राजनैतिक कुटिलता और चातुर्य के दम पर सत्ता में वापसी की राह तलाशने निकले मोदी व अमित शाह
आर्थिक मोर्चे पर असफल साबित हो चुकी देश की नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार अभी यह मानने को राजी नही है कि उसके द्वारा जल्दबाजी में लागू किये गये तमाम फैसलों से आम आदमी की परेशानियाँ बढ़ी है या फिर भाजपा के नीतिनिर्धारकों व संघ के रणनीतिकारों को लगता है कि वह राष्ट्रीय अस्मिता, उग्र हिन्दूवाद और कोरी बयानबाजी के बलबूते मतदाताओं के उस बड़े वर्ग को बहका लेंगे जो चुनावी मौके पर मतदान में अधिकतम् भागीदारी करता है। वैसे तो प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद नरेन्द्र मोदी ने मजारों पर जाकर चादर चढ़ाने व मन्नत मांगने का सिलसिला शुरू कर यह इशारा दिया है कि उन्हें मुस्लिम मतदाताओं से भी कोई बैर नही है लेकिन अनेक अवसरों पर मोदी समर्थकों द्वारा अपने ही देश के मुसलमानों के प्रति दर्शायी जाने वाली नफरत और तीन तलाक व गोहत्या पर पाबन्दी लगाये जाने के मामले में सोच समझकर किये गये अनगर्ल प्रचार-प्रसार के बावजूद देश के प्रमुख दो समुदायों की समझदारी के चलते बिगड़ने से बचे माहौल के चलते यह लगभग स्पष्ट होता दिख रहा है कि मोदी अब सारे देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नहीं रहे बल्कि तथाकथित उग्र हिन्दूवाद के संवाहक अपने नेता के रूप में उनसे कुछ ऐसे काम कराना चाहते है जिससे तथाकथित रूप से हिन्दू धर्म पर छाये दिख रहे खतरें के बादल पूरी तरह छंट जाय। मजे की बात यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तहत देश की जनता द्वारा चुने गये एक प्रधानमंत्री के हाथों अपना ‘धर्म की सुरक्षा‘ का मिशन पूरा करवाने की इच्छा रखने वाले इन तथाकथित मोदी भक्तों व धर्म की रक्षा को लेकर चिन्तनशील हिन्दू समाज के लोगों को उस तबके की फिक्र कतई नही है जिसने न सिर्फ परिवर्तन व बदलाव के नारे पर विश्वाास करते हुऐ भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता के शीर्ष तक पहुँचने का मौका दिया है बल्कि एक लंबे एवं उबाऊ लोकतांत्रिक संघर्ष के दौर में भामाशाह बनकर भाजपा को खड़ा करने व राजनीति के मैदान में टिके रहने में मदद की है। यह माना कि देश में वर्तमान में लागू की गयी नोटबंदी व जीएसटी उन तमाम आर्थिक सुधारों का एक हिस्सा थी जिन्हें एक अरसा पहले देश के सबसे कम बोलने वाले प्रधानमंत्री नरसिंहाराव व वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की जोड़ी ने लागू किया था और यह तथ्य भी किसी से छुपा नही है कि नरेन्द्र मोदी के पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान नोटबंदी लागू करने व जीएसटी कानून लाने के प्रयास हो चुके है जिसका विरोध कर लागू न होने देना तत्कालीन विपक्ष के रूप में भाजपा ने अपनी जीत माना लेकिन अब यह समझ में आ रहा है कि तत्कालीन सरकार आम जनता के हितों को सर्वोपरि जान माहौल अनुकूल न होेने के कारण उस समय इस तरह के कठोर फैसले लागू करने का निर्णय नहीं ले पायी थी जो उसकी चुनावी हार का कारण भले ही बना हो किन्तु यह सत्य है कि एक अरसे तक भारत की लोकतांत्रिक सत्ता पर राज करने वाली कांग्रेस का दामन किसानों की आत्महत्या, व्यापारी वर्ग की बिना वजह की परेशानी या फिर निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले करोड़ो कर्मचारियों पर मंडराते दिख रहे बेरोजगारी के खतरें जैसे आरोपों से दागदार नही है। यह माना कि कांग्रेस राज में भी जमकर हिन्दू मुस्लिम दंगे हुऐ है और उसपर न सिर्फ भारत-पाकिस्तान बंटवारे के वक्त हिन्दुओं के कत्लेआम को चुपचाप देखते हुऐ तत्कालीन मुस्लिम आबादी के एक बड़े हिस्से को भारत में ही रूकने देने का आरोंप है बल्कि आंतकवाद से पीड़ित पंजाब वाले दौर में देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद उपजे जनाक्रोश का फायदा उठाते हुऐ सिक्ख बिरादरी के हुऐ सार्वजनिक कत्लेआम को चुपचाप देखने के आरोंप भी कांग्रेस के