राजनैतिक कूटनीति का हिस्सा है ‘वंदेमातरम्‘ पर रार खड़ा करने की कोशिश उत्तराखंड में मुद्दाविहीन हो चुकी कांग्रेस ने वंदेमातरम् को लेकर राजनैतिक सनसनी फैलाने की कोशिश की है और प्रदेश सरकार के उच्च शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत के बयान ‘उत्तराखंड में रहना होगा तो वंदेमातरम् कहना होगा‘ के जवाब में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने सरकार को चेतावनी देने वाले अंदाज में कहा है कि वह ‘वंदेमातरम्‘ नही कहेंगे अगर प्रदेश सरकार में हिम्मत है तो वह उन्हे उत्तराखंड से बाहर का रास्ता दिखाये। हांलाकि यह एक बेबात की लड़ाई है और बयानों की गंभीरता के आधार पर इसका कोई विशेष महत्व भी नही है लेकिन खबरों के आभाव से जूझ रहा मीडिया इसे ले उड़ा और छपास रोग से पीड़ित विभिन्न राजनैतिक दलों के छुटभय्यै नेताओ ने इसपर प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। नतीजतन वंदेमातरम् को लेकर बहस का एक नया दौर शुरू हो गया तथा नई सरकार के अस्तित्व में आने के बाद चर्चा का विषय बने खनन व शराब बिक्री जैसे गंभीर मुद्दे नैपृथ्य में डाल दिये गये। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि सरकार बनाने के बाद राजकाज को समझने की कोशिश रहे त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व वाले मंत्रीमण्डल व भाजपा के विधायकों के लिऐ यह चुनौतीपूर्ण था कि वह किस तरह शराब के खिलाफ बन रहे माहौल और माननीय न्यायालय द्वारा खनन पर लगायी गयी रोक से निपटें लेकिन सरकारी तंत्र ने बहुत ही समझदारी के साथ न सिर्फ खनन पर लगी रोक के खिलाफ उच्चतम् न्यायालय से दिशा निर्देश प्राप्त किये बल्कि शराब बिक्री के मामले में भी मंत्रीमण्डल की बैठक के माध्यम से राष्ट्रीय राजमार्गो को जिला व राज्य मार्ग घोषित कर शराब की दुकानो की यथास्थिति बहाल रखने का रास्ता निकाल दिया। अगर समस्या सिर्फ राजस्व वसूली या यथास्थिति बनाये रखने की होती तो सरकार ने इन दोनों ही समस्याओं का वाजिब समाधान ढ़ूंढ़ लिया था और काूननी रूप से इस बदलाव को अमलीजामा पहनाने में कोई दिक्कत भी नही थी लेकिन उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में शराब व खनन से जुड़ा हर मुद्दा जनसंवेदनाओ को छूने वाला माना जाता है तथा सत्ता में आने से पूर्व भाजपा भी तत्कालीन प्रदेश सरकार पर शराब व खनन माफिया से मिली भगत का आरोंप लगाते नही थक रही थी। वर्तमान में शराब की दुकानों को आबादी वाले क्षेत्रों में स्थानांतरित करने के विरोध में उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में शुरू हुआ आन्दोलन धीरे-धीरे कर नशा-विरोधी आन्दोलन का रूप लेता जा रहा है तथा सरकार की विभिन्न कोशिशों के बावजूद आन्दोलनकारी महिलाएँ अपनी जिद छोड़ने को तैयार नही है। इन हालातों में छात्रों व युवाओं का ध्यान इस ओर जाने से आन्दोलन के और ज्यादा तेजी से फैलने तथा शराब के कारोबारियों को मोटा नुकसान होने की संभावना है। लिहाजा शराब माफियाओं के पैसे से राजनीति कर रहे नेताओं की मजबूरी है कि वह इस गंभीर मुद्दे से जनता विशेषकर युवाओं का ध्यान हटाने की कोशिश करें और शायद यहीं वजह है कि उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी संभाल रहे उत्तराखंड के नये नवेले मंत्री महाविद्यालयों में राष्ट्रगान करवाने, राष्ट्रीय ध्वज लगवाने