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Wednesday, April 24, 2024

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युवा होते भारत में

देश में महिला व युवा मतदाताओं की संख्या निर्णायक होने के बावजूद सत्ता की राजनीति में उनकी हिस्सेदारी सीमित।

हर चुनावों की तरह इस बार भी राजनैतिक दल जनमत प्राप्त करने के लिए युवाओं व महिलाओं को अपनी ओर आकृषित करने का विशेष प्रयास कर रहे है और लोकतन्त्र के इस मेले में सरकार बनाने के लिए आवश्यक जनसमर्थन प्राप्त करने के लिए समाज के इन दोनो ही वर्गाे की महत्वपूर्ण संख्या को देखते हुए राजनैतिक दलो ने हर स्तर पर कोशिशें शुरू कर दी हैं। लगभग हर राजनैतिक संगठन अपनी महिला विंग व युवा शाखा के माध्यम से मतदाताओं को अपने साथ जोड़ना तो चाहता हैं लेकिन इन दोनो ही वर्गो के प्रत्याशी को राजनीति के मैदान मे उतारे जाने के नाम पर संगठन के बड़े नेता या तो कन्नी काटने लगते हैं या फिर इस आड़ में अपने परिवार के सदस्यो को राजनीति के मैदान में उतारे जाने का खेल शुरू हो जाता हैं। महिलाओं कोे पंचायतो व स्थानीय निकास के चुनावों मेें राष्ट्रीय स्तर पर मिले तैतीस फीसदी आरक्षण के बाद यह माना जा रहा था कि महिला संगठनो के दबाव में इस व्यवस्था को सत्ता के उच्च सदनो में भी लागू किया जायेगा तथा लोकसभा व राज्यसभा में इस परिपेक्ष्य में विधेयक लाये जाने में हो रहे विलम्ब को देखते हुए तमाम राजनैतिक दलो से सम्बद्ध महिला नेत्रिया अपने-अपने हाईकमान पर दबाव डालेगी कि वह विभिन्न राज्यो में होने वाले विधानसभा चुनावो के दौरान किये जाने वाले टिकट वितरण में महिलाओं की एक विशेष संख्या को टिकट देने का प्रावधान करते हुए उनके बीच से नेतृत्व को आगे लाने का प्रयास करे लेकिन अफसोस महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में उठने वाली तमाम बड़ी आवाजें इस संदर्भ में खामोश है और राजनीति में स्थापित महिला चेहरो को छोड़कर किसी अन्य नये महिला नेतृत्व को आगे लाने के संदर्भ में कोई सुगबुगाहट नही हैं। हाॅ इतना जरूर है कि राजनैतिक दल अपनी महिला विंगो को सक्रिय कर उनके सम्मेलनों व रैलियो के माध्यम से महिलाओं को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए तैयार करने की कोशिश करते जरूर दिखाई दे रहे है। अब अगर युवा मतदाताओ की बात करे तो यह स्पष्ट दिखता है कि भारत में तेजी से बढ़ती दिख रही युवा मतदाताओं की संख्या देश के सक्रिय राजनैतिक दलो से छिपी नहीं है और शायद यहीं वजह है कि तमाम राजनैतिक दलो ने न सिर्फ अपने युवा संगठन बनाने पर तरजीह दी है बल्कि संगठन की मुख्य धारा में भी युवाओ को पद दिये जाने व उनके अहम् को संतुष्ट करने के लिए नये-नये अनुषंगिक संगठन खड़े करने की कोशिशे भी शुरू हो गयी है लेकिन इस सबके बावजूद संगठन के स्थापित नेता यह नही चाहते कि संघर्षो के बूते आगे आकर संगठन में अहम् स्थान पा चुके यह युवा मुख्यधारा की राजनीति में प्रतिभाग करते हुए चुनावों के माध्यम से जनता क बीच जाये। यह ठीक है कि विगत लोकसभा चुनावो के दौरान भाजपा द्वारा लालकृष्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जौशी जैसे तमाम वयोवृद्ध नेताओ के स्थान पर प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी को आगे करना तथा प्रधानमंत्री के रूप में मोदी द्वारा अपने मंत्रीमण्डल मे अधिक उम्रदराज लोगो को न लिया जाना यह दर्शाता है कि देश की राजनीति धीरे-धीरे बदल रही हैं लेकिन अगर उम्र को पैमाना मानकर बात करे तो राजनीति मे युवा कहलाये जाने वाले नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज आदि तमाम नेता उम्र के उस ढलान पर है कि उन्हे युवाओं के बीच से चुना गया नेतृत्व नही कहा जा सकता। इस परिपेक्ष्य में काॅग्रेस के सर्वेसर्वा कहे जा सकने वाले राहुल गाॅधी युवाओ के ज्यादा नजदीक लगते है लेकिन उन्होने इस मुकाम को जिस तरह विरासत में हासिल किया है, विरासत की यह परम्परा काॅग्रेस के लिए और भी ज्यादा नुकसानदायक लगती है क्योकि काॅग्रेस का हर स्थापित नेता वर्तमान में इस जुगाड़ में लगा है कि वह खुद के राजनीति में सक्रिय रहते-रहते अपनी अगली पीढ़ी को राजनीति में स्थापित कर सत्ता में बना रहे और मजे की बात यह है कि इसके लिए उसे अपनी मूल विचारधारा से बगावत करने मे भी कोई परहेज नही दिखता। