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Thursday, April 18, 2024

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राजनीति की जोड़-तोड़ में

राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भाजपा को नहीं है सरकारी तंत्र के दुरूपयोग से परहेज।
हिमांचल के विधानसभा चुनावों की तिथियों की घोषणा करते वक्त गुजरात के चुनावों को दरकिनार कर चुनाव आयोग ने यह दिखा दिया है कि वह न सिर्फ केन्द्र सरकार की कठपुतली है बल्कि केन्द्र की सत्ता पर कब्जेदारी के बाद भाजपा भी तमाम सरकारी संस्थानों व संस्थाओं का अपने हित साधने के लिए खुलकर प्रयोग कर रही है। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि पूर्ववर्ती कांग्रेस समेत केन्द्र की तमाम सरकारों ने सीबीआई व चुनाव आयोग समेत तमाम निष्पक्ष व स्वतंत्र कही जा सकने वाली सरकारी एजेंसियों का जमकर इस्तेमाल किया और केन्द्र सरकार के आधीन आने वाले विभिन्न संस्थानों व आयोगों के वरिष्ठ पदों का इस्तेमाल न सिर्फ अपने कार्यकर्ताओं के राजनैतिक तुष्टीकरण के लिए किया बल्कि इन तमाम व्यवस्थाओं के सहारे बुद्धिजीवी वर्ग का एक ऐसा समूह खड़ा किया गया जिसने जाने-अनजाने में सरकार के हर कामकाज पर व्यापक जनहित में होने के मोहर लगाई। सत्ता पर काबिज होने से पहले इस तरह की तमाम व्यवस्थाओं में सुधार का दावा करने वाली भाजपा वर्तमान में इन सभी मामलों को लेकर पूर्ववर्ती सरकारों से आगे निकलने का प्रयास करती मालूम होती है और अपने इन प्रयासों में वह या सत्ता के शीर्ष पर काबिज उसके नेता यह दिखावा करने का प्रयास भी नहीं करते कि वह जानबूझकर लोकतंत्र की हत्या नहीं कर रहे हैं। पिछले तीन वर्षों में हमने देखा कि केन्द्र की सत्ता पर काबिज नरेन्द्र मोदी किस अंदाज में सीबीआई व आयकर समेत तमाम सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल कर रहे हैं और दिल्ली पुलिस पूरी तरह केन्द्र सरकार की पिछलग्गू ही दिखाई देने लगी है। हमने यह भी देखा कि बिहार व उत्तराखंड समेत कई राज्यों में भाजपा द्वारा केन्द्रीय सत्ता की शह पर राज्य सरकारों के खिलाफ षड्यंत्र किए गए और रोजाना के हिसाब से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ बलात्कार हुआ लेकिन इस सबके बावजूद भाजपा इन पिछले तीन-चार वर्षों में वह सब कुछ हासिल नहीं कर सकी जिसे पाने की हसरत लेकर वह केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुई थी और यहां पर यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि तमाम तरह की राजनीतिक कारगुजारियों एवं आपाधापी के बावजूद भाजपा आज भी यह कहने की स्थिति में नहीं है कि उसने वह लक्ष्य हासिल कर लिया है जो पिछले लोकसभा चुनाव से पहले उसने खुद के लिए निर्धारित किया था। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि देश की जनता ने नरेन्द्र मोदी व उनके साथियों पर पूर्ण विश्वास करते हुए उन्हें न सिर्फ केन्द्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का मौका दिया बल्कि इन पिछले तीन वर्षों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अमित शाह के हर नारे व भाषण को सच मानते हुए विभिन्न राज्यों में भी भाजपा के बहुमत वाली सरकार बनाने के पक्ष में मतदान किया लेकिन इस भारी जनसमर्थन के बदले देश के कर्णधारों के पास आज भी जनता को देने के लिए कुछ नहीं है और भाजपा का संगठन व केन्द्र सरकार इन कोशिशों में जुट गया है कि वह एक बार फिर जनता को भरमाकर सत्ता पर काबिज हो। इसके लिए सबसे आसान तरीके के तौर पर सरकारी मशीनरी का दुरूप्रयोग करते हुए विपक्ष को खत्म करने की साजिशों को जन्म दिया जा रहा है और एक