या फिर वंदेमातरम् के उद्घोष को जरूरी घोषणाओं में शुमार करने जैसे बयान जारी कर युवाओं का ध्यान अपनी ओर आकृर्षित करना चाहते है। कोई बड़ी बात नही है कि किशोर उपाध्याय भी इसी कड़ी का एक हिस्सा हो और शराब कारोबारियो को राहत देने के लिऐ नशा विरोधी आन्दोलन को कमजोर करने का यह खेल उन्हीं की दिमाग की उपज हो। अगर ऐसा है तो यह गर्त में जा रही कांग्रेस के लिऐ वाकई शर्म की बात है और अगर ऐसा नही भी है तो कांग्रेस के बड़े नेताओं ने इस मामले को तूल देने से बचना चाहिऐं क्योंकि एक कमजोर विपक्ष के रूप में कांग्रेस को अपनी ताकत बढ़ाने के लिऐ यह जरूरी है कि वह उन तमाम विषयों पर जनता के साथ खड़ी नजर आये जो जनता के बीच आक्रोश का मुद्दा है। पहाड़ में चल रहे शराब विरोधी आन्दोलन में स्थानीय स्तर पर कांग्रेस के छोटे नेता भले ही जनता के साथ हो लेकिन किसी बड़े नेता या फिर कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष, पूर्व मुख्यमंत्री अथवा नेता प्रतिपक्ष का इस पूरे आन्दोलन में जनता के साथ खड़े होने का कोई सार्वजनिक समाचार नही आया है। इन हालातों में कांगे्रस के प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय सामयिक मुद्दे को छोड़कर वंदेमातरम् कहने या न कहने पर बयानबाजी करते हुये एक नया शोशा खड़ा करते है तो इसे राजनैतिक समझदारी तो नही कहा जा सकता लेकिन अगर इस राजनैतिक नासमझी की सरकार और शराब व्यवसायियों की ओर से कोई अलग कीमत दी जानी हो तो बात अलग है। अब अगर इस सम्पूर्ण घटनाक्रम को कांग्रेस के परिपेक्ष्य में देखे तो हम पाते है कि दो-दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव हारने के बावजूद राजधानी देहरादून में अपनी राजनैतिक सक्रियता बनाये हुऐ उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बीजापुर गेस्ट हाऊस का सरकारी आवास छोड़ने के बाद देहरादून में ही किराये का मकान लेकर यह स्पष्ट कर दिया है कि वह अभी अपनी राजनैतिक सक्रियता छोड़ने के मूड में नही है। हालातों के मद्देनजर यह तय है कि अगर हरीश रावत उत्तरखंड कांग्रेस के मामले में अपने सक्रियता बनाये रखते है तो देर-सबेर किशोर उपाध्याय की कुर्सी हिलना तय है और एक बार कुर्सी से हटने के बाद किशोर उपाध्याय में वह दम नही है कि वह बिना किसी मजबूत सहारे के अगले पांच सालों तक अपनी राजनैतिक जमीन को जिंदा रखे। इसलिऐं वंदेमातरम् के परिपेक्ष्य में आये किशोर उपाध्याय के इस बयान को विवादों में रहकर खुद को राजनैतिक रूप से जिन्दा रखने की एक कोशिश की तरह भी माना जा सकता है और ऐसा लगता है कि मानो वह स्वंय चाहते हो कि बेवक्त की गयी इस बयानबाजी को मीडिया में चर्चाओं का विषय बनाया जाय तथा उनके खूब पुतले फुके लेकिन सवाल यह है कि उनकी इस कोशिश से कांग्रेस या फिर संगठन को जमीनी स्तर पर मजबूत करने का प्रयास करने वाले कांग्रेस के प्राथमिक कार्यकर्ताओं को क्या-क्या हासिल होगा और वह मतदाताओं को यह समझा पाने में कैसे सफल होंगे कि नमो-नमो के नारे के साथ सत्ता के शीर्ष पर पहुंची त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार जनमत के नाम पर पूर्ण बहुमत पाने के बावजूद भी खनन माफिया व शराब माफिया के इशारे पर चलने वाली सरकार है ओर सत्ता के शीर्ष पदो पर काबिज होने के बाद भाजपा के नेताओं को खुलेआम माफिया की मदद करने में कोई संकोच महसूस नही होता।