यह सन्नाटा सा क्यों है | Jokhim Samachar Network

Friday, March 29, 2024

Select your Top Menu from wp menus

यह सन्नाटा सा क्यों है

उत्तराखंड में सुलग रहा है कर्मचारी आन्दोलनों व जनपक्षीय मुद्दों पर विद्रोह का ज्वालामुखी
उत्तराखंड के लगभग हर कोने में आंदोलन की सुगबुगाहट साफ सुनाई दे रही है और सरकारी तंत्र आंदोलनकारी संगठनों को नजरअंदाज करने वाले अन्दाज में आगे बढ़ रहा है क्योंकि उसे लगता है कि इन पिछले सत्रह वर्षों में कोई भी सामाजिक संगठन अथवा विपक्ष अपने तमाम प्रयासों के बाद भी सरकार को हिला देने वाला आंदोलन करने में सफल नहीं हुआ है। लिहाजा आंदोलनों से जुड़े समाचार सुर्खियों के बावजूद भी सरकार के लिए खतरा नहीं है और न ही जन मुद्दों पर आंदोलन करने का दावा करने वाले तथाकथित आंदोलनकारी संगठनों में ही इतनी ताकत बची है कि वह सरकार के खिलाफ मोर्चा ले सकें। हालांकि सरकारी हुक्मरानों व जिम्मेदार पदों पर बैठे जनप्रतिनिधियों द्वारा यह दावा लगातार किया जाता रहा है कि वह व्यापक जनहित से जुड़े मुद्दों के खिलाफ नहीं हैं और न ही सरकारी कर्मचारियों व उनके संगठनों के विरोध में हैं लेकिन आंदोलनरत् सामाजिक संगठनों को लेकर सरकार का रवैय्या टालने वाला है और कर्मचारियों से जुड़े विषयों पर भी वह सिर्फ आश्वासनों व वार्ताओं से काम चलाना चाहती है। शायद यही वजह है कि वर्तमान में राज्य के लगभग सभी हिस्सों पर सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल का खतरा मंडरा रहा है और शराब बिक्री को लेकर एक बड़ा व प्रदेशव्यापी आंदोलन कर चुकी जनता खनन से जुड़े विषयों व स्थानीय निकायों के सीमा विस्तार के अलावा स्थायी राजधानी गैरसैण के मुद्दे पर भी मुखर है लेकिन सत्तापक्ष इन तमाम हड़तालों अथवा अंादोलनों को लेकर जरा भी चिंतित नहीं है या फिर यह भी हो सकता है कि विधानसभा चुनावों के दौरान मिले पूर्ण बहुमत ने नेताओं को इतना निरंकुश व स्वेच्छाचारी बना दिया है कि उन्हें जनता व जनान्दोलनों की कोई परवाह ही नहीं है। यह माना कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान अलग राज्य के नारे के साथ एकजुट हुई जनता को वह सब कुछ नहीं मिल पाया जिसे अपना उद्देश्य बनाकर वह आंदोलन के मोर्चे पर उतरी थी और उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद सक्रिय राज्य आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण व इस चिन्हीकरण का हिस्सा बनने के लिए की गयी राजनैतिक लामबंदी ने आम आदमी को हताश व निराश किया लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि अब राज्यहित के पैरोकारों का एक मंच पर जुटना या फिर एक प्रदेशव्यापी आंदोलन खड़ा कर पाना नामुमकिन है। अफसोसजनक है कि सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने के बाद तमाम नेता व उनके समर्थक यह मान लेते हैं कि मतदान के बाद जनता का दायित्व व अधिकार स्वतः समाप्त हो जाते हैं और सरकार को अपने हिसाब से काम करने की छूट होती है लेकिन अगर सरकारी तंत्र जनसामान्य की भावनाओं व कर्मचारी अथवा जनता के बीच जन्म लेने वाले आंदोलनों की भावना को समझना ही बंद कर दे तो हालात विस्फोटक हो सकते हैं और वर्तमान में हो यही रहा है। यह ठीक है कि राज्य गठन के बाद से ही उत्तराखंड में कर्मचारी आंदोलनों की भी बाढ़ सी आयी प्रतीत होती है और कर्मचारी नेता या उनके संगठन अपने आंदोलनों के जरिये उन तमाम मांगों को भी पूरा कराने की कोशिश करते हैं जो प्रथमदृष्टया ही नाजायज अथवा गलत प्रतीत होती हैं लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ कर्मचारियों अथवा जनता को ही दोषी ठहराया जा सकता है और किसी भी आंदोलन या कार्यबहिष्कार को सिर्फ कर्मचारी वर्ग को ही दोषी ठहराया जाना उचित है। हमने देखा है कि उत्तराखंड में बनने वाली सरकारों ने समय-समय पर अपने कर्मचारियों को समय से पूर्व वेतन वृद्धि व पदोन्नति की रेवड़ी