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Thursday, April 25, 2024

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बदली हुई तस्वीरों के साथ

अपनी प्राथमिकताओं का निर्धारण करने में पूरी तरह असफल रही मोदी सरकार
देश की सत्ता के शीर्ष पर काबिज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समर्थकों का मानना है कि अपने कार्यकाल में भाजपा ने जो नोटबंदी व जीएसटी लागू करने के फैसले लिए हैं उनका देश की आर्थिक स्थिति पर दूरगामी असर पड़ेगा और इतिहास के पन्नों में मोदी को एक सफल प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाएगा। हालांकि यह कहना जरा मुश्किल है कि लगभग दस वर्षों तक देश के प्रधानमंत्री रहे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह की सरकार पर भ्रष्टाचार और कुशासन के आरोप लगाकर सत्ता के शीर्ष पदों को प्राप्त करने वाले भाजपा के नेताओं की अपनी योजनाएं व रणनीति क्या हैं लेकिन यह तय है कि उन्होंने पिछले तीन-चार वर्षों में जिस अंदाज में नोटबंदी, आधार, जीएसटी समेत अन्य तमाम सरकारी योजनाओं व पूर्ववर्ती सरकार की घोषणाओं को लागू करने का श्रेय लेना शुरू किया है, उससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि देश की आजादी के बाद दशकों तक राजसत्ता पर काबिज रही कांग्रेस वाकई समझदारों का संगठन है। शायद यही वजह है कि पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री नरसिंह राव के कार्यकाल में वित्त मंत्री के रूप में देश पर लागू आर्थिक सुधारों को एक नयी दिशा देने वाले मनमोहन सिंह ने सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के बाद अपनी योजनाओं व फैसलों को लागू करने के लिए कोई जल्दबाजी नहीं दर्शायी बल्कि बहुत धीमी रफ्तार से चलते हुए देश की जनता को उन तमाम स्थितियों के लिए तैयार करने का प्रयास किया जो उदारवाद के ऋणात्मक पहलू के रूप में सामने आने वाली थी। लिहाजा उनके कार्यकाल में जमाखोरी के चलते बढ़ी महंगाई या भ्रष्टाचार के मोर्चे पर सरकारी तंत्र के विरोध की तो कई घटनाएं सामने आयी लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों में भूखमरी के चलते होने वाली मौतों के लिए कभी केंद्र सरकार की नीतियों को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया और न ही कभी ऐसा लगा कि सरकार द्वारा लागू की गयी व्यवस्थाओं के परिणामस्वरूप देश के कुछ गिने-चुने व्यापारिक समूह या चुनिन्दा चेहरे ही लाभ की स्थिति में हैं। इस सबके बावजूद विपक्ष ने तत्कालीन सत्ता पक्ष का हर मोर्चे पर विरोध किया और सूचना तंत्र के माध्यम से जनता को यह आश्वासन दिया गया कि अगर विपक्ष को सत्ता के शीर्ष पदों को हासिल करने का मौका मिलता है तो स्थितियां इसके ठीक विपरीत होंगी। जनता ने विपक्ष के नारों और उनके नेताओं के भाषणों पर विश्वास किया तथा भाजपा ने पूर्ण बहुमत के साथ केन्द्रीय सत्ता को ही हासिल नहीं किया बल्कि विभिन्न राज्यों में भी अपनी सरकार बनाने में सफलता अर्जित की लेकिन हालातों में कोई बदलाव नहीं हुआ बल्कि अगर यह कहा जाए कि नयी सरकार ने ज्यादा जल्दबाजी व बिना किसी तैयारी के उन तमाम योजनाओं व कानूनों को लागू करना शुरू कर दिया जिन्हें वह व्यापक रूप से जनविरोधी बताते हुए पूर्ववर्ती सरकार का विरोध करती रही थी। वर्तमान में कांग्रेस विपक्ष में है और इन तमाम नीतियों का खाका तैयार करने वाले लोग आंकड़ों के साथ यह बता रहे हैं कि सही होने के बावजूद उनके दौर में बनी तमाम योजनाएं असफल क्यों साबित हो रही हैं लेकिन हालातों पर गौर करने वाली बात यह है कि सरकार व्यापक जनहित को ध्यान में रखते हुए स्थितियों में सुधार करने के स्थान पर मीडिया को काबू में कर इन आंकड़ों को छुपाने का प्रयास कर रही है और देश के विभिन्न हिस्सों में भूख के चलते हो रही मौत व किसानों की आत्महत्या को सरकारी स्तर पर कुछ इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है मानो यह सामान्य व छोटी घटनाएं हों। हमने देखा कि कर्ज के बोझ से दबता जा रहा किसान किस तरह आत्महत्या कर रहा है, भूख के चलते हो रही मौतों का आंकड़ा सैकड़ा पार करने के करीब होने के बावजूद सरकार इसे गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है क्योंकि उसे इन तमाम समस्याओं का हल ही नहीं सूझ रहा है और न ही सत्तापक्ष के नेता यह मानने को तैयार हैं कि नीतियों में थोड़ा-बहुत फेरबदल कर या लचक लाकर हालातों पर काबू पाया जा सकता है। इन