उत्तराखंड राज्य गठन के सत्रह वर्षों बाद भी नहीं मिली विकास को सही दिशा
कर्ज के बोझ तले दबे जा रहे उत्तराखंड का भविष्य क्या होगा और राजसत्ता पर काबिज राजनैतिक दल या फिर विपक्ष के नेता इस ज्वलंत मुद्दे का कोई समाधान ढूंढ पाने में सफल होंगे भी या नहीं, यह कुछ ऐसे गंभीर सवाल हैं जिनका उत्तर जल्दी न खोजे जाने की स्थिति में उत्तराखंड का एक बीमारू राज्य घोषित होना तय है और संसाधनों के आभाव में पहाड़ से पलायन कर रहे तमाम युवाओं, बच्चों या फिर वृद्धजनों के लिए यह एक चिंता का विषय हो सकता है कि जिन सुविधाओं की आस में वह देहरादून व नैनीताल जिले के मैदानी इलाकों समेत तमाम तराई वाले क्षेत्रों की ओर रूख करने का मन बना रहे थे उन सुविधाओं या रोजगार के संसाधनों का अब राजधानी देहरादून समेत राज्य के लगभग सभी हिस्सों में टोटा पड़ सकता है। यह हम नहीं कह रहे बल्कि आंकड़ों को मद्देनजर रखते हुए कोई भी सामान्य जानकारी रखने वाला व्यक्ति आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि राज्य निर्माण के बाद इन सत्रह सालों में सरकारी अमले में हुई बेतहाशा वृद्धि के बावजूद सरकारी कामकाज और योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर हालात जस के तस हैं तथा कोदो-झंगोरा खाकर उत्तराखंड राज्य बनाने की बात करने वाला सरकारी कर्मचारी हर छोटे-बड़े मुद्दे पर हड़ताल का झंडा उठाने से बाज आते नहीं दिख रहे हैं। यह माना कि राज्य गठन के शुरूआती दौर में उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में योजनाबद्ध तरीके से बनाये गये सिडकुल के जरिये यहां रोजगार की कुछ संभावनाएं जगी और यह माना गया कि राज्य की प्रगति का नया अध्याय लिखने के लिए लगाये जा रहे यह तमाम कल-कारखाने स्थानीय युवाओं के श्रम का न्यूनतम् मूल्य अदा करने के एवज में राज्य को कुछ अन्य सुविधाएं व व्यवस्थाएं प्रदान करेंगे लेकिन हालात यह इशारा कर रहे हैं कि उत्पादन शुरू करने के इन बारह-पन्द्रह वर्षों में राज्य के विकास का सूचक माने जाने वाले तमाम कारखाने विभिन्न मदों में मिलने वाली छूट को समेटकर अपना उत्पादन बंद करने का मन बना चुके हैं और राज्य सरकार इन तमाम कल-कारखानों के एकाएक ही बंद हो जाने के चलते पैदा हुई बेरोजगारों की फौज का दंश झेलने को विवश हैं। ठीक इसी क्रम में यह जिक्र किया जाना भी आवश्यक है कि राज्य निर्माण के बाद स्थानीय सरकारी तंत्र ने जहां एक ओर अपने मंत्रियों व नौकरशाहों को विभिन्न सुविधाएं देने या फिर उनको विदेश यात्राएं कराने में जमकर पैसा फूंका है वहीं दूसरी ओर राज्य सरकार के आधीन आने वाले विभिन्न पदों को भरने में न सिर्फ कोताही की गयी है बल्कि संविदा, आउटसोर्स या फिर ठेकेदारी इत्यादि के माध्यम से सरकारी तंत्र में समायोजित किए गए विभिन्न युवाओं में अधिसंख्य संख्या उन लोगों की है जो इस राज्य के संसाधनों को लूटने की दिव्य दृष्टि से देश के विभिन्न हिस्सों से यहां लाये गये हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि राज्य निर्माण के बाद शुरूआती दौर से ही सत्ता के शीर्ष पर हावी रहे नौकरशाहों ने न सिर्फ राज्य के संसाधनों की खुली लूट में भागीदारी देकर अपने निकटवर्तियों को इस राज्य के सरकारी तंत्र का हिस्सा बनाया है बल्कि लूट की खुली छूट के इस खेल में शामिल होकर अपनी अवकाशप्राप्ति के एक अरसे बाद भी सरकारी संसाधनों से चिपके रहने के लिए उसने राजनेताओं से मिलीभगत कर ऐसे तमाम पदों का सृजन किया है जिनका उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में कोई औचित्य नहीं है। नतीजतन राज्य के संसाधनों की लूट का एक ऐसा अनावरत सिलसिला शुरू हुआ जो अब राज्य में बनने वाली तमाम जनहितकारी सरकारों के तमाम प्रयासों बाद भी रूकने का नाम नहीं ले रहा और कर्ज के बोझ से दबती जा रही सरकारी व्यवस्था विकास कार्यों से अपना हाथ खींचने पर विवश है। ऐसा नहीं है कि नेता या राजनैतिक दल इस यथार्थ से अवगत नहीं है या फिर यह स्थिति