विधायक निधि में बढ़ोत्तरी कर त्रिवेन्द्र सरकार ने जीता जनप्रतिनिधियों का मन लेकिन इससे बढ़ सकती है सरकार की मुश्किलें।
निर्णय लेने के मामले में एक कमजोर मुख्यमंत्री माने जा रहे त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने पिछले दिनों एक निजी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित दिक्षंत समारोह के दौरान इस कार्यक्रम की परम्परागत् पोशाक माने जाने वाले गाउन को पहनने से न सिर्फ इनकार कर दिया बल्कि मंच से घोषणा की कि उत्तराखंड सरकार इस तरह के अफसरों के लिऐ स्वदेशी वेशभूषा का चयन करेगी। जाहिर है कि मुख्यमंत्री का यह अंदाज उनके चाहने वालों को ही नहीं बल्कि तथाकथित रूप से हिन्दूवादी रीतिरिवाज व स्वदेशी का राग अलापने वाली विचारधारा के तमाम समर्थकों को बहुत पसन्द आया होगा और मोदी लहर पर सवार होकर चुनावी जीत हासिल कर चुके विधायकों व भाजपा की नीतियों व रीतियों का गुणगान करने में लगे रहने वाले मोदी समर्थकों को उत्तराखंड के मुखिया के इस कदम से उम्मीद सी जगी होगी। त्रिवेन्द्र सिंह रावत इतने में ही नही रूके बल्कि इसके ठीक बाद विधानसभा में चल रह बजट सत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुऐ उन्होंने विधायक निधि के एक करोड़ से बढ़ाकर अप्रत्याशित रूप से तीन करोड़ पिच्छत्तर लाख करने का फैसला सुना डाला। त्रिवेन्द्र सिंह रावत का यह अंदाज वाकई चैका देने वाला है और अभी हाल-फिलहाल कोई चुनाव लम्बित न होने के कारण यह माना जा रहा था कि रावत अपने शांत स्वभाव के साथ चुपचाप वाले अंदाज में मीडिया से दूरी बनाते हुऐ इसी तरह सत्ता की गाड़ी आगे ठेलेंगे लेकिन त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने जिस तरह पासा फेंककर न सिर्फ विधायकों को अपने पक्ष में खड़ा करने का प्रयास किया है बल्कि विश्वविद्यालयों में स्वदेशी पोशाक का मुद्दा छेड़कर संघ को भी एक संजीवनी देने की कोशिश की है उससे यह तो स्पष्ट होता ही है या तो त्रिवेन्द्र को उपर से कुछ सक्रियता दिखाने के निर्देश मिले है या फिर सरकार पर पड़ रहे सत्ता पक्ष के दबाव एवं मन्त्रियों व विधायकों की अतिमहत्वाकांक्षा को देखते हुऐ इस तरह की सक्रियता उनकी मजबूरी बन गयी है। यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि कर्ज से चल रही उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था के माली हालात ठीक नही है और सरकार खुद मानती है कि राजस्व की वसूली के लिऐ प्रदेश भर में हो रहे शराब के भारी विरोध के बावजूद सरकारी शराब के ठेके आंबटित रखना व प्रशासन की मदद से उन्हें खुलवाना सरकार की मजबूरी है। इन हालातों में यह प्रश्न लाजमी हो जाता है कि आखिर सरकार की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उसने एकाएक ही विधायक निधि का बढ़ाकर लगभग चार गुना करने का फैसला लिया जबकि यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि विधायक निधि से होने वाले तथाकथित विकास कार्य सरकारी धन की बंदर बांट के अलावा कुछ भी नही है और न ही इस कार्यो की गुणवत्ता पर नजर बनाये रखने के लिऐ किसी संस्थान विशेष को नियुक्त किया गया है। जनप्रतिनिधियों के इर्द-गिर्द स्थानीय ठेेकेदारों व कमीशन बाज दलालों की फौज को पनपाने वाली इस व्यवस्था मेें सरकारी अधिकारी व नौकरशाह किस हद तक हावी हो सकता है, इसकी कहानी हम कई बार विधायकों के मुँह से सुन चुके है लेकिन इस सबके बावजूद यह कहना मुहाल होगा कि सरकार के इस फैसले के बाद सत्ता पक्ष व विपक्ष का लगभग हर विधायक मुख्यमंत्री की दरियादिली का कद्रदान दिख रहा है और अगर सत्ता के शीर्ष पर उलटफेर चाहने वाला वर्तमान व्यवस्था का विरोधी कोई चेहरा हाल-फिलहाल में विधायकों के किसी बड़े गुट की हाईकमान के सामने परेड या फिर चिट्ठी बाजी आदि माध्यम से कोशिश करने की सोच भी रहा होगा तो त्रिवेन्द्र सिंह रावत के इस कदम के बाद उसे यह अंदाजा हो गया होगा कि यह सबकुछ हाल-फिलहाल तो इतना आसान नही है। लिहाजा हम कह सकते है कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने अपनी रणनीति में कुछ बदलाव किया है और अब यह उम्मीद की जानी चाहिऐं कि वह चुपचाप अपना कामकाज निपटाने वाले अंदाज की जगह कुछ सजग व सक्रिय अंदाज में मोर्चा संभालते नजर आयेंगे। हमने देखा कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत के सत्ता संभालने बाद से ही सरकार के कुछ मंत्री, क्षत्रपों की तरह व्यवहार कर रहे थे और मन्त्रियों के बयानों व सरकार की कार्यशैली को देखते हुऐ यह अंदाजा लगाया जाना मुश्किल नही था कि सरकार में सबकुछ सामजस्य से व ठीक-ठाक नही चल रहा है। शायद यही वजह है कि मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने दिक्षांत समारोह में पहने जाने वाले गाउन के बहाने अपने एक तथाकथित रूप से संघ में ठीक-ठाक पकड़ वाले माने जाने वाले मंत्री के विभाग में सार्वजनिक रूप से हस्तक्षेप की कोशिश की है और यह तथ्य भी किसी से छुपा नही है कि मुख्यमंत्री के इन प्रयासों की अभिभावकों व छात्रों द्वारा सराहना किये जाने के बावजूद उक्त राज्यमंत्री महोदय द्वारा अपने मुख्यमंत्री के फैसले से किसी भी प्रकार की सहमति व्यक्त नही की गयी है बल्कि उक्त मंत्री की पूरे कार्यक्रम के दौरान गाउन पहनकर कार्यक्रम के मंच में उपस्थिति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विभागीय राज्य मंत्री अपने मुख्यमंत्री के फैसले से सहमत नही दिखते है। ध्यान रहे कि उच्च शिक्षा मामलों के राज्यमंत्री धन सिंह रावत न सिर्फ संघ में अपनी गहरी पैठ रखते है बल्कि उनके द्वारा पूर्व में ही संघ का ऐजेण्डा लागू करते हुऐ महाविद्यालयों में राष्ट्रगान करवाने, झण्डे की ऊँचाई बढ़ाने या फिर अध्यापकों व छात्रों के लिऐ महाविद्यालयो स्तर पर ड्रेस कोड लागू करने जैसी तमाम घोषणाऐं की जा चुकी है। इस बार उन्हें मलाल रहा होगा कि मीडिया की सुर्खियों में बने रहने के लिऐ ठीक-ठाक खबर बने दीक्षांत समारोह के मामले में मुख्यमंत्री उनसे बाजी मार गये। खैर मुख्यमंत्री के इस नये अवतार के पीछे किस्सा जो भी हो लेकिन हमें यह उम्मीद करनी चाहिऐं कि वह अपने संकोची स्वभाव को छोड़कर न सिर्फ जनता के साथ सीधे संवाद के अपने इसे क्रम को जारी रखेंगे बल्कि उनके नेतृत्व में चल रही सरकार द्वारा यह भी सुनिश्चित किया जायेगा कि विधायक निधि समेत अन्य तमाम जनकल्याणकारी कार्यो हेतु जारी की जा रही धनराशि का व्यय किस अंदाज में किया जा रहा है ? ठीक इसी प्रकार एक निजी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के दौरान छात्रों, अभिभावकों व अध्यापकों का दिल जीतने वाली घोषणा करने वाले मुख्यमंत्री से यह उम्मीद भी करनी चाहिऐं कि वह, यह सुनिश्चित किये जाने के निर्देश जारी करें कि इन तमाम निजी व डीम्ड विश्वविद्यालयों में किस हद तक सरकार द्वारा बनाये गये नियम-कानूनों का अनुपालन किया जा रहा है। समय-समय पर जानकारी में आता है कि राजधानी देहरादून के निकटवर्ती क्षेत्रों में स्थापित तमाम निजी महाविद्यालय व विश्वविद्यालय इन्हें मिलने वाली राजनैतिक शह व अपनी प्रशासनिक पहुँच के आधार पर न सिर्फ अभिभावकों से आर्थिक लूट के केन्द्र बने हुऐ है बल्कि इनकी मनगणन्त नीतियों, नियमों व संचालन के गलत तरीकों के चलते स्थानीय युवाओ को इनमें प्रवेश ही नही मिल पा रहा है। इतना ही नहीं, तथ्यों, आंकड़ों व उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर यह कहना भी अनुचित नही होगा कि कुछ बड़े रहीसों के बिगड़े हुऐ शहजादों की ऐशगाह में तब्दील हो चुके यह विद्या के तमाम मन्दिर न सिर्फ प्रदेश की राजधानी में आर्थिक व आपराधिक गतिविधियों को अंजाम दे रहे है बल्कि तमाम तरह की प्रतिबन्धित नशे की सामग्रियों को भी इनके परिसर अथवा आस-पास के क्षेत्रों से आसानी से हासिल किया जा सकता है । कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि प्रदेश में निजी क्षेत्र के प्राथमिक व माध्यमिक स्कूलों का ही हाल बुरा नही है बल्कि शिक्षा को व्यापार में तब्दील करने की सरकारी नीतियों के चलते अस्तित्व में आये निजी क्षेत्र के तमाम डिग्री काॅलेज व इंजीनियरिंग काॅलेज भी इस वक्त अव्यवस्थाओं के दौर से गुजर रहे है। इसलिऐं सरकार को चाहिऐं कि वह अपनी मुहिम को सिर्फ दीक्षांत समारोह के दौरान पहने जाने वाले गाउन को बदलने तक ही सीमित न रखेे बल्कि उन तमाम अव्यवस्थाओं को बदलने की कोशिश करें जिनके चलते स्थानीय युवाओं को आगे बढ़ने के मौके सीमित होते दिख रहे है। अगर वाकई ऐसा हो पाया तो त्रिवेन्द्र सिंह रावत एक बेहतर मुख्यमंत्री साबित हो सकते है अन्यथा छोटी-मोटी तब्दीली या महज राजनैतिक घोषणाओं से कुछ हासिल नही होने वाला और रहा सवाल उन्हें मिले इस विशेष मौके के इस्तेमाल का, तो इतिहास गवाह है कि इस प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को अब तक दोबारा सोचने या शर्मिन्दा होने का मौका नही मिला हैं।