बेरोजगारी व बाजार से गायब दिख रही रौनक का असर अब पहाड़ों पर स्पष्ट रूप से दिखने लगा है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार के साधन सीमित हैं और पूरी तरह मानव श्रम पर आधारित माने जाने वाली पहाड़ की खेती विलुप्ति की कगार पर है। इन हालातों में सरकार को चाहिए था कि वह पहाड़ों से पलायन कर देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों में काम कर रहे प्रवासी उत्तराखंडियों को अपना निवेश अपने पैतृक गांवों में करने के लिए उत्साहित करते हुए योजनाओं का निर्माण करती और दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों को ध्यान में रखकर ऐसी योजनाएं बनाई जाती जिनसे स्थानीय स्तर पर नये संसाधन व बाजार को विकसित किया जा सके लेकिन राज्य की अस्थाई राजधानी देहरादून में बैठने वाले सरकारी अमले को पहाड़ के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है और गैरसैण का मुद्दा सरकार की प्राथमिकता में दूर-दूर तक नजर नहीं आता। मौजूदा सरकार द्वारा दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड में जब गैरसैण के नये बने विधानसभा भवन में विधानसभा सत्र आहूत किया गया तो एकबारगी ऐसा लगा था कि सरकार गैरसैण को लेकर कोई बड़ी घोषणा करने वाली है लेकिन सरकार का यह दावा भी टांय-टांय फिस्स साबित हुआ और पूरे भागमभाग वाले अन्दाज में अपने जरूरी कामकाज दो ही दिन में निपटाकर गैरसैण से लौटी सरकार जनपक्ष को यह जवाब भी नहीं दे पायी कि इस सारी कवायद का आम आदमी को क्या फायदा हुआ। लिहाजा वर्तमान में गैरसैण एक बड़ा मुद्दा है और राज्य की तमाम आंदोलनकारी ताकतें अलग-अलग तरीकों से गैरसैण को राज्य की स्थायी राजधानी घोषित करने के लिए प्रयासरत् दिख रही है। इन हालातों में प्रदेश की युवा पीढ़ी और नौनिहालों का ध्यान भी गैरसैण की ओर जाना स्वाभाविक माना जा सकता है और अब एक बच्ची द्वारा भावनात्मक मुद्दे पर सीधे प्रधानमंत्री को लिखी गयी पाती के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि इस विषय को लेकर सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। यह माना कि राज्य गठन के इन सत्रह वर्षों बाद एकाएक ही नई राजधानी की घोषणा करना या फिर सिर्फ एक विधानसभा भवन अथवा इससे संबंधित कुछ अन्य छोटी-मोटी अवस्थापना सुविधाओं के आधार पर सारे सचिवालय व अन्य प्रशासनिक अमले को गैरसैण के लिए कूच का आदेश देना सरकार के लिए संभव नहीं है और न ही कोई भी सरकार एक ही झटके में इतना बड़ा निर्णय ले सकती है लेकिन यह भी एक तल्ख हकीकत है कि मौजूदा सरकार के पास इस राज्य की जनता को देने के लिए कुछ भी विशेष नहीं है और पहाड़ी जनपदों की हालत इतनी बुरी है कि यहां रहने वाली जनता व सरकारी कर्मकार सिर्फ व सिर्फ मजबूरी के चलते ही अपने स्थानों पर टिके हुए हैं। जहां तक राज्य सरकार का सवाल है तो यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि कर्ज पर टिकी राज्य की अर्थव्यवस्था को किसी भी तरह के विकास कार्यों अथवा आम आदमी को राहत देने वाले कार्यक्रमों के संचालन के लिए केन्द्र सरकार से मिलने वाले विशेष आर्थिक पैकेज की दरकार है लेकिन हालात यह इशारा कर रहे हैं कि केन्द्र सरकार के पास इस तरह की कोई योजना ही नहीं है या फिर यह भी हो सकता है कि केन्द्रीय नेताओं की अनुकम्पा के चलते राज्य की सत्ता के शीर्ष पर काबिज जनप्रतिनिधि केन्द्र सरकार के समक्ष अपनी बात रखने में कुछ अचकचा से रहे हैं। वजह चाहे जो भी हो लेकिन यह हालात इस पहाड़ी राज्य के लिए किसी भी स्थिति में ठीक नहीं कहे जा सकते और न ही यह उम्मीद की जा सकती है कि स्थानीय जनभावनाओं को दरकिनार कर कोई भी सरकार या राजनैतिक दल बहुत ज्यादा लंबे समय तक सत्ता के शीर्ष पदों पर अपनी कब्जेदारी बनाये रह सकता है। आज पूरा उत्तराखंड सरकार विरोधी आंदोलनों की चपेट में है और राज्य की व्यवसायिक राजधानी मानी जाने वाली हल्द्वानी के एक युवा व्यापारी द्वारा भाजपा के मुख्यालय में चल रहे जनता दरबार के दौरान जहर गटक कर अपनी जान देने के बाद यह भी स्पष्ट हो गया है कि राज्य की बेरोजगार जनता अब करो या मरो वाले अंदाज में कुछ बड़े फैसले लेने का मन बना चुकी है। इन हालातों में राज्य के सुदूरवर्ती क्षेत्र में अध्ययनरत् एक छात्रा अगर अपने प्रधानमंत्री के नाम सम्बोधित पत्र के माध्यम से उसकी पीढ़ी द्वारा झेली व समझी जा रही समस्याओं को सरकार के सामने रखती है तो सत्ता के शीर्ष पर काबिज जनप्रतिनिधियों व सरकार के जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं या नौकरशाहों का फर्ज बनता है कि वह इस विषय को गंभीरता से लें और आम आदमी के रोजमर्रा वाले जीवन में सामने आने वाली दुश्वारियों को दूर करने के लिए एक समयबद्ध कार्यक्रम के साथ जनता के बीच उपस्थित हों लेकिन अफसोसजनक है कि सत्ता का शीर्ष इस विषय पर मौन है और सरकार खुद को इस स्थिति में नहीं पा रही है कि वह एक बच्ची के सवालों का जवाब भी दे सके। यह सरकार की कार्यशैली पर एक बड़ा सवाल है और केन्द्र सरकार द्वारा दिया गया ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा भी सवालों के दायरे में है। अब देखना यह है कि देश को प्रधानमंत्री इस विषय को कितनी गंभीरता से लेते हैं और पहाड़ के निर्माणाधीन पुलों, सड़कों व अन्य अवस्थापना सुविधाओं को लेकर उनका क्या बयान आता है।

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