गैरसैण को ग्रीष्मकालीन तथा देहरादून को पूर्णकालिक राजधानी बनाने का पक्षधर है सत्तापक्ष।
उत्तराखण्ड की नवगठित भाजपा सरकार ने अपने पहले विधानसभा सत्र में राज्यपाल के अभिभाषण के माध्यम से गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाये जाने के संदर्भ में संकल्प प्रस्तुत किया है और राज्यपाल महोदय के वक्तव्य के बाद यह तय हो गया है कि आर्थिक संसाधनों की कमी से जूझ रहे उत्तराखण्ड को अब न सिर्फ दो राजधानियों से जुड़े तमाम खर्चो का वहन करना होगा बल्कि मौसम के हिसाब से राजकाज चलाने के लिऐ नेताओं व नौकरशाहो के पहाड़ आने-जाने की व्यवस्था भी करनी होगी। उपरोक्त के अलावा यह भी तय है कि गैरसैण में नवनिर्मित विधानसभा भवन व अन्य अवस्थापनाओं का कार्य ठीक ढंग से पूरा किये बगैर ही सरकार देहरादून में नये विधानसभा व सचिवालय के निर्माण की ओर कदम बढ़ायेगी तथा गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी के साथ ही साथ देहरादून को भी अस्थायी राजधानी की जगह पूर्णकालिक राजधानी का दर्जा मिलेगा। इस सारी कवायद का स्थानीय जनता को क्या नुकसान या फायदा होगा, यह तो वक्त ही बतायेगा और सरकार के इस फैसले के खिलाफ या पक्ष में मत देने का मौका भी जनता को लगभग पाॅच साल बाद ही मिलेगा लेकिन यह तय है कि अस्थायी राजधानी या फिर ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैण और पूर्णकालिक राजधानी देहरादून वाला समीकरण उस उत्तराखण्ड के प्रारूप से भिन्न है जिसकी परिकल्पना उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान की गयी थी। यह ठीक है कि इस वक्त राज्य की सत्ता पर पूर्ण बहुमत वाली सरकार काबिज है और प्रदेश की जनता ने उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान सक्रिय राजनैतिक ताकतों व उत्तराखण्ड राज्य निर्माण को लेकर एक अलग तरह की सोच रखने वाली विचारधारा को पूरी तरह नकार दिया है लेकिन सवाल यह है कि इन सोलस-सत्रह सालो में क्या हमारी प्राथमिकताऐं इतनी ज्यादा बदल गयी है कि हमें पहाड़ी अस्मिता से जुड़े सवाल भी उद्देलित नही करते या फिर राज्य निर्माण से बाद से वर्तमान तक लगातार हो रहे पलायन के चलते हमारे पहाड़ी गाॅव व कस्बे इस हद तक मानवविहीन हो गये है कि राजधानी गैरसैण बने या फिर देहरादून, हमें कोई फर्क नही पड़ता। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि राज्य आन्दोलन के दौरान सक्रिय भूमिका निभाने वाली जनता राज्य गठन के बाद मची सक्रिय राज्य आन्दोलनकारियों के चयन की मारामारी को देखकर हताश और निराश है तथा राज्य निर्माण के बाद विभिन्न आन्दोलनकारी मंचो व संगठनो से उठने वाली पेंशन व अन्य भत्तो की माॅग या फिर सरकारी नौकरी में आरक्षण के प्रोत्साहन ने उसे यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आॅखिर उत्तराखण्ड राज्य के निर्माण के लिऐ लड़ी गयी इस लम्बी लड़ाई में उसकी क्या भूमिका थी लेकिन इस सबके बावजूद गैरसैण को राजधानी बनाये जाने के मुद्दे पर सब एकमत थे और राज्य निर्माण के बाद गठित तीसरी विधानसभा के दौरान गैरसैण में शुरू हुऐ नये विधानभवन के निर्माण व वहाॅ आयोजित होने वाली मन्त्रीमण्डल की बैठक एवं विधानसभा सत्र को देखते हुए एक उम्मीद थी कि गैरसैण को लेकर सरकार कुछ सकारात्मक फैसले लेगी। अफसोस की बात है कि राज्य आन्दोलन के बाद जनमी या फिर इस दौर में बाल्यावस्था में रही नयी पीढ़ी को गैरसैण का दर्द नही है और नमो-नमो के मन्त्र से प्रभावित इस पीढ़ी की मौजूदा सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। शायद यहीं वजह हे कि भाजपा की नवगठित सरकार गैरसैण में स्थायी राजधानी के स्थान पर ग्रीष्मकालीन राजधानी की खुलकर वकालत कर रही है और कमजोर विपक्ष को देखते हुऐ उसे इस मुद्दे पर किसी भी तरह के विरोध की सम्भावना भी नही है लेकिन असल सवाल भी यहीं से खड़ा हैं क्योंकि राजधानी देहरादून से संचालित उत्तराखण्ड के बिगड़ते स्वरूप व मूलभूत