लेकिन सरकार के समक्ष कायम है उच्चाधिकारियों को पहाड़ पर भेजने व उनको वहां रूकने के लिए मनाने की चुनौती।
उत्तराखंड सरकार ने अपने चुनावी वादे के अनुरूप स्थानान्तरण विधेयक को सदन में पारित कर कानून का रूप दे दिया और अब यह उम्मीद भी की जानी चाहिए कि इस विषय में तमाम नियम व शर्तों का निर्धारण कर इसे अतिशीघ्र लागू भी किया जाएगा। हालांकि विधेयक पर विस्तार से चर्चा के दौरान इसकी खामियां और खासियत सामने आएंगे और इसके लागू किए जाने के बाद ही यह तय होगा कि उत्तराखंड राज्य के विकास व पलायन रोकने की दृष्टि से इस विधेयक की क्या अहमियत है लेकिन यह उम्मीद की जानी चाहिए कि इस कानून के सही तरह से लागू हो जाने के बाद उद्योग का रूप लेता स्थानान्तरण का धंधा काफी हद तक मंदा होगा और दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों को अध्यापकों की कमी से नहीं जूझना पड़ेगा। यह ठीक है कि सरकार को भी इस कानून को लागू करने के लिए एक इच्छाशक्ति के साथ ही साथ मजबूत आर्थिक संसाधनों की जरूरत होगी और सरकारी तंत्र ने यह तय करना होगा कि राज्य के सर्वांगीण विकास के नाम पर विभिन्न जिलों व सुदूरवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों में खोले गए विभिन्न निदेशालयों या अन्य उच्चस्तरीय कार्यालयों को देहरादून या हल्द्वानी में स्थानान्तरित कर पहाड़ पर जाने से बचने की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगे तथा सरकारी कार्यालयों में इस हद तक कर्मकारों की भर्ती की जाय कि अतिरिक्त प्रभार, या अटैचमेन्ट जैसी व्यवस्थाओं को बढ़ावा देकर स्थानान्तरण विधेयक की धज्जियां न उड़ायी जा सके लेकिन यहां पर एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या सरकार स्थानांतरित कर पहाड़ी जिलों में भेजे जाने वाले आईएस अधिकारियों अथवा अन्य वरिष्ठ नौकरशाहों के पहाड़ जाने से इंकार के खिलाफ कार्यवाही कर पाएगी। उत्तराखंड के सरकारी तंत्र की व्यवस्था व नौकरशाही के सम्मुख नतमस्तकता को देखकर तो यह सब इतना आसान नहीं लगता और न ही यह संभव लगता है कि इस विधेयक के अस्तित्व में आने के बाद सरकार स्थानान्तरण से जुड़े मामलों में माननीय जनप्रतिनिधियों के दखल को पूरी तरह नकार पाएगी, तो क्या यह मान लिया जाय कि स्थानान्तरण विधेयक के नाम पर एक बार फिर उन तमाम सरकारी कर्मचारियों पर ही गरीब मार होगी जो कि तमाम तरह के राजनैतिक दन्द-फन्द से दूर चुपचाप अपनी नौकरी बजा रहे हैं लेकिन भाग्यवादी होने के कारण सुविधापूर्ण मैदानी क्षेत्रों में आकर नौकरी करना जिनके लिए दिवास्वप्न की तरह है, या फिर यह विधेयक शिक्षा विभाग के उन अध्यापकों के लिए बनाया गया है जो अपनी नियुक्ति के पहले दिन से ही सुविधापूर्ण मैदानी इलाकों में आने के लिए नेताओं और शासन-प्रशासन की गणेश परिक्रमा शुरू कर देते हैं। अगर वाकई ऐसा है तो उत्तराखंड राज्य की जनता को इस विधेयक से कोई फायदा नहीं होने वाला और न ही पहाड़ों पर लगातार बढ़ रहे पलायन एवं ठप पड़ चुके विकास कार्यों को इस कानून से नई गति मिलने वाली है। हां इतना जरूर हो सकता है कि कुछ समय के लिए सरकार द्वारा दिखाई गयी सख्ती या फिर व्यवस्थाओं को दुरूस्त करने की जिद में पहाड़ी जिलों के दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में धकियाये गए कुछ नौजवान या अधेड़ अध्यापक बेमन के साथ पहाड़ों पर दिखने लगे लेकिन सरकार के पास ऐसा कोई तरीका नहीं कि वह इन्हें अपने स्कूलों में जाकर पढ़ाने को बाध्य कर सकें या फिर निश्चित तौर पर यह प्रावधान किया जा सके कि कोई भी अध्यापक या कर्मकार अपने स्थान पर किसी ठेका मजदूर को नियुक्त कर या फिर वैसे ही अपने कार्यक्षेत्र से लंबे समय के लिए गायब हो जाएगा। इस लिहाज से देखा जाए तो पहली ही नजर में स्थानान्तरण कानून में लाख खामियां दिखाई देती हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारी तंत्र ने अध्यापक वर्ग व अन्य छोटे कर्मकारों को दोषी मानते हुए ही इस विधेयक के प्रावधानों की रचना की है जबकि सचिवालय सेवा से जुड़ा तमाम कर्मचारी व राज्य का अथवा राज्य में तैनात अधिकारी संवर्ग इस कानून से पूरी तरह अछूता दिखता है। अगर तथ्यों की गंभीरता पर गौर करें तो हम पाते हैं कि चुनावी वादे के अनुरूप निर्धारित समय सीमा में सदन के पटल पर रखे गए इस विधेयक को सत्ता पक्ष के विधायकों की मांग पर ही प्रवर समिति को भेजने के बावजूद इसे कठोर व कर्मकारों के सभी वर्गों को अपने दायरे में लाने वाला बनाने के प्रयास ही नहीं किए और न ही सरकार यह समझने का प्रयास कर रही है कि अध्यापकों के पहाड़ी क्षेत्र के स्कूलों में न टिकने से लेकर व वहां लगातार हो रहे पलायन के पीछे एकमात्र वजह सुविधाओं का आभाव है। अगर सरकारी तंत्र सुदूरवर्ती पहाड़ी क्षेत्रों में जनसामान्य के लिए आवश्यक जनसुविधाओं का विस्तारीकरण करते हुए सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाया जाना सुनिश्चित करे तो स्थितियां बिना किसी कठोर कानून के ही बदल सकती हैं लेकिन यहां राजनेताओं के अपने हित आड़े आते हैं क्योंकि इस तरह की किसी भी व्यवस्था को लागू किए जाने की स्थिति में न सिर्फ राजनैतिक संरक्षण में चलने वाले तमाम निजी स्कूलों की बंदी का खतरा है बल्कि मौजूदा सरकार के नीति निर्धारक माने जाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्वाधान में चल रहे सैकड़ों शिशु मंदिर व इन स्कूलों में कार्यरत् भाजपा के तमाम अवैतनिक कार्यकर्ता, सरकार के इस एकमात्र फैसले से एक ही झटके में कई तरह की समस्याओं से घिर सकते हैं। इसलिए सरकार नहीं चाहती कि वह अपने आधीन आने वाली शिक्षा व्यवस्था जैसी प्राथमिक जिम्मेदारी पर कोई भी ऐसा अंकुश लगाए जो आने वाले कल में किसी नई समस्या को खड़ा करे लेकिन जनता की नजरों में खुद को व्यापक जनहित का जिम्मेदार साबित करने के लिए यह जरूरी है कि सरकार अर्थात् सत्तापक्ष व विपक्ष कुछ करता दिखे और इसका एक नमूना उत्तराखंड के मौजूदा शीतकालीन सत्र व इस सत्र में बहुमत से पारित हुए स्थानांतरण विधेयक के रूप में सभी के सामने है किंतु यह जरूरी नहीं है कि इस सारी कवायद का आम आदमी को वह सब फायदा मिले जिसके सब्जबाग राजनेताओं व राजनैतिक दलों द्वारा जनता को दिखाए गए हैं। खैर यह तो वक्त ही बताएगा कि मौजूदा कानून असरकारी होने के बाद आम आदमी को कितनी राहत दे पाता है और व्यवस्थाओं की मार से जूझ रहे पहाड़ इस प्रक्रिया का हिस्सा बन किस हद तक कर्मकारों को दुरूह परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर कर पाते हैं लेकिन सरकारी तंत्र ने जिस चालाकी के साथ इसे लागू करने के लिए 2020 की तिथियों का निर्धारण किया है उससे यह स्पष्ट है कि या तो सरकार को भी इस प्रावधान के लागू होने के बाद इसके ऋणात्मक नतीजों से चुनावों के प्रभावित होने की संभावना है या फिर सरकार की शह पर पलने वाले कुछ धंधेबाज किस्म के लोग इस कानून के अस्तित्व में आने से पहले ट्रांसफर-पोस्टिंग को लेकर बड़ा खेल खेलने के मूड में हैं और अगर स्थानान्तरण विधेयक को लेकर सरकार की मंशा स्पष्ट नहीं है तो हमें यह मानकर चलना होगा कि इन पिछले सत्रह वर्षों में पहाड़ों में तेजी से बढ़ा पलायन अगले दो-तीन वर्षों में इस चरम तक पहुंच जाएगा कि वहां के आबादीविहीन ग्रामीण क्षेत्रों को किसी भी एक्ट या प्रावधान की जरूरत ही नहीं रहेगी। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह इस मामले में लेटलतीफी करने या फिर मतदाताओं के एक वर्ग को अपने खेमे में खींचने की कोशिश करने की बजाय उन दिशाओं में ईमानदारी पूर्वक प्रयास करे जिनसे पहाड़ के दुरूह जनजीवन को न्यूनतम् जीवनीपयोगी जनसुविधाएं मुहैय्या करायी जा सके और सुविधाओं के आभाव में पहाड़ों की ओर रूख करने से कतरा रहे सरकारी कर्मकारों को तालमेल के साथ स्थानीय जनभावनाओं से जोड़ा जा सके।