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Wednesday, April 24, 2024

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संदेह के घेरे में

देवभूमि उत्तराखंड में लगातार बढ़ रहे अपराध व आपराधिक वारदातों के लिए पड़ोसी राज्य के बदमाष व हमारी लचर कानूनी व्यवस्था ही जिम्मेदार।
देश के अन्य तमाम प्रदेशों के मुकाबले अपराध शून्य कहे जा सकने वाले उत्तराखंड में न्यायालय के परिसर में एक दुर्दान्त अपराधी की हत्या से राज्य का स्थानीय निवासी सकते में हैं और अपनी सुरक्षा व आगामी पीढ़ियों की सुविधा के लिए चिंतित लगभग हर उत्तराखंडवासी इस पर्वतीय प्रदेश के आतंकियों व अपराधियों की शरणस्थली बनने से चिंतित है। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि अपराधविहीन पर्वतीय क्षेत्रों व सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में न सिर्फ पुलिस की जिम्मेदारी हथियारविहीन पटवारी व्यवस्था पर है बल्कि आपसी झगड़ों व छुटमुट विवाद को निपटाने के लिए यहां का स्थानीय वासी कोर्ट-कचहरी या थाना-पुलिस के चक्कर लगाने के स्थान पर अपनी परेशानी व जज्बातों के मामले में ईश्वर को साक्षी मानते हुए फैसले को उस पर छोड़ना ज्यादा आसान समझते हैं। शायद यही वजह है कि उत्तराखंड के लगभग हर कोने में न्याय के देवता के अपने अलग मंदिर हैं और इन मंदिरों में हर तरह की शिकायतों व समस्याओं के निवारण का इंतजाम है लेकिन इधर उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद काम धंधे की तलाश या फिर पर्यटन के नाम पर इस राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों की ओर रूख कर रहे असामाजिक तत्वों व बाहरी व्यक्तित्वों के चलते इन सत्रह वर्षों में पहाड़ में अपराध तेजी से बढ़ा है और उत्तर प्रदेश की सीमाओं से लगे राज्य के तमाम हिस्से तो अपराधियों की शरणस्थली बनकर रह गए हैं। हालांकि कानून के जानकार यह मानते हैं कि उत्तरप्रदेश के बाद उत्तराखंड में भी पांव पसारने की कोशिश करने वाले आपराधिक चरित्रों या फिर दोहरा चरित्र जीने वाले अंदाज में देश के किसी भी हिस्से में वारदात कर शांति के साथ उत्तराखंड में आ बसने वालों पर कानूनन रोक लगाया जाना संभव नहीं है और न ही उ.प्र. व उत्तराखंड के बीच की सीमाएं सील कर उत्तराखंड के एक बड़े हिस्से को अपराध मुक्त बनाया जा सकता है लेकिन हम महसूस करते हैं कि अगर राज्य निर्माण के साथ ही इस प्रदेश की नवनिर्वाचित सरकारों ने भूमि की अवैध खरीद-फरोख्त रोकने और तमाम छोटे-मोटे काम-धंधों व स्थानीय स्तर की ठेकेदारी में बाहरी लोगों का प्रवेश रोकने के कुछ कठोर व प्रभावी इंतजामात किए होते तो शायद अपराधियों द्वारा खुलेआम इस तरह न्यायालय के परिसर में कत्ल की वारदात को अंजाम देना इतना आसान नहीं होता। अगर उत्तराखंड के जातीय व सामाजिक समीकरणों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि इस प्रदेश के मूल निवासियों की अधिसंख्य ताकत रोजगार, अच्छी शिक्षा एवं सुविधापूर्ण जीवन की तलाश में पहाड़ से पलायन कर देश के विभिन्न हिस्सों में बस गयी है और खाली पड़े पहाड़ व उपजाऊ खेती योग्य जमीनें देश के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले निम्न आय वर्ग के लोगों या फिर शरणार्थियों, घुमन्तू जाति के लोगों व अपने बड़े परिवारों एवं सीमित संसाधनों के चलते खानाबदोशों जैसी जिंदगी जी रहे तबकों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। ठीक इसके विपरीत उत्तराखंड के तराई वाले हिस्सों में हुए औद्योगिकरण एवं विकास के चलते तेजी से बढ़े काम धंधों ने आस-पड़ोस के राज्यों में पल-बढ़ रही