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Friday, March 29, 2024

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राजनीति के खेल में

सदन में पूर्ण बहुमत के बावजूद कम नही है त्रिवेन्द्र सिंह रावत की मुश्किलें।
नैनीताल जिले के रामनगर में वन विभाग द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में स्थानीय विधायक को न बुलाये जाने पर भाजपा के कार्यकर्ताओं के बीच पनपा आक्रोश स्वाभाविक है ओर मजे की बात यह है कि अपनी ही पार्टी के मंत्री व सरकार के खिलाफ नारे लगाते यह लोग जाने-अनजाने मे विपक्ष की कमी को पूरा करते दिख रहे है। यह वाकई हैरत का विषय है कि राज्य की जनता द्वारा देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आवहन पर बनायी गयी पूर्ण बहुमत वाली सरकार न सिर्फ जनापेक्षाओं पर खरी उतर रही है बल्कि सत्ता के शीर्ष पर चल रही अंदरखाने की खींचतान ने अब एक खुली जंग का रूप लेना शुरू कर दिया है। हांलाकि सरकार के मंत्री अभी तक खुलेआम बयानबाजी करने व अपना आक्रोश जाहिर करने से बचने की कोशिश कर रहे है और सरकार के मुखिया के कामकाज के तौर-तरीकों से असंतुष्ट होनेे के बावजूद भी कुछ मन्त्रियों द्वारा धरा गया मौन उनके समर्थकों को ही असहज कर रहा था लेकिन इधर पिछले कुछ दिनों पहले भाजपा में बड़े कद के नेता माने जाने वाले सतपाल महाराज ने नौकरशाही के कामकाज के तरीके पर खुलकर निशाना साधते हुऐ न सिर्फ अपनी नाराजी जाहिर की बल्कि वह पिछली तीन बार से लगातार मंत्रीमण्डल की बैठक में भी भागीदारी नही कर रहे बताये जा रहे है। ठीक इसी प्रकार संघी पृष्ठभूमि से आये धन सिंह रावत ने भी अधिकारियों द्वारा उचित प्रोटोकोल न दिये जाने की शिकायत सार्वजनिक मंच से की है और वह भी त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार की कार्यशैली से खुश नही बताये जा रहे है लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभी तक इन तमाम मंन्त्रियों की शिकायतों या नाराजगी को गंभीरता से लिया मालुम नही होता है और न ही वह व्यक्तिगत् रूप से किसी मंत्री, विधायक या फिर भाजपा के कार्यकर्ता को मनाते हुऐ दिखे है। वजह साफ है भाजपा हाईकमान का वरदहस्त अभी त्रिवेन्द्र के साथ बना हुआ है और प्रदेश में चल रहे तमाम छुटपुट जनान्दोलनों व कार्यकर्ता स्तर पर उठ रही अंसतोष की आवाजों के बावजूद उनकी कुर्सी को कोई खतरा नही है लेकिन अगर हालात इसी तरह बिगड़ते रहे तो यह तय है कि सरकार को अपनी कमियाँ इंगित करने या फिर सरकारी फैसलों की छिछालेदार करने के लिऐ विपक्ष की जरूरत महसूस नही होगी और मोदी के आश्वासन पर राज्य के विकास हेतु डबल इंजन लगाये जाने की उम्मीद कर रही जनता को एक बार फिर अपने फैसले पर पछतावा होगा। हांलाकि किसी भी निष्कर्ष तक पहुंचना अभी जल्दबाजी होगी ओर एक पूर्ण बहुमत सरकार व सदन में दो-तिहाई से भी अधिक बहुमत वाले राजनैतिक दल में किसी भी प्रकार की बगावत या फिर मन्त्रियों अथवा विधायकों के इस्तीफे की उम्मीद करना हमारी नासमझी लेकिन इतना तो तय है कि अगर सरकार इसी तरह अधिकारियों के स्थानांतरण व अपने मंत्रीमण्डल के अहम् को संतुष्ट करने में उलझी रही तो भाजपा का यह कार्यकाल उत्तराखंड के इतिहास में ‘काले पांच वर्षो‘ के रूप में लिया जायेगा और विकास की छटपटाहट के चलते एकमत होकर भाजपा को सत्ता की कुंजी सौंपने वाली जनता को भी यह विश्वास हो जायेगा कि मौजूदा परिस्थितियों व राजनेताओं की महत्वाकंाक्षा के रहते इस प्रदेश का बंटाधार तय है। हमने देखा कि उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौरान हुऐ लंबे आन्दोलनात्मक संघर्ष के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये उत्तराखंड की राजधानी गैरसेंण के स्थान पर देहरादून ले जाने के लिऐ भाजपा के नेताओं ने कितने प्रपंच रचे और व्यापक जनमत व लोकप्रियता का दावा करने वाले प्रदेश की पहली जनता द्वारा चुनी गयी सरकार के मुखिया पंडित नारायण दत्त तिवारी ने किस प्रकार सक्रिय राज्य आंदोलनकारियों के चयन व उन्हें पेंशन अथवा सरकारी नौकरी देने की साजिश रच राज्य हित के प्रति व्यापक सोच रखने वाले किन्तु संसाधनविहीन युवाओं को राज्य की राजनीति की मुख्यधारा से हटने के लिये मजबूर किया। ठीक इसी प्रकार सम्पूर्ण उत्तराखंड में राज्य आन्दोलन की अलख जलाकर रखने का दावा करने वाले उत्तराखंड क्रान्ति दल और इससे मिलती-जुलती तमाम क्षेत्रीय विचारधाराओं को सत्तासुख का लालच देकर किस प्रकार पथभ्रष्ट बनाया गया या फिर राज्य गठन के बाद पहली बार पहाड़ी अस्मिता का नारा देते हुऐ पहाड़ी उत्पादों व पहाड़ की संस्कृति को एक मंच देने की कोशिश कर रहे हरीश रावत की सरकार को किस तरह छल के साथ सत्ता से बेदखल कर राज्य की राजनीति में पहली बार सत्ता की दल-बदल का खेल खेला गया। दल-बदल का यह दंश इन पांच वर्षाे में भाजपा को ही नही बल्कि आगे आने वाली अन्य तमाम सरकारों को भी ऐसे ही चुभता रहेगा और देश की राजधानी दिल्ली व अन्य महानगरों में बैठकर इस पर्वतीय प्रदेश की अस्मिता का सौदा माफियाओं से करने में पारंगत तथाकथित बड़े लोग यूं ही हमारी छाती पर मंग दलते रहेंगे। ऐसा हमारा मानना है। इन हालातों में बड़ा बदलाव लाने के लिऐ राज्य की जनता एक बड़ा आन्दोलन चाहती है ओर इसकी शुरूवात प्रदेश के लगभग हर कोंने में हो रहे शराब विरोधी आन्दोलन व गाहे-बगाहे दिखने वाले स्थानीय मुद्दो पर उग्र प्रदर्शन के रूप में हो चुकी है लेकिन इन तमाम आन्दोलनों को एकजुट करने के लिऐ कोई चितपरिचित चेहरा या फिर सार्वजनिक नेतृत्व अभी तक आगे नही आ पाया है क्योंकि प्रदेश के नेता और राजनैतिक दल दोनों ही जनता का विश्वास खो चुके है। हालातों के मद्देनजर हम यह कह सकते है कि राज्य की सत्ता पर लोकतांत्रिक सरकार की कब्जेदारी एवं वर्तमान सरकार को मिले दो-तिहाही बहुमत के बावजूद हमारा राज्य एक ऐसी व्यवस्थित अराजकता की ओर बढ़ रहा है जहाँ सरकार का हर अंग अपने अधिकार व सम्मान के नाम पर अपने मुखिया को आंख दिखाने या फिर बगावत की भाषा बोलने से परहेज करता मालुम नही होता। यह ठीक है कि राजकाज में इसे सामान्य घटनाक्रम का हिस्सा माना जाता है और एक बार मतदान कर सरकार का गठन कर चुकी जनता को अपने फैसले पर पुर्नविचार करने का कोई दूसरा मौका देने का प्रावधान हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में नही है लेकिन हमारे नीति निर्धारकों व सत्ता पर कब्जेदारी के बाद अपने अधिकारों या पदों की लड़ाई लड़ रहे तथाकथित जनप्रतिनिधियों को यह नही भूलना चाहिऐं कि ‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है‘ और अगर सत्ता पर काबिज होने के बाद हमारे मंत्री व नौकरशाह इसी तरह से निरकुंश व्यवहार करते है तो जनता को पूरा हक है कि वह उन्हें हटाने अथवा सरकार से बर्खास्त करने के लिये सड़कों पर आन्दोलन करें। खैर, अभी वक्त है कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार को काम करने के लिये कुछ समय दिया जाय और सरकार के विरूद्ध बगावती तेवरों का इस्तेमाल कर रहे मन्त्रियों अथवा जनप्रतिनिधियों से भी सख्ती के साथ निपटा जाय लेकिन अगर भाजपा हाईकमान इस सबसे निपटने व सत्ता के शीर्ष के खिलाफ उठ रहे सुरो को थामने में सफल नही रहता है तो यह कहने में कोई हर्ज नही है कि उसे अपनी जिम्मेदारियों से इस्तीफा देते हुऐ एक बार फिर भाजपा संगठन को चुनावी मोर्चे पर वापस जाने की सलाह देनी चाहिऐं।

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