अचानक ही सामने आयी है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती सरकारों ने अपने अनुभव व काम करने के तरीके से जनता को विकास के इस भयावह पक्ष से रूबरू नहीं होने दिया जबकि वर्तमान सरकार व सत्ता पक्ष के नेता राज्य की वर्तमान स्थिति के लिए पानी पी-पीकर पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री हरीश रावत व अन्य नेताओं को कोस रहे हैं। यह माना कि पूर्ववर्ती सरकारों ने कर्ज के दम पर विकास का दिवास्वप्न दिखाकर खूब उद्घाटन व शिलान्यास किए और तत्कालीन नेताओं ने अपनी घोषणाओं के जरिये हमेशा ही सुर्खियों में बने रहने का प्रयास भी किया लेकिन भाजपा चुनाव के नाजुक मौके पर इस तथ्य से अंजान नहीं थी बल्कि अगर सच कहा जाय तो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने चुनावी मंच से सिर्फ स्थानीय जनता को डबल इंजन का उदाहरण देते हुए केन्द्र सरकार की ओर से पर्याप्त आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराने का मन बनाया था और देश के प्रधानमंत्री ने खुद अपने चुनावी भाषणों व नारों के जरिए यह कहा था कि राज्य की व्यवस्थाओं में अमूलचूल परिवर्तन किया जाएगा। अफसोस का विषय है कि प्रधानमंत्री के चुनावी आश्वासनों पर विश्वास करने के परिणामस्वरूप पूर्ण बहुमत से भी ज्यादा विधायकों के साथ राज्य की सत्ता पर काबिज हुई भाजपा अपने इन छह महीने के शासनकाल में राज्य की जनता के समक्ष विकास अथवा आगामी योजनाओं को लेकर कुछ भी ठोस रख पाने में असमर्थ दिख रही है और सत्ता के शीर्ष पर काबिज मुख्यमंत्री समेत तमाम मंत्रिमंडल के पास राज्य के विकास को लेकर कोई रणनीति नहीं है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा सरकार काम नहीं करना चाहती या फिर उद्घाटनों व घोषणाओं के जरिये प्रचार पाने की भाजपा के नेताओं की कोई इच्छा नहीं है बल्कि अगर वस्तुस्थितियों एवं हालातों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि तमाम पहले से चल रही योजनाओं का नाम बदलकर जनता को समर्पित करने के भाजपाई अंदाज तथा पूर्व में हो चुके शासनादेशों को एक बार फिर रोककर घोषणाएं या उद्घाटन कर इस सरकार ने कई नयी परम्पराओं को जन्म दिया है और सरकार के कामकाज के तौर-तरीके व मंत्रियों के बयानों पर अगर हम गौर करें तो यह साफ जाहिर हो जाता है कि सरकार के विभिन्न धु्रवों में तालमेल का आभाव है लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी हम अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं और इन पांच वर्षों में हम राज्य को किस दिशा की ओर ले जाना चाहते हैं। सरकार के मंत्री और स्वयं मुख्यमंत्री भी सांस्कृतिक आयोजनों व पखवाड़ों के माध्यम से जनता को संदेश देने का प्रयास तो कर रहे हैं तथा सरकारी खर्च हो रहे तमाम बड़े नेताओं व केन्द्रीय मंत्रियों के दौरों के माध्यम से यह माहौल बनाने की कोशिश भी की जा रही है कि भाजपा के नीति-निर्धारक उत्तराखंड की दिशा व दशा को लेकर चिंतित है लेकिन धरातल पर कुछ भी होता नहीं दिख रहा है। सिर्फ धार्मिक मेलों के आयोजन या फिर एकल उद्देश्यों के साथ आयोजित किए जाने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये सरकार प्रदेश की जनता का ध्यान भटकाकर मूलभूत मुद्दों से हटाने का प्रयास तो कर सकती है लेकिन इन प्रयासों को किसी भी कीमत पर जनहितकारी अथवा राज्यहित में नहीं कहा जा सकता और न ही इस तरह के प्रयासों से राज्य की जनता को उन तमाम समस्याओं से निजात मिल सकती है जिन्होंने पिछले सत्रह सालों में धीरे-धीरे कर सर उठाया है। यह मानने के पीछे कोई कारण नहीं है कि हमारे नेता या फिर सत्ता पर कब्जेदारी के जंग में मशगूल राजनैतिक दल इस राज्य अथवा राज्यवासियों की खुशहाली नहीं चाहते और संसाधनों की लूट के जरिए कमाई गयी अथाह धनराशि का उपयोग वह राज्य अथवा देश से बाहर निवेश करके कर रहे हैं लेकिन हालात यह इशारे तो कर ही रहे हैं कि नौकरशाह अपनी मनमर्जी से सरकार चला रहे हैं।