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Saturday, April 20, 2024

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बेरौनक सरकार

अपने गठन के नौ माह के भीतर ही जनता की नजरों से उतरी उत्तराखंड की पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार
भाजपा के कतिपय सदस्यों के लिए यह आनंद मिश्रित आश्चर्य का विषय हो सकता है कि उत्तराखंड की नवनिर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री समेत तमाम मंत्रियों द्वारा आहूत जनता दरबार में वह भीड़भाड़ नहीं है जो पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में देखी जाती थी और अगर इसका सीधा मतलब लगाएं तो यह समझ में आता है कि त्रिवेन्द्र सरकार में सब कुछ सही-सही चल रहा है, इसलिए जनपक्ष को किसी भी तरह की सिफारिश या मदद की जरूरत नहीं है लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है और न ही इसे इतनी आसानी से समझा जा सकता है। शायद यही वजह है कि कुछ राजनैतिक विश्लेषक व बुद्धिजीवी इसे सरकार की नाकामी मान रहे हैं और जनसामान्य के बीच यह चर्चाएं हैं कि अपने गठन के नौ माह के भीतर ही त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार से जनता का मोहभंग हो गया है। एक हद तक देखा जाय तो इस तथ्य में दम लगता है क्योंकि कोई नेता तभी राजनेता महसूस होता है जब उसके इर्द-गिर्द और स्वागत के लिए जनता उमड़ती दिखाई दे और जनपक्ष अपने नेता की जिंदाबाद के नारे लगा रहा हो लेकिन इधर देखने में आ रहा है कि उत्तराखंड सरकार द्वारा प्रायोजित तमाम कार्यक्रमों व उद्घाटनों में भीड़ को आकर्षित करने के लिए संस्कृति विभाग व सूचना निदेशालय के सूचीबद्ध दलों द्वारा नाच-गाने का आयोजन कर इस कोरम को पूरा किया जा रहा है किंतु सरकार द्वारा आहूत जनता दरबार में ऐसी कोई व्यवस्था न होने के कारण वहां यह भीड़ नहीं देखी जा रही है। वर्तमान सरकार जब अस्तित्व में आयी तो उसने जनता तक आसान पहुंच बनाने के लिए अपने पार्टी कार्यालय में ही जनता दरबार लगाने की घोषणा की और इसके लिए प्रत्येक मंत्री को दिन भी आवंटित किया गया। अपने शुरूआती दौर में तो यह सिलसिला चलता दिखा और ऐसा मालूम हुआ कि संगठन कार्यालय व कार्यकर्ता के माध्यम से आम जनता तक पहुंच बनाने की सरकार बहादुर की तकनीक कारगर हो सकती है लेकिन धीरे-धीरे जनता दरबार में जुटने वाले फरियादियों के प्रार्थना पत्र रद्दी के टोकरे में समाने शुरू हो गए और उन पर कोई कार्यवाही व आश्वासन न होने के चलते जनता का विश्वास इस दरबार से उठ गया। नतीजतन वर्तमान में इस तरह के आयोजनों को लेकर सौ लोगों की भीड़ जुटाना मुश्किल है और ऐसा प्रतीत होने लगा है कि इस तरह के आयोजन अब मजाक बनते जा रहे हैं क्योंकि मुख्यमंत्री द्वारा अपने विवेकाधीन कोष में उपलब्ध रकम को पहले ही सत्तापक्ष के विधायकों व मंत्रियों की हैसियत के हिसाब से बांट दिया गया है और प्रत्येक विधायक अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाली विवेकाधीन कोष की इस राशि व अन्य सुविधाओं को जरूरतमंद की जरूरत के हिसाब से नहीं बल्कि अपनी वोट बैंक की ताकत के हिसाब से बांटने का प्रयास कर रहे हैं। लिहाजा सरकार द्वारा आयोजित जनता दरबार में भीड़ की कमी लाजमी है और यह मानने के अन्य भी कई कारण हैं कि माननीय मुख्यमंत्री समेत तमाम माननीय मंत्री संगठन द्वारा व्यर्थ में थोपे गए जनता दरबार के इस आयोजन से खुश नहीं हैं। शायद यही वजह है कि मुख्यमंत्री द्वारा लगाया जाने वाला यह दरबार अब मात्र उनके एक विशेष कार्याधिकारी द्वारा लगाया जाने वाला दरबार होकर रह गया है और भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ता भी इसमें विशेष रूचि नहीं ले रहे हैं। हालांकि सरकारी महकमों से छनकर आ रही खबरों के अनुसार मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से की जाने वाली आर्थिक सहायता के खेल में भी कई घोटाले हैं और इस संदर्भ में कई लोगों के गिरोहबंद तरीके से काम करने की खबरें आ रही हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ सरकारी सूत्रों से मिल रही खबरों के आधार पर यह मान लेना चाहिए कि प्रदेश की पूर्ववर्ती सरकारें पिछले सोलह सालों में गैरजरूरतमंदों पर मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष की एक बड़ी धनराशि खर्च करती रही है और वर्तमान सरकार इस सिलसिले को यहीं खत्म करने की हिम्मत जुटा सकती है। हम यह पहले से मानते चले आ रहे हैं कि मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष व विधायक निधि इस प्रदेश की राजनीति में दो ऐसी कमियां हैं जिन्होंने न सिर्फ अवसरवादिता के लिए मौके बढ़ाए हैं बल्कि सामान्य मतदाता को जिनका कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है और यह अक्सर देखा गया है कि किसी सामान्य विधायक, मंत्री अथवा मुख्यमंत्री द्वारा आहूत जनता दरबार में नब्बे फीसदी मामले गरीब लोगों को आर्थिक सहायता दिलवाये जाने या फिर जुगाड़ से नौकरी व स्थानान्तरण दिलवाये जाने के ही आते हैं जबकि शेष दस फीसदी में औपचारिक मुलाकात या छोटी-मोटी धंधेबाजी के अलावा दो-चार प्रतिशत व्यापक जनहित अर्थात् सड़क, पानी, बिजली, स्कूल आदि से जुड़े मुद्दे भी आते हैं। हालातों के मद्देनजर हम यह भली-भांति समझ सकते हैं कि जनता दरबार के माध्यम से सत्ता पक्ष के सामने आने वाली जनसामान्य की दिक्कतों के प्रति शासक वर्ग का रूख कैसा रहता होगा और एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार जनता से क्या अपेक्षाएं रखती होंगी लेकिन चुनावी नतीजों के बाद जनता का रूख पूरी तरह बदला-बदला दिखाई दे रहा है और प्रदेश भर में हुए शराब की दुकानों के विरोध के आंदोलन से लेकर वर्तमान में स्पष्ट दिख रहे स्थानीय निकायों के सीमा विस्तार के विरोध के बीच पनपते दिखाई देने वाले तमाम छोटे-बड़े आंदोलन इस बात के गवाह हैं कि सरकार सदन में पूर्ण बहुमत के बावजूद जनता का दर्द नहीं समझ पायी है और अगर गंभीरता से गौर किया जाय तो यह वर्तमान सरकार की नाकामी होने के साथ ही साथ उनके द्वारा आहूत जनता दरबारों या फिर उनके निजी आवासों में जनता के न फटकने का एक बड़ा कारण भी है। यह ठीक है कि सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वर्तमान में जनता के बीच उसकी लोकप्रियता अथवा छवि क्या है और न ही इस भागमभाग वाले दौर में जनपक्ष के एक हिस्से से यह उम्मीद की जा सकती है कि वह अपना सारा कामकाज छोड़कर सरकार विरोधी आंदोलन या अन्य क्रियाकलाप में जुट जाएगा। लिहाजा यह मानना गलत है कि जनता दरबार में अपेक्षानुरूप भीड़ न जुटने या फिर सरकारी कार्यक्रमों के दौरान जनता के न दिखने से नेता अथवा सरकारी तंत्र हैरान व परेशान हो रहा है। हां इतना जरूर है कि बिना जनता व समर्थकों के नेता खुद को पूरी तरह नेता महसूस नहीं कर पा रहा और न ही सरकार बहादुर की वह ठसक महसूस की जा रही है जो पूर्व मुख्यमंत्रियों के दौर में स्पष्ट दिखाई देती थी। नतीजतन तमाम विशेष कार्याधिकारी व खुद को मुख्यमंत्री का खास कहलाने वाले इन दिनों पूरी तरह बेरोजगार हंै और खुद को राजनैतिक व सामाजिक रूप से जिन्दा रखने के लिए उन्हें कुछ मामलों की तलाश है। अब देखना यह है कि यह तलाश कब और कैसे पूरी होती है?

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