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Friday, April 19, 2024

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मौत के बाद

फौरी इन्तजामात और फर्जी घोषणाओं के बूते जनाक्रोश को कम करने की कोशिशों में जुटी टीएसआर सरकार

भाजपा के देहरादून स्थित मुख्यालय में चल रहे जनता दरबार के दौरान व्यापारी द्वारा किए गए आत्महत्या के प्रयास एवं इलाज के दौरान हुई उसकी मौत के बाद प्रदेश के एक बड़े हिस्से में आक्रोश का माहौल है और अगर सूत्रों से छन-छन कर आ रही खबरों को सही मानें तो हम कह सकते हैं कि सरकार की कमजोर माली हालत के चलते सरकारी भुगतान पर लगी अघोषित रोक इससे मिलते-जुलते अन्य घटनाक्रमों को भी अंजाम दे सकती है लेकिन हाल-फिलहाल व्यापारी समुदाय डरा हुआ है और वह खामोशी के साथ इस सम्पूर्ण घटनाक्रम पर सरकार की प्रतिक्रिया व भुगतान सम्बन्धी फैसलों को लेकर किए जाने वाले निर्णय का इन्तजार कर रहा है। हालांकि कांग्रेस इसे एक राजनैतिक मुद्दा बनाने की फिराक में है और व्यापारी द्वारा प्रदेश के मुख्यमंत्री व देश के प्रधानमंत्री पर लगाये गये तमाम आरोपों के आधार पर मुकदमा दर्ज करने की बात भी की जा रही है लेकिन इस तरह की राजनैतिक मांगों या आन्दोलन से आम आदमी का कोई भला होता मालूम नहीं होता और न ही कांग्रेस का कोई बड़ा नेता यह कह पाने की स्थिति में है कि उसके पास इस समस्या का स्थायी निदान है। तो क्या यह मान लिया जाय कि दो-चार दिन के हल्ले-गुल्ले या फिर राजनीति से प्रेरित आन्दोलनों के बाद यह मामला भी ठंडे बस्ते में डाल दिया जायेगा और सरकार इस समस्या का कोई स्थायी समाधान ढूंढने के स्थान पर रस्मी तौर पर मुआवजे की घोषणा कर या फिर मृतक परिवार के लिए सरकारी नौकरी दिए जाने की घोषणा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेगी। यह माना कि मामला इस बार इतना आसान नहीं है और इस संवेदनशील घटना को ध्यान में रखते हुए आयोजित किए गए हल्द्वानी बन्द व पहाड़ की सामान्य जनता के हितों के नारे के साथ चलाये जा रहे गैरसैण राजधानी के मुद्दे पर प्रदेशव्यापी आंदोलन को देखते हुए व्यापक जनभावनाएं इस वक्त सरकार के खिलाफ हैं लेकिन जनता के हाथ बंधे हुए हैं और वह खुद को असहाय व निरीह महसूस कर रही है जबकि सरकार की कार्यप्रणाली को देखकर ऐसा लगता है कि वह ज्वलंत मुद्दों से जनसामान्य का ध्यान हटाने के लिए बहाने की तलाश कर रही है। यह ठीक है कि प्रदेश के एकमात्र विपक्ष के रूप में कांग्रेस का कर्तव्य है कि वह मौजूदा घटनाक्रम पर सरकार की असफलता की ओर ध्यान इंगित करने के लिए जनता के बीच जाये और पिछले नौ माह के कार्यकाल में कई मोर्चों पर असफल साबित हो चुकी पूर्ण बहुमत की इस सरकार की कार्यशैली पर हमलावर दिखे लेकिन विपक्ष का कर्तव्य अथवा दायित्व सिर्फ आन्दोलन भर ही नहीं हैं और न ही कांग्रेस के नेताओं ने अपने सत्ता पर कब्जेदारी वाले दौर में ऐसे कोई मजबूत या बड़े फैसले लिए हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि कांग्रेस सत्ता में आने पर इस तरह के हालातों पर नियंत्रण करना जानती है। अगर राज्य की मौजूदा स्थिति पर गौर करें तो हम पाते हैं कि पूरी तरह कर्ज के भरोसे चल रही उत्तराखंड की सरकार पिछले सत्रह वर्षों में अपनी आर्थिक आय बढ़ाने के संसाधन जुटाने में पूरी तरह असफल रही है और सत्ता के शीर्ष पर काबिज नेताओं व नौकरशाहों की ओर से राज्य को स्वावलम्बी बनाने की दिशा में कोई प्रयास ही नहीं किये गए हैं जिसके चलते राज्य में न सिर्फ बेरोजगारी पूरे चरम पर है बल्कि आंशिक बेरोजगारों अथवा सरकारी संसाधनों के बलबूते अपनी रोजी-रोटी कमाने का प्रयास करने वाले कामगारों अर्थात् छोटे ठेकेदारों की एक पूरी फौज खड़ी है लेकिन सरकार की आय के स्रोत शून्य हैं और सरकार व इसे चलाने वाले नेता सत्ता पर अपनी कब्जेदारी बनाये रखने के लिए झूठे आंकड़ों का सहारा लेकर या फिर रोजाना के हिसाब से नये बनाये जा रहे कानूनों का हवाला देकर जनता को बरगलाने का प्रयास कर रही है। यहां पर यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि राज्य में बनने वाली जनहितकारी सरकारों ने इन पिछले सत्रह सालों में विकास योजनाओं या फिर तथाकथित रूप से राज्यहित में महत्वाकांक्षी कही जाने वाली तमाम घोषणाओं का जो खेल खेला है, उनमें जनसंसाधनों व राज्य के प्राकृतिक संसाधनों की लूट के अलावा और कोई काम ही नहीं हुआ है। लिहाजा मौजूदा हालातों में जनता का एक बड़ा हिस्सा यह मानने लगा है कि सरकार में बैठे हमारे नीति निर्धारकों व