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Saturday, April 20, 2024

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राजनीति के खेल में।

जातिगत आरक्षण के मुद्दे पर बयान जारी कर संघ के प्रचार प्रमुख ने की एक नई बहस को खड़ा करने की कोशिश।

आरक्षण व्यवस्था के सवाल पर लगभग अलग-थलग पड़े राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने अपने राजनैतिक विरोध से कहीं ज्यादा पाॅच राज्यों के विधानसभा चुनावों में इस बयान से भाजपा को सम्भावित नुकसान को देखते हुऐ इस बयान पर वापसी का मार्ग अपनाया है और धर्म के आधार पर आरक्षण का विरोध करते हुए उन्होने आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था को जारी रखने की सिफारिश की है। हांलाकि संघ प्रचार प्रमुख के बयान पर गैर किया जाय तो इससे मौजूदा राजनैतिक व्यवस्था में की गयी आरक्षण व्यवस्था के असफल होने के कारणों व समुचित शिक्षा के आभाव में इस व्यवस्था से वंचित रहने वाले दलित व पिछड़ी जाति के लोगो की पीड़ा का अहसास होता है और ऐसा प्रतीत होता है कि एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते वैद्य अपने अनुभवो के आधार पर केन्द्र सरकार को कुछ सुझाव देना चाहते थे लेकिन अपने विचारों को व्यक्त करने के लिऐ उनके द्वारा चुना गया वक्त व सार्वजनिक मंच उन्हे भारी पड़ गया और उन्हे अकारण ही आलोचना का शिकार होना पड़ा। यह ठीक है कि संघ की ओर से ऐसा ही कुछ बयान बिहार के विधानसभा चुनावों से पहले भी आया था जिसे मुद्दा बनाते हुए भाजपा के विरोधी दलो ने यह शक जाहिर किया था कि संघ की नीतियों पर अमल करते हुऐ केन्द्र सरकार वर्षो से लागू आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने का रास्ता ढूंढ रही है लेकिन मेादी सरकार ने बिहार में मिली करारी चुनावी हार के बावजूद इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया और न ही बिहार चुनाव नतीजों को आधार बनाते हुऐ यह कहा जा सकता है कि संघ प्रमुख के इस एक बयान ने बिहार के सवर्ण नेताओं को भाजपा के पक्ष में लामबन्द व दलित नेताओं को भाजपा के विरोध में खड़ा कर दिया हो। हाॅ इतना जरूर कहा जा सकता है कि बिहार मामले में लगभग निश्चित सी लग रही भाजपा की हार को देखते हुऐ भाजपा के नेताओं ने इस हार का ठीकरा फोड़ने के लिऐ एक गैर राजनैतिक चेहरा पहले ही तैयार कर लिया था और अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इन पाॅच राज्यों के चुनावों में भाजपा की स्थिति कमजोर जान मोदी के रणनीतिकार पहले से ही हाईकमान व केन्द्र सरकार को बचाते हुऐ हार के कारणों की तलाश में लग गये है। मोदी सरकार की कार्यशैली पर गौर करते ही इस तथ्य का अन्दाजा आसानी से हो जाता है कि अपने या अपनी सरकार के किसी भी फैसले के लिऐ मोदी संघ के वरीष्ठ विचारको से सलाह या चिन्तन आवश्यक नहीं समझतें और न ही संघ के वरीष्ठ कार्यकर्ताओ की सोच को मोदी सरकार द्वारा तबज्जो ही दी जाती है। इसके ठीक विपरीत अपने तमाम छेाटे-बड़े राजनैतिक लाभो के मद्देनजर या फिर चुनावी मोर्चे पर संगठन के कार्यकर्ताओं को एकजुट करने के लिऐ संघ का इस्तेमाल करना मोदी व अमित शाह की जोड़ी अच्छी तरह जानती है और इस तथ्य को आसानी से हजम नही किया जा सकता कि आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर केाई भी विवादस्पद बयान देने से पूर्व संघ के प्रचार प्रमुख ने मोदी व अमित शाह से चर्चा न की हो। ठीक बिहार की तर्ज पर भाजपा यह अच्छी तरह जानती है कि आगामी पाॅच राज्यों के चुनावों में कई क्षेत्रीय ताकतों व जातिगत् समीकरणों के आधार पर गठित राजनैतिक दलो के मैदान में होने के चलते दलित व पिछड़े मतदाताओं का रूझान उसकी ओर होना असम्भव है और मुस्लिम मतदाता भाजपा की नीतियों व बयान वीरो की ओछी हरकतों के चलते पहले से ही उससे दूर हैं। इन हालातों में भाजपा की रणनीति साधारणतया पढ़े लिखे व उच्चशिक्षित माने जाने सवर्णो को लामबन्द कर एक वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने की दिखाई देती है और समाज के पढे लिखें व बेरोजगार युवाओं में इस वर्ग की बहुतायत होने के चलते भाजपा के रणनीतिकार यह मानते है कि इस मुद्दे पर छोड़ा गया कोई भी शगूफा उन्हे चुनावी जीत के नजदीक ले जा सकता है लेकिन जीत को सुनिश्चित करने के लिऐ दलित व पिछड़े कार्यकर्ताओं के छुटपुट समर्थन को भी आवश्यक समझते हुऐ वह इस मुद्दे पर खुलकर मैदान में नही आना चाहते। हालिया लोकसभा चुनावों के मौसम में साम्प्रदायिक दंगो को हवा दे तथा मुस्लिम समाज को लेकर सामने आने वाली तमाम छोटी-बड़ी समस्याओं को मुद्दा बना भाजपा हिन्दू सम्प्रदाय के तमाम मतदाताओं केा एकसाथ लामबन्द करने में कामयाब रही थी लेकिन सामाजिक वैमनस्यता व धार्मिक भेदभाव फैलाने की भाजपा व संघ की यह योजना ज्यादा लम्बे समय तक कारगर नही हो पायी और न ही उ0प्र0 की राजनीति में हस्तक्षेप का मौका ढंूढ रहे कुवैशी जैसे लोग स्थानीय स्तर पर जनता को यह समझाने में कामयाब हो पाये कि अपने मजबूत राजनैतिक आधार को छोड़कर कुवैशी जैसे लोगो के पीछे धार्मिक आधार पर लामबन्द होने में उन्हें क्या फायदे हो सकते है। इन हालातों में भाजपा के लिऐ जरूरी था कि वह काम, सरकार की उपलब्धियों या फिर कामकाज के तरीके की बात करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग को अपने मायाजाल में उलझाती लेकिन इधर पिछले कुछ समय में अपने नोटबन्दी जैसे फैसले से हैरान व परेशान सरकार के पास इस वर्ग को समझाने या अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए कोई कारगर हथियार नही था और समाज के जातिगत् समीकरणों से भली भाॅति परिचित तथाकथित हिन्दूवादी ताकतें इस तथ्य को भी अच्छी तरह जानती है कि सरकार की सफलता-असफलता व उपलब्धियों पर सड़क-चैराहो में बहस अंजाम देने वाला तथाकथित रूप से पढ़ा लिखा व बुद्धिजीवी बेरोजगार हिन्दूओं के सवर्ण हिस्से में प्रचुरता में पाया जाता है। इसलिऐं इस वर्ग के बीच दिशा भ्रम की स्थिति पैदा करने के लिए भाजपा के रणनीतिकारों ने जानबूझकर इस वक्त चुनावी मौसम में आरक्षण क मुद्दे पर इस चर्चा को हवा देने की कोशिश की और यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि अपने बयान के बाद पूरी दरियादिली के साथ पीछे हटने वाले संघ प्रचार प्रमुख द्वारा इस मुद्दे पर पटाक्षेप की घोषणा के बावजूद तथाकथित हिन्दूवाद के समर्थक मोदी की जय-जयकार के नारे लगाते हुऐ सूचना संचार के विभिन्न माध्यमों के जरिये इस विषय पर बहस जारी रखने की कोशिश करेंगे और मतदान के अन्तिम दिन तक यह माहौल बनाया जायेगा कि भाजपा वास्तव में आरक्षण विरोधी है जबकि अन्य दल सवर्णो के हित में दिखने वाले इस फैसले का विरोध करते हुऐ भाजपा पर नाजायज दबाव बनाने की कोशिश कर रहे है। ठीक इसी तर्ज पर बसपा जैसे जातिगत मुद्दो की राजनीति करने वाले संगठन भी यह चाहेगें कि इस मुद्दे पर बहस जारी रहे ताकि दलित व पिछड़े समाज का मतदाता आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं पर खतरा जान मुस्तैदी से उसके पीछे खड़ा दिखाई दे।

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