हालातों में अपनी लोकप्रियता को बनाए रखने के लिए सत्तापक्ष व उसके समर्थक तमाम गैर जरूरी मुद्दों को हवा दे रहे हैं और माहौल को कुछ इस तरह गढ़ा जा रहा है कि मानो आर्थिक उपलब्धियां, भूखमरी से मौत या किसानों की आत्महत्या जैसी तमाम तथाकथित समस्याएं मनगणन्त किस्से कहानियों का हिस्सा हैं लेकिन सच को झूठलाया नहीं जा सकता और न ही देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से नजदीकी सम्बंध रखने वाले अम्बानी, अदानी व बाबा रामदेव समेत अन्य तमाम बड़े उद्योगपतियों एवं जय शाह जैसे नेता पुत्रों की दिन दूनी व रात चैगुनी रफ्तार से बढ़ी पूंजी को नकारा ही जा सकता है। हमने देखा है कि देशभर के किसान अपने-अपने तरीके से सरकार के खिलाफ नाराजी जाहिर कर रहे हैं व सरकार द्वारा कुछ योजनाओं को लागू करने के चक्कर में दिखाई जा रही जल्दबाजी के परिणाम एक और बच्ची की भूख से मौत के रूप में सामने आए हैं। किस्सा कुछ इस तरह है कि एक गरीब परिवार की महिला का मीडिया के माध्यम से यह बयान सामने आया है कि उसका आधार कार्ड-राशनकार्ड से लिंक न होने के चलते उसे सरकार द्वारा दिया जाने वाला सस्ती दरों का अनाज नहीं मिल पाया और उसकी बेटी ने भूख से बिलखते हुए भात-भात की रट के साथ अपना दम तोड़ दिया। हो सकता है कि झारखंड की इस महिला के बयानों में कुछ अतिसंयोक्ति हो और उसकी बेटी भूखमरी के अलावा ऐसी किसी अन्य बीमारी से भी ग्रसित हो जिसका इलाज समय से शुरू न होने के चलते उसका काल के ग्रास में समाना लगभग तय हो या फिर विपक्ष किसी भी प्रकार की आर्थिक सहानुभूति के दम पर पीड़ित परिवार को इस तरह के बयान देने को मजबूर कर रहा हो लेकिन इस सबके बावजूद इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि पीड़ित परिवार सहानुभूति का पात्र था और सरकारी व्यवस्था में आए बदलाव के चलते सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान से आसानी के साथ उपलब्ध हो जाने वाला राशन इस परिवार को समय से मुहैया नहीं हो पाया जिसके चलते महिला के आरोपों को मिथ्या करार दिया जाना संभव नहीं है और ऐसे एक नहीं बल्कि हजारों मामले सामने आ सकते हैं जब सरकार द्वारा व्यवस्था में किए गए इस तरह के बदलाव के चलते एक-दो नहीं बल्कि लाखों-करोड़ लोगों को इस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हो। यह माना कि मीडिया में इस तरह के अन्य घटनाक्रमों को तवज्जो नहीं मिल रही है या फिर मामला मौत के मुहाने तक न पहुंचने के कारण अभी इतना गंभीर नहीं हुआ है कि विपक्ष भी देश के तमाम हिस्सों में असंख्य परिवारों को हो रही इस तरह की परेशानी को लेकर विलाप करें लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि स्थितियां इतनी भी सुखद नहीं है कि हम अपनी उपलब्धियों पर गर्व कर सकें या फिर यह दावे के साथ कहा जा सके लम्बे चैड़े वादों व लोक-लुभावन नारों के साथ सत्ता के शीर्ष को हासिल करने वाली भाजपा की नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान केन्द्र सरकार अपने कार्यकाल के इन शुरूआती चार वर्षों में ऐसा कुछ भी हासिल कर पायी है जिसे गर्व के योग्य कहा जा सके। लिहाजा नये मुद्दों की तलाश शुरू हो गयी है और लगातार पांच साल तक सत्ता के शीर्ष पर काबिज रहने के बाद चुनावी मौके पर कांग्रेस को कोसना व याद करना, भाजपा की मजबूरी है व राजनीति के लिहाज से जरूरी भी। इसलिए यह सवाल उठने जरूरी हैं कि साठ साल तक सत्ता के शीर्ष पर काबिज रहने वाली कांग्रेस की उपलब्धि व उस पर लगने वाले घोटाले के आरोप क्या हैं या फिर कांग्रेस के शीर्ष नेताओं व उनके निकटवर्ती परिजनों के पास वैध-अवैध रूप से कितनी सम्पत्ति है लेकिन अब हालात बदले हुए हैं और जनता का एक बडा़ हिस्सा सत्ता पक्ष से यह पूछ रहा है कि कांग्रेस व उसके नेताओं पर पूर्व से ही लगाए जा रहे इन आरोपों के खिलाफ क्या जांच या कार्यवाही की गयी और कितने भ्रष्ट नेताओं व नौकरशाहों को जेल के शिकंजों के पीछे भेजा गया। सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है बल्कि अगर मीडिया के माध्यम से सामने आने वाले सत्ता पक्ष के नेताओं के बयान व तमाम घटनाक्रमों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि भाजपा के लोग कांग्रेस के नेताओं व उसकी कार्यशैली को कोसते हुए उसका अनुसरण करना चाहते हैं। इन हालातों में यह एक गंभीर सवाल है कि क्या इस देश की जनता सत्तापक्ष के इस नजरिए को स्वीकार करेगी।

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