सुविधाओं के आभाव में पहाड़ो से मैदानी जिलो की ओर बढ़ते पलायन के अलावा स्थानांतरण को लेकर पनपता दिख रहा एक नया उद्योग, इस बात की गवाह है कि राज्य गठन से वर्तमान तक शायद कुछ भी सही नही चल रहा है। इसीलिऐं एक जमाने पहले जल, जंगल और जमीन पर स्थानीय कब्जेदारी की मांग करने वाले लोग अब धड़ल्ले से पहाड़ छोड़कर मैदानी जिलो व अन्य राज्यों में बस रहे है और आबादी विहीन होते जा रहे पहाड़ो के गाॅव स्थानीय ग्राम प्रधानो व नौकरशाहों के लिऐ कमाई का जरिया मात्र रह गये है। हवा-हवाई उड़ाने वाले उत्तराखण्ड सरकार के तमाम मन्त्री व नौकरशाह पहाड़ के इस दर्द को कितना समझ पायेंगे यह कहना मुश्किल है और ग्रीष्मकालीन राजधानी के नाम पर पहाड़ की सैर वाले अन्दाज में दो-चार दिन के लिऐ नौकरशाही के गैरसैण जाकर बैठने से आम आदमी को क्या हासिल होगा, यह समझ पाना अभी और भी ज्यादा मुश्किल है लेकिन लोकतन्त्र का तकादा है कि जनमत से चुनी जाने वाली सरकारों व जन प्रतिनिधियों को ही जनता की आवाज माना जाता है और स्थायी व ग्रीष्मकालीन राजधानी के संदर्भ में निर्णय एक ऐसी सरकार के माध्यम से आने वाला है जिसे सदन में दो तिहाई से भी ज्यादा बहुमत प्राप्त है। इसलिऐं यह माना जा सकता है कि अगले पाॅच वर्षो में उत्तराखण्ड की स्थायी व अस्थायी राजधानी को लेकर चल रही एक पुरानी नूराकुश्ती का नतीजा जनता के सामने आ जायेगा और अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रो तक सीमित दिखने वाले राज्य सरकार के मन्त्री पहाड़ो को लेकर जतायी जाने वाली व्यर्थ की चिन्ताओं व कोरी भाषणबाजी से भी मुक्ति पा जायेंगे। हो सकता है कि कुछ तथाकथित जनवादी विचारधारा वाले लोग इस मसले पर जनता को एकजुट करते हुऐ जनान्दोलनों के जरिये पहाड़ के विकास व उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिये आन्दोलन खड़ा करने का प्रयास भी करे लेकिन प्रायोजित प्रचार के इस दौर में यह लगभग तय सा हो गया है कि जनान्दोलनों के दौरान उमड़ने वाली भीड़ को जनमत में तब्दील करना तथा पैसे व शराब के बदले खरीदे जाने वाले मतदाता वर्ग के सम्मुख आदर्शवादी विचारधारा की बाते करना भी बेमानी है। इसलिऐं अब यह मान लेने में कोई हर्ज नही है कि उत्तराखण्ड की स्थायी राजधानी को लेकर फैसला लगभग हो चुका है और इस प्रदेश की जनता ने राज्य की नौकरशाही व तथाकथित जनप्रतिनिधियों की ग्रीष्मकालीन मौज के लिऐ कुछ अतिरिक्त कर देकर धन की व्यवस्था भी करना होगी जिससे कि राज्य में गठित होने वाली जनहितकारी सरकारें सुव्यवस्थित तरीके से अपने खर्च चला सके। हाॅलाकि कुछ लोग हमारी इस बात से सहमत नही होंगे कि जन आन्दोलनो में उमड़ने वाली भीड़ को जनमत में बदलना अब कठिन हो गया है और पहाड़ के किसी न किसी कोने में गैरसैण को पूर्णकालिक राजधानी घोषित किये जाने के मुद्दे पर सुगबुगाहट जरूर होगी लेकिन राज्य आन्दोलन की टीस मन में दबाये बैठी आन्दोलनकारी जनता को इस विषय में कोई न्याय मिलेगा, ऐसा सोचना भी मुश्किल है। हालातो के मद्देनजर परिस्थितियों से समझौता करते हुऐ हम यह स्वीकार करते है कि राज्य आन्दोलनकारियों की इच्छा के विपरीत उत्तराखण्ड के स्थान पर उत्तरांचल राज्य का गठन करने वाली तथा अपने राजनैतिक समीकरणों को देखते हुऐ इसमें हरिद्वार व ऊधमसिह नगर का एक बड़ा मैदानी क्षेत्र शामिल करने वाली भाजपा एक बार फिर पूर्ण बहुमत के नाम पर गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी व नौकरशाही की ऐशगाह माने जाने वाले देहरादून को स्थायी राजधानी घोषित करने की राह पर चल पड़ी है। गौर करने योग्य विषय है कि राज्य गठन के वक्त अस्थायी राजधानी का फैसला भी भाजपाई खेमे से ही बाहर निकला था और अब चैथी विधानसभा के पहले ही सत्र में राज्यपाल के अभिभाषण के माध्यम से भाजपा के नेताओं ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि वह इस तथाकथित पर्वतीय प्रदेश के पहाड़ीपन का ही हरण कर लेना चाहते है।