नीतियों को अमलीजामा पहनाने के लिए जिम्मेदार नौकरशाहों के पास सिवाय लफ्फेबाजी या फिर योजनाओं की आड़ में अपने निजी हित साधने के अलावा कोई काम ही नहीं है। नतीजतन आम आदमी का विश्वास सरकार नामक संस्था से उठने लगा है और सरकारी फैसलों से हताश व निराश प्रकाश पाण्डे जैसे युवा व्यवसायी अपने जीवन को समाप्त करने के लिए मजबूर नजर आ रहे हैं। यह माना कि आत्महत्या सरकारी फैसले के विरोध या फिर अपनी हताशा व निराशा जाहिर करने का बेहतर विकल्प नहीं है और न ही इस तरह की दो-चार आत्महत्याएं लचर हो चुके सरकारी तंत्र को प्रभावित करने में अहम किरदार अदा करती हंै लेकिन सवाल यह है कि जब मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जन सामान्य की समस्याओं पर बात करने को ही तैयार न हो और जनता के समक्ष अपनी बात रखने के लिए बेहतर मंच का आभाव स्पष्ट नजर आ रहा हो तो फिर जनता के पास विकल्प ही क्या है। सरकार की कार्यशैली से स्पष्ट है कि वह खुद पर लगने वाले आरोपों से बचने के लिए मुआवजा घोषित करने या फिर सरकारी नौकरी की बंदरबांट करने में जुटी है लेकिन उसने उन कारणों की तलाश व समस्याओं का समाधान ढूंढने का प्रयास नहीं किया है जिनके चलते एक युवा व्यवसायी को आत्महत्या जैसा निराशाजनक कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ा। अगर कानून की नजर से देखें तो आत्महत्या एक अपराध है और सरकार अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए इस अपराध को अंजाम देने वाले व्यक्ति विशेष को महिमामण्डित कर या पारितोषिक देकर एक नयी परम्परा की शुरूआत कर रही है। अगर यह सब ऐसे ही चलता रहा और सरकारी तंत्र ने अपनी कार्यशैली में बदलाव लाते हुए आर्थिक संसाधनों की मजबूत व्यवस्था के साथ इस समस्या का स्थायी समाधान ढूंढने का प्रयास नहीं किया तो यह यकीन मानिये कि आगे आने वाले कल में सरकार की समस्याएं कम होने की जगह बढ़ती ही दिखाई देंगी और सरकारी तंत्र से हताश व निराश युवाओं या फिर अपने द्वारा कराये गए कार्यों के भुगतान के लिए सरकारी कार्यालयों में चक्कर लगा-लगाकर अपनी ऐड़ियां घिस चुके तमाम छोटे ठेकेदारों को अपने परिजनों को अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित जीवन देने के लिए एक बेहतर विकल्प मिल जाएगा लेकिन सरकार विषय की गंभीरता को समझने का प्रयास नहीं कर रही है और जनाक्रोश से बचने या फिर विपक्ष को हावी होने से रोकने के लिए फौरी इंतजामात के बलबूते समस्याओं को टालने का प्रयास किया जा रहा है। यह माना कि आर्थिक परेशानियों के दौर से जूझ रहे दिवंगत प्रकाश पाण्डेय के परिवार को उसके हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता और न ही हम पीड़ित परिवार को सरकार द्वारा कोई आर्थिक सहायता या अन्य मदद दिए जाने के विरोध में हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार यह कह पाने की स्थिति में है कि भविष्य में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी और सरकारी लापरवाही या अकर्मण्यता की वजह से आर्थिक संकटों से जूझ रही प्रदेश की अधिसंख्य जनता व सरकारी विभागों द्वारा प्राप्त आदेशों के क्रम में अपनी जमा पूंजी लगाकर काम को अंजाम तक पहुंचा चुके सर्वहारा वर्ग को राहत देने की दिशा में प्रयास किए जाएंगे। सरकार के पास मौजूद संसाधनों व वर्तमान आर्थिक स्थिति को देखकर यह सब सम्भव नहीं लगता और न ही इन पिछले नौ माह के कार्यकाल में सरकार किसी भी मोर्चे पर यह साबित कर पायी है कि वह व्यापक जनहित में नये आर्थिक संसाधन जुटाने या फिर नयी योजनाएं लाने में कामयाब रही है। रहा सवाल विधानसभा चुनावों के दौर में पूरे हल्ले-गुल्ले से प्रचारित किए गए केन्द्र सरकार के सहयोग रूपी डबल इंजन का तो आंकड़े स्वयं में ही यह इशारा कर रहे हैं कि केन्द्र सरकार के गलत निर्णयों के कारण लगातार घाटे में जा रही अर्थव्यवस्था को सम्भालने में पूरी तरह असफल मोदी सरकार खुद ही कर्ज जुटाकर अपने खर्च पूरे करने के जुगाड़ में लगी है। लिहाजा केन्द्र से किसी भी तरह की आर्थिक मदद की उम्मीद करना भी बेमानी है। तो क्या यह मान लिया जाय कि वक्त आ गया है जब उत्तराखंड सरकार की नीतियों व कार्यशैली से हताश व निराश जनता को अपने फैसले लेने के लिए स्वयं ही आगे आना होगा और जनता का अगला कदम यह तय करेगा कि यहां आत्महत्या करने वालों की तादाद में बेतहाशा बढ़ोत्तरी होगी या फिर हिंसक भीड़ अपने हकों को लेने के लिए नौकरशाहों व नेताओं पर हमलावर होती दिखेगी।

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