सुनियोजित तरीके से मीडिया पर लगाम रखने की बात कहते हुए सरकार के हितों पर विपरीत प्रभाव डालने वाली खबरों को रोकने का सिलसिला शुरू हो गया है। यह माना कि सत्ता पक्ष के लिए एक साथ इतना सब कुछ नियंत्रित कर पाना संभव नहीं है और न ही यह उम्मीद की जानी चाहिए कि उत्पीड़न अथवा कानूनी कार्यवाही की डर से विपक्ष अपना चरित्र छोड़कर शासक वर्ग को बेलगाम छोड़ देगा लेकिन जो कुछ भी हो रहा है उसे किसी भी कीमत पर न्यायोचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि अधिकांश मामलों में यह देखा जा रहा है कि सरकार अब समझाने-बुझाने की जगह सीधे धमकाने पर आ गयी है और कई मामलों में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भाजपा चुनाव जीतकर नहीं बल्कि सत्ता छीनकर अपना राज कायम करना चाहती है और इसके लिए उसे किसी भी तौर-तरीके के इस्तेमाल से परहेज नहीं है। हमने देखा कि भाजपा के रणनीतिकार आगामी चुनावों की रणनीति के रूप में अभी से छोटे-छोटे स्थानीय स्तर के साम्प्रदायिक दंगे फैलाकर माहौल को अपने पक्ष में करने में लग गए हैं और एक सुनियोजित रणनीति के तहत सूचना क्रांति के विभिन्न माध्यमों के चलते यह माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है कि इस देश की आजादी व लोकतंत्र को सीमापार बैठे दुश्मनों से कहीं ज्यादा खतरा इस देश की सीमाओं के भीतर रहने वाले मुस्लिम समुदाय से है। राजनैतिक रूप से भाजपा का विरोध करने वाली राजनैतिक व सामाजिक ताकतों के खिलाफ कई तरह के भड़काऊ बयान व आरोप लगाने के अलावा भाजपा व संघ से जुड़े कार्यकर्ता अब आमने-सामने की लड़ाई से भी परहेज करते नहीं दिख रहे हैं और विभिन्न अवसरों पर केन्द्र अथवा राज्य सरकारों को कार्यशैली पर लगाए जाने वाले प्रश्नचिन्हों की स्थिति में उन्हें हाथापाई करने या फिर सामने वाले पक्ष पर हमलावर होने से भी कोई परहेज नहीं है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि इन पिछले तीन-चार सालों में पहली बार पूरा का पूरा भारतीय लोकतंत्र अराजकता की ओर बढ़ता दिख रहा है तथा यह भी शायद पहला मौका है जब विपक्ष के अलावा तमाम सामाजिक संगठनों ने विभिन्न राज्यों के चुनावों में इस्तेमाल की गयी ईवीएम मशीनों पर सवाल खड़े करते हुए चुनाव आयोग को ही कठघरे में खड़ा किया है और चुनाव आयोग इस संवेदनशील मुद्दे पर जन सामान्य की उत्कंठा का जवाब देने की जगह कई तरह के किन्तु-परंतु के साथ सफाई प्रस्तुत करते हुए अपने कर्तव्य की इतिश्री करते दिख रहा है। यह ठीक है कि विपक्ष भी आक्रामक अंदाज के साथ जनता के बीच जाने में पूरी तरह असफल है और नोटबंदी व जीएसटी जैसे मुद्दों के अलावा लगातार बढ़ रही महंगाई अभी तक जनता के बीच सरकार के विरोध की वजह नहीं है लेकिन इस सबके बावजूद केन्द्र सरकार के अंदाज व सुरक्षित तरीकों को देखकर साफ तौर पर यह कहा जा सकता है कि सरकारी तंत्र को कहीं न कहीं विरोध का खतरा है और इससे बचने के लिए उसे राजनैतिक पैंतरेबाजियों या फिर सरकारी तंत्र व संस्थानों के इस्तेमाल से कोई गुरेज नहीं है। हालांकि अभी लोकसभा चुनावों में वक्त है और इससे पूर्व होने वालो गुजरात व राजस्थान समेत अन्य एक आध भाजपा शासित राज्यों में सत्ता पक्ष की स्थिति मजबूत नहीं मानी जा रही। लिहाजा केन्द्र सरकार ने स्थितियों से निपटने के लिए कई नयी तरकीबों का सहारा लेना शुरू कर दिया है और लगभग एक ही मौके पर होने वाले दो राज्यों के चुनाव को लेकर चुनाव आयोग द्वारा की गयी हालिया कवायद को देखकर यह साफ लग रहा है कि भाजपा का शीर्षस्थ नेतृत्व अपनी रणनीति को अमलीजामा पहनाने में जुट गया है।

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