राजनैतिक विकल्प के आभाव में | Jokhim Samachar Network

Tuesday, April 16, 2024

Select your Top Menu from wp menus

राजनैतिक विकल्प के आभाव में

सरकारी तंत्र पर लग रहे तमाम तरह के आरोपों व विभिन्न स्तरों पर हो रहे विरोध के बावजूद अपने ही अंदाज में काम कर रही हैं केन्द्र व विभिन्न राज्यों की भाजपाई नेतृत्व वाली सरकारें।
बदलाव के दौर से गुजर रहे हिन्दुस्तान में व्यापारियों, किसानों या फिर बेरोजगार नौजवानों द्वारा सरकार की नीतियों के खिलाफ या फिर परिस्थितियों का सामना न कर पाने के कारण संगठित होकर सरकार के फैसले का विरोध कोई नई बात नहीं है और भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था इस तरह के तमाम विरोध-प्रदर्शनों अथवा अपनी बात रखने के तरीकों की इजाजत भी देती है लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में राजनीति के तौर-तरीके तेजी से बदले हैं और सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनैतिक ताकतें लोकतंत्र को भीड़ तंत्र में बदलकर सरकारी फैसलों के विरोध में उठने वाले सुरों को नियंत्रित करने की कोशिश में दिखाई देती है जिसके चलते पीड़ित व परेशान वर्ग के बीच आत्महत्या अथवा आत्मघात करने या फिर हिंसक होने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। हमने देखा कि पिछले चार वर्षों में जनता के अपार समर्थन व बहुमत के बावजूद रोजगार के संसाधन बढ़ाने या फिर महंगाई एवं भ्रष्टाचार जैसी राष्ट्रव्यापी समस्याओं का समाधान ढूंढने की दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ने से असफल रही केन्द्र की नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार नोटबंदी व जीएसटी लागू करने जैसे बडे़ फैसले लेने के बावजूद आर्थिक मोर्चे पर पिछड़ती हुई नजर आ रही है और सरकार द्वारा किया जाने वाला हर एक दावा खारिज होने के बाद अब भाजपा व उसके अनुषांगिक संगठन पूरी तरह छल बल के आधार पर सत्ता के शीर्ष पर कब्जेदारी बनाए रखने की दिशा में प्रयत्नशील है। मीडिया के एक बड़े हिस्से को धन बल के बूते अपने पक्ष में खड़ा करने या फिर उसे धमकाकर सरकार के खिलाफ बोलने या छापने से रोकने की दिशा में तो सरकार पहले से ही प्रयासरत् थी और सरकार के विरोध में उठने वाले राजनैतिक सुरों को खारिज करने के लिए नेताओं पर मुकदमें लादकर उन्हें जेल भेजने या फिर कार्यवाही का डर दिखाकर अपने पक्ष में खड़े होने को मजबूर करने का सिलसिला तो भाजपा के सत्ता में आने के बाद से ही चालू था लेकिन अब इधर भाजपा सरकारों के समर्थन में सक्रिय दिख रहे कुछ कार्यकर्ताओं ने सरकार के फैसलों के खिलाफ उठने वाले सुरों पर बाकायदा हमला शुरू कर दिया है और यह हमला शारीरिक या जुबानी दोनों तरीके से हो सकता है। अगर आप सरकार की कार्यशैली के आलोचक हैं तो आपको सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि धर्म के नाम पर मोदी को 2019 के लोकसभा चुनावों में भी विजयी बनाये रखने की तैयारी में जुटी भगवा ब्रिगेड आप पर किसी भी हद तक हमलावर हो सकती है और कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए जिम्मेदार सरकार अपने समर्थकों के इस कृत्य को किसी भी कीमत पर अनदेखा करने को तैयार बैठी है। इन हालातों में यह एक बड़ा सवाल है कि आम आदमी अपनी समस्याओं या फिर सरकार के खिलाफ शिकायत को लेकर कहां जाये और अपनी परेशानी का कोई हल न सूझने की दिशा में वह क्या कदम