माफिया व अपराध संस्कृति को यहां पांव पसारने का मौका दिया है और यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इस प्रदेश की जनता के नौकरी पेशा वाले स्वभाव एवं राज्य गठन के बाद शुरूआती दौर में तमाम छोटे-मोटे कामधंधों के प्रति दिखाई गयी बेरूखी ने यहां अन्य राज्यों के अपराध व अपराधी को आमंत्रित किया है। हालातों के मद्देनजर यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा लगता है कि उत्तराखंड की तमाम जेलों में उत्तरप्रदेश व अन्य तमाम क्षेत्रों कई नामी-गिरामी बदमाश न सिर्फ बंद हैं बल्कि अपने-अपने मजबूत नेटवर्क के जरिये उनका सिक्का अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में बदस्तूर चल रहा है लेकिन अगर तथ्यों की गंभीरता पर गौर करें तो हम पाते हैं कि इन माफियाओं व अपराधियों की आपसी जोर आजमाईश के चक्कर में हमारे प्रदेश की स्थानीय व सामान्य जनता नाहक ही परेशान है और अपराध व अपराधियों के तेजी से बढ़ते जा रहे प्रभाव क्षेत्र को देखकर अचकचाए से दिख रहे युवाओं के कुछ समूह नशे व अपराध की दुनिया में कदम रखने से परहेज नहीं कर रहे हैं। हमने माना कि अपराध एवं अपराधी के जीवन का दायरा सीमित है और एक हद के बाद इस दिशा से जुड़े हर सवाल का जवाब गोली से ही शुरू व गोली पर ही खत्म होता है लेकिन सवाल यह है कि ऐसी परिस्थितियां ही क्यों आने दी जाएं कि प्रदेश की पुलिस को इनकांउटर्स की लाइन लगानी पड़े या फिर राजनीति, लोकतंत्र और जनापेक्षा से जुड़ा हर सवाल गुण्डई व अराजकता पर ही समाप्त होता दिखे। यह ठीक है कि अब हालातों को एकदम पूर्व की तरह सामान्य बना देना आसान नहीं है और कानूनों में सख्ताई व बदलाव लाये बिना यह भी संभव नहीं है कि हम एक अपराध मुक्त पहाड़ या प्रदेश का सपना देखें लेकिन अगर सरकारी मशीनरी चाहे तो कुछ छुटमुट उपायों के चलते गंभीर समस्याओं व हालातों से बचा जा सकता है और कानून की सुरक्षा के लिए तैनात की जाने वाली पुलिस को मुस्तैद कर इस तरह की आपराधिक कार्यवाहियों को टाला जा सकता है। हम देख रहे हैं कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के इन सत्रह वर्षों में मैदानी व सुविधाजनक स्थानों पर जमे रहने का मोह हम पर इस कदर हावी हो गया है कि एक निश्चित दायरे में बने रहने व परिवार के साथ रहने की ललक ने पुलिस के जिम्मेदार पदों की कीमत के अलावा थानों तक की कीमत तय कर दी है। अब अपने फर्ज को निभाने के साथ ही साथ अलग से इस रकम का इंतजाम करने के चक्कर में पुलिस प्रशासन के तमाम आलाधिकारी व थानेदार इस कदर चक्करघिन्नी बने हुए हैं कि उन्हें यह होश ही नहीं है कि उनके संरक्षण या नजरंदाजी के चलते शहरी व कस्बाई क्षेत्रों में तेजी से बढ़ रहा जयाराम पेशा व अपराध समाज पर क्या प्रभाव डाल रहा है या फिर शहरों की गलियों व स्कूलों के अलग-बगल बिकने वाला नशे का सामान किस तरह हमारे युवा वर्ग को खोखला कर रहा है। नतीजतन वर्तमान हालातों में न सिर्फ अपराध तेजी से बढ़े हैं बल्कि अन्य प्रदेशों के दुर्दान्त अपराधियों ने उत्तराखंड में पैर जमाते हुए इसे अपनी शरणस्थली बना लिया है और यह कोई पहली घटना नहीं है जब मुंबईयाँ फिल्म वाले अंदाज में कुछ भाड़े के हत्यारों ने एक विचाराधीन कैदी की न्यायालय परिसर में हत्या कर दी है। इस तरह की कोशिशें और अपराध तो पहले भी होते रहे हैं और पुलिस व कानून व्यवस्था कुछ दिनों तक डंडा फटकारने के बाद ऐसे तमाम मामलों में चुप्पी साधती पाई जाती है। लिहाजा यह कहना कठिन है कि बगैर कानूनी बदलाव के इस सब पर काबू पाया जा सकता है।

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