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Wednesday, April 24, 2024

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वनों के संरक्षण एवं संर्वधन के लिऐं

रोकना होगा मानवीय सभ्यता का वनों में बलात प्रवेश
मानव सभ्यता अपने उदयकाल से ही प्रकृति के साथ मित्रवत व्यवहार करती रही है और हमारी सभ्यता एवं संस्कृति में तो वनों, वन्य जीवों व वन उपजों को देवतुल्य मानते हुए इन्हें पूजे जाने का आवहन किया गया है। लिहाजा यह कहना कि हमें अपने जीवन को जीने या अधिक सुविधापूर्ण बनाने के लिए वन्य क्षेत्रों का दोहन व उपभोग करते हुए आदिम सभ्यता की ओर लौट जाना चाहिए, गलत होगा और अगर इस तथ्य को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखें तो वन उपजों की बढ़ती तृष्णा या वनों पर आधारित उद्योगों द्वारा अपनी आवश्यकता के अनुसार अंधाधुंध तरीके से किया जाने वाला वन्य उत्पादों व वनों का दोहन हमारे पर्यावरणीय संतुलन के लिए एक खतरा बनकर खड़ा होता दिख रहा है। इससे बचने का एकमात्र उपाय यही है कि हम वनों पर मानव की निर्भरता को न्यूनतम् करते हुए शून्य की ओर ले जाय और वनों व वन्य जीवों को मानव जीवन के लिऐ जरूरी मानने की जगह इनके विकल्पों की तलाश करें। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि विलासिता की ओर बढ़ता जा रहा मानव समाज तेजी से जनसंख्या वृद्धि की ओर बढ़ रहा है और अपने जीवन को वनों पर आधारित मानने वाली व्यवस्था को इनके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ करते हुए इनके अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी करते वक्त कोई शर्म या झिझक भी महसूस नहीं होती क्योंकि वह इन पर अपना अधिकार समझता है और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वनों, वन्य जीवों या वन्य उपजों के मनमाने दोहन की परम्परा बढ़ती ही जा रही है। इसलिए वनों व प्रकृति को बचाने के लिए यह जरूरी है कि हम इस तथ्य को स्वीकार करें कि बेहतर मानव जीवन के लिए वनों व वन उत्पादों पर निर्भरता के कोई मायने नहीं हैं और अगर जीवन के किसी मोड़ पर ऐसी आवश्यकता होती है तो विज्ञान एवं उन्नत तकनीकी के बलबूते हम वनों व इनसे प्राप्त होने वाले उत्पादों का विकल्प ढूंढ लेंगे। आज का मानव चांद तक पहुंच गया है और उसे अन्य ग्रहों पर जीवन के लक्षणों की तलाश है लेकिन निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए उसे अपने अस्तित्व से भी पहले धरती पर उपजे पेड़-पौधों, वृक्षों व जड़ी-बूटियों का अस्तित्व नष्ट कर देने से कोई ऐतराज नहीं है बल्कि अगर पृथ्वी पर व्याप्त वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण या फिर धरती के एक बड़े हिस्से में जमा कूड़ा-करकट और गंदगी के ढेर को मद्देनजर रखते हुए बात करें तो हम पाते हैं कि प्रकृति पर निर्भरता का नाजायज फायदा उठाते हुए हमने पेड़-पौधों, वृक्षों या अन्य वन आधारित समाज की इन विषयों पर चुप्पी को उसकी मूक सहमति माना है लेकिन हम यह स्वीकार नहीं करना चाहते कि प्रकृति अपने कार्यक्षेत्र में लगातार होने वाले मानवीय हस्तक्षेप का जब प्रतिकार करती है तो हमारी सभ्यता व संस्कृति पर एक खतरा मंडराने लगता है। लिहाजा मानव जीवन को बचाने के लिए यह आवश्यक लग रहा है कि वन्य जीवन पर मानवीय सभ्यता की निर्भरता को कम किया जाय और विज्ञान अतिशीघ्र इसके विकल्प ढूंढे। यह माना कि यह सब कुछ तात्कालिक रूप से संभव नहीं है और न ही हमारे बीच मौजूद तथाकथित उपभोक्तावाद व बाजारवाद के समर्थक यह चाहेंगे कि वनों व वन्य जीवन पर हमारी निर्भरता एकदम समाप्त हो तथा वन्य उत्पादों के दोहन व वनों को वैध-अवैध रूप से नष्ट करते हुए आर्थिक सम्पदा खड़ी करने के तमाम मौके उनके हाथ से यूं ही चले जाये लेकिन अब वक्त आ गया है कि हमारी सरकारों ने कानूनों को बहुत ज्यादा कड़ा करते हुए प्रकृति की इस अनमोल धरोहर को बचाकर रखने के प्रयास करने होंगे और इसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि वनों पर हमारी निर्भरता नगण्य अर्थात् समाप्त हो लेकिन यहां पर मैं एक बात और स्पष्ट करना चाहूंगा कि विकल्प के आभाव में कड़े से कड़े कानून भी इस दिशा में समुचित रोक नहीं लगा पाएंगे और अगर हम धीरे-धीरे कर विकल्पों की ओर बढ़ने की बात करते हैं तो हम इस प्रकृति की अनमोल धरोहर का एक बड़ा हिस्सा तब तक खो देंगे। इसलिए मैं इस पक्ष में हूं कि मानव जीवन के लिए वनों व वन्य क्षेत्रों को गैर जरूरी करार करते हुए इस प्रकार के तमाम क्षेत्रों को प्रतिबंधित घोषित कर देना चाहिए। मुझे यह कहते हुए हर्ष हो रहा है कि हमारा सरकारी तंत्र भी इसी दिशा की ओर प्रयास कर रहा है और न्यायालयी आदेशों व वन कानूनों के मिले-जुले असर के चलते जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों के वैध-अवैध व्यापार एवं उनके सर्कस अथवा अन्य किसी भी प्रकार के रोमांचकारी खेल में भागीदारी करने पर प्रतिबंध लगाने के साथ ही साथ सरकार ने तमाम दुर्लभ जड़ी बूटियों, वन उपजों व कुछ विशेष प्रजाति के वृक्षों के विभिन्न हिस्सों के व्यापार पर भी रोक लगायी है और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि सरकार द्वारा लगाए गए इस तरह के प्रतिबंधों के चलते समाज के एक हिस्से के बीच इस तरह के वन्य उत्पादों के उपयोग से असहमति व्यक्त करने की जागरूकता भी आयी है लेकिन यह तथ्य भी किस से छुपा नहीं है कि सरकार द्वारा पारित कानूनों के तहत समस्त वन उत्पादों व वन्य क्षेत्रों को सरकार की सम्पत्ति मान लिया गया है और सरकार का विरोध करने वाले अथवा व्यापक जनहित में बने नियम-कानूनों का माखौल उड़ाने वाले लोग आपसी मिलीभगत से इनके व्यापार व दोहन में व्यस्त हैं। इसलिए व्यवस्था को ढर्रे पर लाने अथवा वन्य क्षेत्रों से संबंधित किसी भी विषय वस्तु को मानव जीवन के लिए पूर्णतः प्रतिबंधित व गैर जरूरी करार देने के लिए इन तमाम विषयों पर एक वृहद कानून लाए जाने की आवश्यकता है और यह तब ही संभव है जब हम यह मान लेंगे कि वन एव वन्य जीवन पर निर्भरता हमारी इस वर्तमान पीढ़ी की जरूरत में शामिल नहीं है या फिर वन्य क्षेत्रों को बचाने के लिए हमारा इन पर अपनी निर्भरता को न्यूनतम करते हुए शून्य करना जरूरी है।

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