नेतृत्व वाली तमाम पुरानी सरकारों पर लगाये जाते है लेकिन इस तथ्य को नकारा नही जा सकता कि देश की आजादी के बाद सत्ता पर काबिज हुई कांग्रेस ने न सिर्फ मुस्लिम बल्कि देश की आबादी के हर तबके के मूलभूत विकास को मद्देनजर रखते हुऐ कार्ययोजना तय की बल्कि पंजाब में उपजे आंतकवाद को अपने नेता के प्राणों की कीमत पर समाप्त किया। इतना ही नही अगर देश में रही जनसंघ के दौर वाली संयुक्त सरकार और लोकप्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के कार्यकाल की तुलना मोदी सरकार के इन तीन-साढ़े तीन वर्षों से करें तो हम पाते है कि जनकल्याणकारी दृष्टिकोण से कई कदम उठाने के बावजूद भी देश की जनता ने उपरोक्त दोनों ही सरकारों को दोबारा सत्ता में आने का मौका नही दिया क्योंकि तत्कालीन राजनीति के शीर्ष पदों पर बैठे नेता धार्मिक आधार पर होने वाली अराजकता पर प्रतिबंध लगाने में असफल रहे। इसके ठीक विपरीत दंगाईयों से निपटने की सख्त, मोदी शैली को जनता ने पंसद किया और मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को लोकसभा के चुनावों में ही नहीं बल्कि इसके बाद भी तमाम राज्यों के चुनावों के दौरान लगातार मिली सफलताओं के आधार पर आसानी से भरोसा किया जा सकता है कि गुजरात के दंगों से सख्ती के साथ निपटने में मोदी को मिली सफलता एवं कतई साफगोई वाले अंदाज में खुद को एक धर्म या संस्कृति के प्रति समर्पित घोषित करते हुऐ भय, भूख व भ्रष्टाचार के खिलाफ अनावरत् रूप से संघर्ष करने के उनके ऐलान पर देश की जनता ने पूरा भरोसा किया लेकिन वक्त बीतने के साथ ही साथ यह साफ होता चला गया कि मोदी के भाषणों की लफ्फाजी का सत्य के साथ कोई तालमेल नही है और न ही सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने के बाद उन्होंने अपनेे नारों या वादों पर खरा उतरने की कोई कोशिश की है। अगर मोदी के कार्यकाल का गंभीरता से अवलोकन किया जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि बिना किसी कारण के विदेशों की दौड़ लगा रहे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा सत्ता पर काबिज होने के बाद लिये गये हर फैसले या नारे के जनता पर पड़ने वाले प्रभाव की चिन्ता किये बगैर ही उसे प्रयोगात्मक दृष्टिकोण से अमल में लाने की कोशिश की गयी और अपनी लोकप्रियता को बनाये रखने के लिऐ उन्होंने अपने सलाहकारों व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के सहयोग से एक ऐसे चक्रव्यूह की रचना की कि किसी जमाने में उनसे कहीं ज्यादा वरीष्ठ व योग्य कहे जा सकने वाले राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज और यशवंत सिन्हा जैसे तमाम नेता नेपथ्य में खोते चले गये। यह ठीक है कि इससे पूर्व भाजपा के वरीष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी अपने समकक्ष लालकृष्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी को पीछे छोड़कर प्रधानमंत्री पद पर काबिज हुऐ थे लेकिन उन्हें मिली इस सफलता के पीछे किसी राजनैतिक जोड़-तोड़ या कुटिलता को जिम्मेदार नही ठहराया जा सकता बल्कि अगर एक प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी के पूरे कार्यकाल की विवेचना की जाय तो हम पाते है कि उन्होंने अपने समकक्ष नेताओं के साथ पूरी सहहृदयता व विश्वास दर्शाते हुऐ आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी समेत तमाम नेताओं को कई अहम् जिम्मेदारियाँ सौंपी थी जबकि मौजूदा सरकार के तीन-साढ़े तीन साल के इस कार्यकाल में हम अनुभव कर रहे है कि एक अहम् पद की जिम्मेदारी मिलने के बावजूद हमारे प्रधानमंत्री अपने सहयोगियों व वरीष्ठों पर भरोसा नहीं कर पा रहे है और सरकार के कामकाज के तरीकों व सरकारी फैसलों के अनुपालन आदि पर एक साधारण नजर डालने मात्र से यह अहसास हो जाता है कि मोदी सरकार अपनी लोकप्रियता व जनहितकारी फैसलों के दम पर नही बल्कि राजनैतिक कुटिलता व वाक् चातुर्य के दम पर एक बार फिर सत्ता में वापसी की राह तलाशने में जुट गयी हैं।