बांटी है लेकिन यह मिठाई कतिपय वर्ग को ही और बार-बार दी गयी है जिससे कर्मचारियों के अन्य वर्गों में रोष होना व आंदोलन के लिए तैयार दिखना स्वाभाविक है। ठीक इसी प्रकार सरकार में बैठे नेताओं व उनके समर्थकों द्वारा अपने राजनैतिक व आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समय-समय पर रखे गए उपनलकर्मी, अंशकालिक या इसी प्रकार के अन्य नामों से रखे गए संविदाकर्मी अब सरकार के लिए ही सरदर्द बनते जा रहे हैं और मजे की बात यह है कि विभिन्न माध्यमों से जुगाड़ के साथ सरकारी सेवाओं में आये यह कर्मचारी अपने पदों के सापेक्ष आहर्ता ही पूरी नहीं करते लेकिन अपने-अपने संगठन बनाकर वह भी दबाव के जरिये स्थायी रोजगार पाना चाहते हैं और नौकरशाही के शीर्ष पर बैठी एक लाॅबी गुपचुप रूप से इस आंदोलन को संरक्षण दे रही है क्योंकि इनके स्थायीकरण में उनके भी हित छिपे हैं। जहां तक आम आदमी को मिले संविधान प्रदत्त अधिकारों का सवाल है तो इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर आमोखास को अपनी बात रखने एवं अपनी समस्याओं को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाने का पूरा अधिकार है और जब सरकारी तंत्र जनता की आवाज को अनदेखा या अनसुना करे तो फिर आंदोलन ही एकमात्र विकल्प है लेकिन सवाल यह है कि सरकारी तंत्र के पास इन आंदोलनों के चलते होने वाले आर्थिक व सामाजिक क्षय को रोकने के लिए क्या इंतजाम हैं। सरकार इस दिशा में भी बेमन से काम करती दिखती है और किसी भी कर्मचारी अथवा सामाजिक आंदोलन के दौरान व्यवस्थाएं कुछ इस तरह पंगु हो जाती हैं कि मानो हमारे पास तंत्र नाम की कोई चीज ही न हो। यह एक बड़ा सवाल है कि इस तरह के हालात क्यों पैदा होते हैं और शिक्षकों की हड़ताल के दौरान छूटने वाली पढ़ाई या फिर कर्मचारी आंदोलन के वक्त ठप दिखाई देने वाले सरकारी कामकाज के लिए किसे जिम्मेदार माना जा सकता है। ठीक इसी प्रकार यह एक बड़ा सवाल है कि हड़तालों के मौसम में सड़कों पर लगने वाले जाम या फिर अन्य तमाम तरह के आंदोलनों के दौरान अव्यवस्थित होने वाले व्यापार को पटरी पर लाने अथवा व्यवस्थित अंदाज में चलाने के लिए सरकार द्वारा क्या-क्या कदम उठाए जा सकते हैं। यह अफसोसजनक स्थिति है कि सरकार इन तमाम विषयों पर हमेशा ही मौन बनाये रखती है और किसी भी अंादोलन के दौरान उसमें भागीदारी करने वाले लोग व उससे प्रभावित समुदाय बाद में खुद को ठगा महसूस करता है लेकिन अगर वह आंदोलन के मोर्चे पर नहीं उतरता तो उसके पास विकल्प ही क्या है? क्या सरकार द्वारा किसी इस प्रकार की फोरम या मंच का विकल्प रखा गया है जहां वह अपनी बात रख सके। कुछ समय पूर्व तक न्यायालय को इसके सीमित विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता था लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में न्यायालयी कामकाज में स्पष्ट दिखने वाले सरकारी हस्तक्षेप व लगातार महंगी होती जा रही न्याय व्यवस्था के साथ ही साथ अदालती फैसलों में लगने वाला जरूरत से ज्यादा वक्त आम आदमी को मजबूर करता है कि वह अपने हकों की लड़ाई लड़ने के लिए संगठित अन्दाज में सड़कों पर उतरे और अपने वोट बैंक की ताकत का प्रदर्शन कर सरकार को सौदेबाजी की हदों तक लाये किंतु अगर मतदाताओं द्वारा किया गया प्रभावी मतदान भी हालातों में बदलाव न ला सके और व्यापक जनहित के दावे के साथ अस्तित्व में आने वाली सरकार भी अव्यवहारिकता व हठधर्मिता का प्रदर्शन करने लगे तो जनता या कर्मचारी कहां जायें। ऐसी स्थिति में उसे या तो अगले पांच वर्षों का इंतजार करना होगा या फिर अंजाम की परवाह छोड़कर सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंकना होगा और उत्तराखंड के हालात यह इशारा कर रहे हैं कि राज्य धीरे-धीरे कर इसी दिशा में जा रहा है लेकिन नेताओं व नौकरशाहों को इस बात की परवाह ही नहीं है।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *