उत्तराखण्ड की सत्ता पर काबिज होने के लिऐ उतावले दिख रहे भाजपा के शीर्ष नेतृत्व पर उठ रहे है सवाल।
उत्तराखण्ड के चुनावी महाभारत में चारों ओर से घिरते प्रतीत हो रहे हरीश रावत अपने रण कौशल से विजयी होकर सत्ता हासिल कर पायेंगे या नही, इस विषय पर फैसला अगले एक दो दिन में हो जायेगा और चुनावों की यह हार-जीत व निर्णायक फैसले के बाद सदन में दिखाई देने वाले चेहरे यह भी तय करेंगे कि आने वाले कल में उत्तराखण्ड का राजनैतिक भविष्य क्या होगा लेकिन इस एक तथ्य से विरोधियों को भी इनकार नही होगा कि राजनैतिक कौशल के धनी हरीश रावत ने अपनी संयमित वाणी व नम्र स्वरों के बावजूद केन्द्र की सत्ता पर काबिज एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार व इस सरकार के मुखिया को मजबूर कर दिया कि वह इस चुनावी रण में शीर्षासन की मुद्रा में उत्तराखण्ड में हाजिरी लगाये। हाॅलाकि इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि तीन वर्षो तक उत्तराखण्ड की सत्ता के शीर्ष पर रहे हरीश रावत उस अन्दाज में काम नही कर पाये जैसी कि उनसे अपेक्षाऐं थी और उनके द्वारा की गयी घोषणाओ में से अधिकांश के चुनावी वर्ष में होने के कारण इनका लाभ अभी तक जनता को नही मिला लेकिन इसके लिऐ हरीश रावत को अकेले दोषी नही ठहराया जा सकता क्योंकि अगर सत्तापक्ष में बगावत को अंजाम नही दिया गया होता तो शायद सरकार को हालिया वित्तीय संकट के दौर से नही गुजरना पड़ता और वह अपनी घोषणाओं व फैसलों को ज्यादा बेहतरी से अंजाम दे पाती। यह ठीक है कि काॅग्रेस में हुई इस बगावत के लिऐ भाजपा को सीधे जिम्मेदार नही माना जा सकता और न ही अभी तक ऐसे कोई पुख्ता सबूत मिले है कि सत्ता पक्ष को छोड़कर विपक्षी खेंमे में बैठना स्वीकार करने वाले बागी विधायको को किसी तरह का प्रलोभन दिया गया था लेकिन हालातों के मद्देनजर इतना तो माना ही जा सकता है कि उत्तराखण्ड के मामले में भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को काॅग्रेस व काॅग्रेस से जुड़े तमाम जनप्रतिनिधियों की जगह हरीश रावत से दिक्कत थी, इसलिऐं उन्हें सत्ता से हटाने के लिऐ भाजपा के नेताओं व शीर्ष संगठन ने किसी भी हद तक जाना स्वीकार किया और अब इस चुनावी मौसम में भी वह पूरा जोर लगाकर यही प्रयास कर रहे है। भाजपा के शीर्ष नेताओ का यह हरीश रावत विरोधी रवैय्या सोचने को मजबूर करता है कि आखिर वह कौन सी वजहें है जो केन्द्र की सत्ता पर काबिज बड़े नेताओ को मजबूर कर रही है कि उन्होंने भाजपा के स्थानीय नेतृत्व को एक तरफ रख हरीश रावत विरोधी अभियान की कमान अपने हाथ रखने का फैसला किया और अगर उम्मीदों के मुताबिक हरीश रावत एक बार फिर जनता की अदालत से विजय श्री हासिल कर सत्ता में लौटते है, तो क्या गारन्टी है कि केन्द्र सरकार उन्हें फिर उसी सुकून से काम करने देगी। दिल्ली प्रदेश की केजरीवाल सरकार के मन्त्रियों व विधायकों पर केन्द्र सरकार की शह से लगातार लगने वाले मुकद्में व छोटे-मोटे मामले में उनकी पूरी बेज्जती के साथ होती गिरफ्तारी इस तथ्य को साबित करती है कि मोदी के नेतृृत्व में चल रही भाजपा की सरकार सत्ता पर कब्जेदारी बनाये रखने के लिऐ जनता का दिल जीतकर देाबारा सत्ता में आने का प्रयास करने की जगह अपने तमाम मजबूत राजनैतिक दुश्मनों को रणनीति से खत्म करने का प्रयास कर रही है और काॅग्रेस मुक्त देश का नारा दे चुकी भाजपा को लगता है कि एक राजनैतिक संगठन के रूप में काॅग्रेस को खत्म करने के लिऐ उसके तमाम बड़े नेताओ को अपने साथ मिलाकर उनका भाजपाईकरण कर देना या फिर राजनीति की सभी हदो को पार करते हुऐ अपने पद की गरिमा की चिन्ता किये बगैर काॅग्रेस के पुराने व जमीनी नेताओ का राजनैतिक अन्त किया जा सकता है लेकिन ‘यह पब्लिक है सब जानती है’ वाले अन्दाज में हम यहाॅ पर इतना जरूर कहना चाहेंगे कि सत्ता के भय से किसी व्यक्ति विशेष को कुछ देर के लिऐ डराया, धमकाया या दबाया जरूर जा सकता है पर उसका अन्त नही किया जा सकता और राजनीति में तो यह बहुत मुश्किल है। शायद यही वजह है कि हर मोर्चे पर घेरने के भरसक प्रयासो के बाद भी हरीश रावत के पीछे जनता का काॅरवा लगातार बढ़ता ही जा रहा है और चुनावी मौसम में भाजपा की ओर से लगाये जा रहे तमाम तरह के आरोपों के बीच वह चक्रव्यूह में घिरे होने के बावजूद लगातार आगे बढ़ते ही नजर आ रहे है।
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