उठाये। हम देख रहे हैं कि सरकार की नीतियों से हताश व निराश किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं या फिर उनके द्वारा अपने खेतों की पैदावार को राष्ट्रीय राजमार्गों व मुख्यमंत्री आवास और सत्ता के केन्द्र माने जाने वाले विधानसभाओं के समक्ष बिखेरकर अपना विरोध प्रदर्शित किया जा रहा है लेकिन सरकारें इस प्रकार के तमाम आंदोलनात्मक कदमों को अनदेखा करने में जुटी है और मीडिया के एक बड़े हिस्से को दबाव में लेकर इस प्रकार की खबरों के प्रसारण को रोकने का प्रयास जारी है। ठीक इसी क्रम में यह जिक्र किया जाना भी आवश्यक है कि सरकार की कार्यशैली से हताश और जीएसटी व नोटबंदी के सरकारी फैसले से निराश एक व्यवसायी द्वारा पिछले दिनों उत्तराखंड के भाजपा मुख्यालय में सरकार द्वारा लगाए गए जनता दरबार के दौरान जहर खाकर आत्महत्या के प्रयास भी किए गए लेकिन सरकारी तंत्र को इन तमाम घटनाक्रमों का कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिख रहा और न ही सत्ता पक्ष के नेता व सरकार के जिम्मेदार पदों पर बैठे जनप्रतिनिधि इस तरह के घटनाक्रमों से प्रभावित दिख रहे हैं। यह माना कि आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है और न ही सरकार की उत्पीड़नात्मक गतिविधियों के खिलाफ इस तरह की गतिविधियों को प्रोत्साहित ही किया जाना चाहिए लेकिन यह एक बड़ा सवाल है कि सरकार के तुगलकी फैसलों से परेशान व निराश जनता कहां जाए और वह किस अन्दाज में अपना विरोध दर्ज कराये कि उसकी मांगों पर तत्काल प्रभाव से कार्यवाही की जा सके। मौजूदा दौर में विपक्ष जनता से जुड़े मुद्दे उठाने में पूरी तरह असफल है और सरकार ने पूरी चालाकी के साथ व्यापक जनहित से जुड़े सवालों को अनदेखा करना शुरू कर दिया है जिसके चलते किसी एक राज्य अथवा क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में आपाधापी की स्थिति है और जिसके पास जो कुछ भी है वह उसे बचाने में जुटा है। नतीजतन काम धंधे तेजी के साथ चैपट होते दिख रहे हैं और बेरोजगारों की फौज लगातार बढ़ रही है लेकिन सरकार इन तमाम विषयों पर ध्यान देने की जगह अपना वोटबैंक बढ़ाने और विभिन्न राज्यों की सत्ता में अपना परचम लहराने में जुटी है। इसके लिए लगभग हर स्तर पर सामाजिक विद्वेष को भड़काने व वोट बैंक की ताकत को एकजुट रखने का प्रयास जारी है। हालांकि यह कहना कठिन है कि सत्ता के शीर्ष पर अपनी राजनैतिक कब्जेदारी बनाये रखने के लिए सत्ता पक्ष द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा यह तरीका किस हद तक कामयाब होगा और वोट बैंक को अपने साथ जोड़े रखने के लिए नेता या राजनैतिक दल कब तक आम मतदाता की बलि लेते रहेंगे लेकिन हालात और विकास संबंधी दावों की पुष्टि करने वाले आंकड़े यह इशारा कर रहे हैं कि इस वक्त देश गंभीर आर्थिक चुनौतियों से घिरता जा रहा है जिसके चलते सरकार खुले बाजार से कर्ज उठाने जैसे तमाम विकल्पों पर विचार कर रही है। यह माना कि आर्थिक सुधारों को वक्त रहते लागू किया जाना जरूरी है और रोजमर्रा के कामकाज में आधार की उपयोगिता से भी इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन सरकार द्वारा उठाये जा रहे इस तरह के तमाम विषयों से सिर्फ आम आदमी ही प्रभावित नजर आ रहा है जबकि बड़े पूंजीपति घराने व कुछ विशेष तरह के उद्योगपतियों की सम्पत्ति में तेजी से बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है। बाजार