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति में स्थापित तमाम छोटे-बड़े दलो के नेता अपनी मर्जी से सत्ता छोड़ना नही चाहते और अगर किसी कारण से या शारीरिक अस्वस्थता के चलते ऐसा होता भी है तो वह राजनीति का ठीक विरासत वाले अन्दाज में अपनी अगली पीढ़ी के स्थानांतरण चाहते हैं। नेताओ की यही महत्वांकाक्षा सक्रिय राजनीति में अपना भविष्य तलाशने निकले युवाओ केा बगावत का मार्ग दिखाती है और शायद यहीं वह एकमात्र वजह भी है जो चुनावी मौको पर प्रचार अथवा अन्य कार्येा के लिए सेवाभाव से काम करने वाले कार्यकर्ताओ के स्थान पर मतलब परस्त अथवा धन्धेबाज किस्म के व्यक्तित्वों की हर राजनैतिक दल में अहमियत बढ़ती हुई नजर आ रही है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि वर्तमान दौर में व्यवसायिकता में तब्दील हो चुकी भारतीय राजनीति में सत्ता हासिल करना ही राजनैतिक दलो का एकमात्र उद्देश्य रह गया है और इसे हासिल करने के लिए उन्हे अपनी विचारधारा व सक्रिय कार्यकर्ता को दरकिनार कर विपक्षी दलो के मतलब परस्त नेताओ व सेवानिवृत नौकरशाहों को चुनाव लड़ाने से भी कोई परहेज नही है लेकिन इन हालातो में संगठन की प्राथमिक सदस्यता से जुड़कर आगे की राजनीति करने का मन बना रहा युवा वर्ग खुद केा ठगा महसूस कर रहा है, और उसे यह आभास होने लगा है कि जमीनी कार्यकर्ता के तौर पर काम करते हुए राजनीति मे कुछ हासिल कर पाने की बात सोचना भी अब बेमानी हैं। नतीजतन तमाम राजनैतिक दलो के पास अनुभवी व जनता के बीच घुसपैठ रखने वाले कार्यकर्ताओ का आभाव स्पष्ट देखा जा सकता है और इस आभाव के चलते चुनाव एक इवेन्ट मैनेजमेन्ट की तरह कुछ निजी कम्पनियो के सहारे चलनेवाली व्यवस्था मात्र रह गये है या फिर आम जनता के अधिकार माने जाने वाले मतदान व सरकार बानने की जरूरत को कुछ पढ लिखे प्रोफेशलनो ने कुछ इस तरह संख्या के अंकगणित में तब्दील कर दिया है कि इनका आधार पूरी तरह जातीय होकर रह गया है। ऐसा नही है कि नई पीढ़ी के लोग राजनीति के इस दंगल में सक्रिय भागीदारी नही चाहते या फिर देश का पढ़ा लिखा युवा जनसेवा व सरकार बनाने के लिए की जाने वाली इस जद्दोजहद से बचना चाहता है बल्कि अगर आन्दोलन की कोख से निकली आम आदमी पार्टी के गठन अथवा स्थानीय मुद्दो पर होने वाले तमाम छोटे-बड़े आन्दोलनो पर गौर करे तो यह साफ दिखता है कि देश का युवा वर्ग सम्पूर्ण भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में बड़ा बदलाव लाने के लिए सत्ता की राजनीति में कई तरह के बदलाव लाना चाहता है और इसके लिए समय-समय पर पढ़े लिखे युवा इंजीनियरो, डाॅक्टरो व अन्य व्यवसायिक पाठ्यक्रमो से निकले युवा तुर्को के अलावा विभिन्न राष्ट्रीय व क्षेत्रीय संगठनो से बगावत कर चुनाव मैदान में उतरे युवा नेताओ द्वारा प्रयास किये जाते रहे है लेकिन राजनीति के स्थापित खिलाड़ी इस तरह की कोशिश को परवान नही चढ़ने देना चाहते और बगावती तेवरो के साथ राजनैतिक मैदान मे उतरे इस युवा नेतृत्व को अपने ही जैसा बनाने या फिर राजनैतिक रूप से खत्म कर देने के लिए तमाम परस्पर विरोधी मानसिकता वाले दल एकमत नजर आते है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति मे युवाओ व महिलाओ की भागीदारी व उनका राजनैतिक समर्थन तो हर राजनैतिक दल चाहता है लेकिन उन्हे सत्ता मे हिस्सेदारी देने के लिए किसी भी राजनैतिक दल का कोई भी स्थापित नेता तैयार नही है और अगर किसी कारण से युवाओ या महिलाओ के साथ हिस्सेदारी बाटने की जरूरत आती भी है तो यह तमाम बड़े नेता व तथाकथित जनप्रतिनिधि अपने ही परिवार या निकटवर्तियों की ओर निहारने लगते है।

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