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Thursday, March 28, 2024

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शह और मात के इस खेल में

अमित शाह द्वारा सरकार की दी गयी क्लीन चीट के बावजूद नही दिख रहे विवादों के थमने के आसार।
अमित शाह का उत्तराखंड दौरा सफल करार दिये जाने के बावजूद उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज भाजपा की अन्दरूनी रार अभी निपटती नही दिखार्द दे रही है ओर अमित शाह के साथ ही साथ दिल्ली की दौड़ लगाने वाले नेताओं से जुडी कुछ खबरें यह इशारा भी कर रही है कि सत्ता पक्ष के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कक्षा में कतई अनुशासित नजर आने वाले भाजपा के कुछ अनुशासित सिपाहियों ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है । हांलाकि अमित शाह की वापसी के लगभग तत्काल बाद ही राज्य के दौरे पर आये राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के व्यस्त कार्यक्रम के चलते हाल-फिलहाल मुख्यमंत्री इतनी फुर्सत में नही दिखाई दे रहे है कि उनके दिल्ली दौरे को लेकर कुछ गुफ्तुगू की जा सके या फिर राज्य में चल रही बदलाव व बड़े फेरबदल जैसी चर्चाओं पर उनका पक्ष जाना जा सके लेकिन हालातों के मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि मौजूदा सरकार के इस छमाही कार्यकाल में उकताहट का अनुभव कर रहे भाजपा के कई प्रदेश स्तरीय बडे़ नेता जनता के बीच, सरकार व संगठन के अस्तित्व को बचाये रखने के लिऐ सरकार में एक बड़े बदलाव की मांग कर रहे है। यह माना कि उत्तराखंड में भाजपा की पूर्ण बहुमत सरकार को बगावत को कोई खतरा नही है और हालात यह भी इशारा भी कर रहे है कि दबे हुऐ आक्रोश को प्रदर्शित करने की कोशिशों के बावजूद भाजपा के विधायकों या फिर सरकार के काम-काज के तौर तरीको से उलझन महसूस कर रहे अन्य नेताओं व जनप्रतिनिधियों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपने पद से इस्तीफा देकर दोबारा चुने जाने के लिऐ जनता के बीच जा सके लेकिन इस सबके बावजूद यह तय दिखता है कि सरकार का हिस्सा होते हुऐ या फिर सत्तापक्ष में शामिल होने के बाद भी विपक्ष की तरह व्यवहार कर रहे भाजपा के तमाम नेता व जनप्रतिनिधि अपनी ही सरकार की उलझन बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते । ऐसा नहीं है कि सरकार की कार्यशैली को लेकर नेताओं द्वारा प्रदर्शित की जा रही इस गुपचुप नाराजी के पीछे व्यापक जनहित को लेकर कोई भावना छुपी है या फिर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पाले सत्ता पक्ष के तमाम नेताओं के पास ऐसी कोई कार्ययोजना है जिससे राज्य के हालातों में कायापलट करते हुऐ जनता की तमाम परेशानियों को एक ही झटके में उड़नछूँ किया जा सकता है लेकिन इस सबके बावजूद सत्ता पक्ष के दिग्गज नेता अपनी नाराजी प्रदर्शित करने का कोई मौका नही छोड़ना चाहते और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि एकता के सूत्र में बंधी दिखने को मजबूर उत्तराखंड की भाजपा कई गुटों में विभाजित होकर अपने-अपने आकाओं के हितों की लड़ाई लड़ रही है। यह ठीक है कि वर्तमान तक सत्ता पक्ष के किसी भी गुट ने सीधे तौर पर त्रिवेन्द सिंह रावत को निशाने पर नही लिया है और न ही उनकी सरकार के किसी फैसले पर उंगली उठाते हुऐ सत्तापक्ष के नेताओं ने उनका खुला विरोध किया है लेकिन इन छह माह के दौरान ऐसे अनेक अवसर सामने आये है जब सत्तापक्ष के सम्मानित मंत्रियों, विधायकों, सांसदों या फिर अन्य सम्मानित जनप्रतिनिधियों द्वारा खुलकर अपना पक्ष रखने की कोशिश की गयी है और इस तरह की कोशिशों में कई बार ऐसी स्थिति बनी है जो सरकार को असहज करती रही है। मौजूदा हालातों में राज्य के दो प्रमुख लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के सांसद क्रमशः भगत सिंह कोश्यारी व भुवन चन्द्र खंडूरी की सक्रिय राजनीति से छुट्टी तय मानी जा रही है और अगर सूत्रों से मिल रही खबरों को सही माने तो यह दोनों ही नेता पार्टी हाईकमान के तमाम फैसलों से खुश नही है लेकिन बढ़ती उम्र के साथ ही साथ इनकी लगातार कम हो रही विश्वसनीयता इन्हें मजबूर किये हुऐ है कि यह चुप बैठकर ऊँट के सही करवट पर आने का इंतजार करें या फिर हालातों में कुछ इस तरह की तब्दीली लाये कि इन्हें प्राथमिकता देना भाजपा हाईकमान की मजबूरी हो जाय। शायद यहीं वजह है कि यह दोनों ही भाजपाई दिग्गज वर्तमान में भाजपा से जुड़ी किसी भी कार्यसमिति में सक्रिय नजर नही आ रहे है और न ही सरकार द्वारा लिये जा रहे तमाम फैसलों के संदर्भ में इनकी कोई टिप्पणी सामने आ रही है लेकिन हालात यह इशारा कर रहे है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को आईना दिखाने के लिऐ इन दोनों ही दिग्गजों द्वारा अपनी निजी फौज को तैयार रहने के निर्देश दिये जा चुके है और अब सही मौके का इंतजार करना या फिर अपने राजनैतिक जीवन की समाप्ति को नियति मान लेना ही इनका एकमात्र विकल्प है। इसके ठीक विपरीत ठीक चुनावी मौके पर कांग्रेस सरकार का दामन छोड़कर भाजपा प्रत्याशी के रूप मेें चुनाव मैदान में उतरने वाले बागी विधायकों व उनके समर्थकों या सहयोगियों की हालत और ज्यादा खराब है क्योंकि सत्ता का अंग होने के बावजूद वह खुद को भाजपा पर हावी संघ की संस्कृति के अनुकूल ढ़ाल पाने में पूरी तरह असमर्थ है और अनेक अवसरो पर उन्हें यह प्रतीत होता है कि मौजूदा सरकार में शामिल होने के बावजूद उनसे उनकी आजादी छीन ली गयी है। अगर विधायकों अथवा कांग्रेस से भाजपा में आये नेताओं के इस गुट पर गौर करें तो हम पाते है कि इस गुट के बड़े नेता के रूप में भाजपा की सदस्यता लेने वाले पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को इस सारी उलटफेर के बदले अब तक सिर्फ अपने एक बेटे की विधायकी पर ही संतोष करना पड़ा है जबकि कांग्रेस में रहकर मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार माने जाने वाले सतपाल महाराज, यशपाल आर्या और हरक सिंह रावत को मंत्री पद से नवाजे जाने के बावजूद मौजूदा सरकार में उनकी हैसियत नम्बर दो की भी नही है। नम्बरों के इस खेल में काफी पीछे छूट चुके कांग्रेस के इन बागी नेताओं को कहीं न कहीं यह अहसास तो है कि मौजूदा सरकार उनकी योग्यता व अनुभव को कोई लाभ नहीं उठाना चाहती और न ही सरकार में उनकी वह धमक है जो कांग्रेस शासनकाल में हुआ करती थी लेकिन इन तमाम अहसासों व सत्य की अनुभूति के बावजूद यह तमाम नेता खुद को कोई भी फैसला लेने में असमर्थ मानकर चल रहे है क्योंकि इनकी किसी भी धमकी अथवा कठोर कदम का सरकार पर कोई प्रभाव पड़ता नही दिख रहा। इन सबसे इतर पहली बार विधायक बने या फिर लगातार कई बार विधानसभा पहुँचने के बावजूद मंत्रीपद के योग्य न समझे गये विधायको का अपना ही दर्द है और राज्य के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जनान्दोलनों व विभिन्न मुद्दों पर नजर आने वाली मतदाताओं की नाराजी को देखते हुऐ इन्हें डर है कि अगर हालात यूँ ही बने रहे तो आने वाले कल में जनता के सवालों का सामना करना बहुत कठिन होने वाला है लेकिन हाईकमान द्वारा मौजूदा व्यवस्था पर जताया गया विश्वास इनकी चुप रहने की मजबूरी व बैचेनी को और भी बढ़ाता हुआ महसूस होता है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि मौजूदा सरकार की कार्यशैली से सत्तापक्ष को कोई भी बड़ा गुट या हिस्सा संतुष्ट नही दिखता और न ही यह संभव दिख रहा है कि सरकार में किया जाने वाला किसी भी तरह का बदलाव सरकार के कामकाज के तरीके में अमूलचूल परिवर्तन लाने में सक्षम है लेकिन इस सबके बावजूद सत्ता के शीर्ष पर काबिज त्रिवेन्द्र सिंह रावत को कोई खतरा नही है क्योंकि उन्हें वर्तमान तक संगठन के सर्वेसर्वा अमित शाह का आर्शीवाद मिल गया प्रतीत होता है। इन हालातों में यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा के भीतर विभिन्न स्तरों पर पनपता दिख रहा आक्रोश आखिरकार कहाँ जाकर समाप्त होता है और सूचना-संचार के इस युग में सत्ता के गलियारों से निकलकर आम आदमी के मोबाइल फोन तक पहुँच चुकी सत्ता पक्ष की खामियां व राजनैतिक दिग्गजों की नाराजगी आखिर क्या गुल खिलाती है।

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