पर सरकार का कतई नियंत्रण नहीं है और न ही सरकार किसानों को उनकी उपज का सही दाम दिलाने की दिशा में कोई प्रयास करती मालूम होती है। ठीक इसी तरह सरकार द्वारा किए जा रहे लाख दावों के बावजूद न तो सरकारी तंत्र का भ्रष्टाचार ही कम हुआ है और न ही तंत्र की कार्यशैली में कोई बदलाव आया है। इन हालातों में अगर हम यह कहें कि इन पिछले चार सालों में सत्ता के शीर्ष पर भाजपा की कब्जेदारी या फिर तमाम राज्यों की सत्ता हासिल करने के बाद सरकारी तंत्र के हालात पहले से ज्यादा बिगड़ गए हैं और देश के विभिन्न हिस्सों व केन्द्रीय सत्ता पर काबिज भाजपा का शीर्ष नेतृत्व हालातों को नियंत्रित करने में पूरी तरह असफल है तो इसे अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता लेकिन विचारधारा अथवा हिन्दुत्व के नाम पर सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों का समर्थन कर रही विभिन्न राजनैतिक ताकतों व हिन्दूवादी संगठनों का मानना है कि सरकार द्वारा पिछले दिनों लागू किए गए कुछ फैसलों का सामाजिक व्यवस्थाओं पर वर्तमान में दिख रहा ऋणात्मक प्रभाव ज्यादा लंबे समय तक नहीं टिकने वाला और न ही आर्थिक दृष्टिकोण से ठहर से गए मालूम होते हालात भारत की श्रमजीवी जनता को लंबे समय तक प्रभावित ही कर पाएंगे। लिहाजा सरकार ने परिणाम की चिंता किए बिना कुछ मोर्चों पर लंबी व अनावरत लड़ाई लड़नी ही चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि सरकार न सिर्फ अपने फैसलों पर टिकी रहे बल्कि आगामी लोकसभा चुनावों में भी उसे सदन के भीतर पूर्ण बहुमत हासिल हो लेकिन सवाल यह है कि अगर सरकार द्वारा लागू किये जा रहे उक्त तमाम तरह के फैसलों के खिलाफ जनता यूं ही लामबंद होती रही या फिर हताश व निराश आम आदमी द्वारा कोई विकल्प न मिलने की स्थिति में यूं ही आत्मघाती प्रवृत्ति बढ़ती नजर आयी तो फिर सरकारें या हमारे नीति निर्धारक किस मुंह से जनता के बीच वोट मांगने जाएंगे। हालांकि अभी हालात इतने बेकाबू नहीं हुए हैं कि किसानों, व्यापारियों या युवाओं द्वारा किए जा रहे सांकेतिक विरोध प्रदर्शनों या फिर निराशा की स्थिति में उठाए गए कुछ आत्मघाती कदमों और स्वयं ही अपनी उपज नष्ट कर देने के सिलसिले को जनविद्रोह की संज्ञा दी जाय तथा यह माना जाय कि मौजूदा राजनैतिक व्यवस्था के खिलाफ उलटी गिनती का दौर शुरू हो गया है लेकिन हम इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं कर सकते कि सरकार इस प्रकार के तमाम आंदोलनों या आत्मघाती कदमों के खिलाफ कुछ भी बोलने से बचने की कोशिश कर रही है और तंत्र में चल रही कोशिशों को देखते हुए यह भी नहीं कहा जा सकता कि सरकारी रवैय्ये में किसी भी तरह के सुधार की उम्मीदें हैं। इसलिए सब कुछ सरकार या फिर वक्त के हाथों पर छोड़ देना भी ठीक नहीं है और न ही भारतीय गणराज्य को धर्म की लाठी से हांककर ज्यादा लंबे समय तक सत्ता के शीर्ष पर काबिज ही रहा जा सकता है लेकिन भारतीय राजनीति का वर्तमान विद्रुप यह है कि यहां के राजनैतिक मंच पर मजबूत विपक्ष का आभाव स्पष्ट देखा जा सकता है और जनता के बीच विरोध व विक्षोभ की स्थिति होने के बावजूद इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि राजनैतिक विकल्प के आभाव में जनता वही सब कुछ देखने व सुनने को मजबूर है जो सत्ता पक्ष द्वारा उसे दिखाया व सुनाया जा रहा है।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *