बाबरी मस्जिद-राममन्दिर विवाद की बरसी पर विशेष
अयोध्या, राम मंदिर व बाबरी मस्जिद विवाद का केन्द्र है लेकिन वहां इस विषय को लेकर कोई हलचल नहीं है और न ही इस मुद्दे पर पक्षकार बने तमाम लोगों के बीच कोई निजी अदावत देखने को मिलती है किंतु इस सबके बावजूद राममंदिर निर्माण एक बड़ा राजनैतिक मुद्दा है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि राममंदिर आंदोलन को नेतृत्व व समर्थन देकर एक राजनैतिक दल इन पच्चीस वर्षों में अपना जनाधार इतना बढ़ा चुका है कि वह न सिर्फ देश की सत्ता पर काबिज है बल्कि विभिन्न राज्यों में भी उसकी पूर्ण बहुमत सरकार है। हालांकि केन्द्र की सत्ता पर काबिज भाजपा के वर्तमान नेता अब इस तथ्य को स्वीकार करने से हिचकते हैं कि उनका जनाधार तेजी से बढ़ने के पीछे राम मंदिर आन्दोलन का विशेष साथ रहा है और भाजपा के तमाम अनुषांगिक संगठनों द्वारा भी राम मंदिर के मुद्दे को लेकर पहले वाली आक्रामकता नहीं दिखाई जाती लेकिन भाजपा के चुनावी घोषणा पत्रों में राममंदिर का वजूद बना हुआ है और चुनावी संघर्ष में भागीदारी करने वाला भाजपा का हर नेता रामलला को उनके भव्य मंदिर में विराजमान करने के लिए संकल्पबद्ध है। यह माना कि वर्तमान में भाजपा के वह तमाम नेता नेपृथ्य में है जिन्होंने राम मंदिर के मुद्दे पर व्यापक रणनीति के साथ एक ऐसा देशव्यापी आंदोलन किया था जिसने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी और जय श्री राम का उद्घोष हमारे दैनिक वार्तालाप या पारम्परिक जन अभिवादन का अंग बना दिया लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि जनता उस आवेश या उत्तेजना को भूल गयी है जो तत्कालीन कारसेवकों द्वारा अयोध्या में प्रदर्शित किया गया था। आज भी देश के तमाम हिस्सों में छह दिसम्बर के दिन शौर्य दिवस व काला दिन मनाने की बात होती है और इस अवसर पर एकत्र तमाम नेता अपनी-अपनी राजनैतिक जरूरत व मानसिकता के हिसाब से इस सम्पूर्ण घटनाक्रम की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं लेकिन अयोध्या में स्थिति जस की तस है और राममंदिर को लेकर की गयी तमाम तैयारियां व बाबरी मस्जिद को पुर्नस्थापित करने के वायदे अनेक अवसरों पर सामने आते रहते हैं। माननीय न्यायालय ने इसे एक गंभीर विषय मान इस मुद्दे को रोजाना सुनवाई के आधार पर निपटाने का फैसला लिया है और सरकार भी इस विषय में गंभीर दिखाई देती है लेकिन एक पक्ष यह नहीं चाहता कि आगामी लोकसभा चुनावों से पहले इस तरह की कोई कार्यवाही की जाय। हालांकि माननीय न्यायालय द्वारा इस तरह की किसी भी अपील को मानने या इससे सहमत होने से स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया गया है और आगामी सुनवाई के लिए बारह फरवरी से तिथियों का निर्धारण कर न्यायालय ने यह संकेत भी दिया है कि अब वह इस विवाद का जल्द निपटारा चाहता है लेकिन सवाल यह है कि क्या धर्म, वर्ण, जाति व क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाले राजनैतिक दल इस बात पर सहमत होंगे कि एक विवादास्पद व संवेदनशील मुद्दे का शीघ्र से शीघ्र सर्वमान्य हल खोजा जाय या फिर सभी पक्षों को इस बात के लिए राजी किया जाए कि वह न्यायालय के फैसले को अंतिम रूप से स्वीकार करे। वैसे अगर देखा जाय तो आम आदमी को इस बात से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता कि अयोध्या में राममंदिर बनता है या फिर बाबरी मस्जिद और न ही अयोध्या व उसके आस-पास रहने वाले दोनों ही धर्मों को मानने वाले लोग इस विषय को लेकर उत्साहित हैं लेकिन यह एक भावनात्मक मुद्दा है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि दोनों ही सम्प्रदायों के वोटों की राजनीति करने वाले नेताओं ने इस विषय को लेकर इतनी राजनीति कर ली है कि अब मामला धर्मगुरूओं के हाथों से भी निकल गया है। लिहाजा अब प्रश्न कानून और व्यवस्था का है तथा इसे कायम रखने के लिए जिम्मेदार केन्द्र व विभिन्न राज्यों की सरकारें यह चाहती हैं कि इस संदर्भ में कोई भी निर्णय माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा ही लिया जाए लेकिन जहां तक सवाल राजनैतिक नफे-नुकसान का है तो नेताओं को अपने बयानों या पूर्व फैसलों से डिगते वक्त नहीं लगता और वह नहीं चाहते कि ऐसे कोई भी झगड़े जो राजनैतिक लामबंदी करने में सफल हों या फिर राजनैतिक लाभ दे सकते हों, शीघ्र निपटे। नतीजतन तारीख का सिलसिला जारी है और इन पच्चीस सालों में तमाम जिला स्तरीय अदालतों के अलावा राज्य के उच्च न्यायालय समेत अनेक विद्वान अधिवक्ताओं व न्यायाधीशों द्वारा इस ज्वलंत विषय पर अपनी राय व्यक्त किए जाने या फिर विचार व्यक्त किए जाने के बावजूद अभी तक इस मुद्दे को लेकर आम राय या फिर न्याय पाने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए रोडमैप ही तैयार नहीं हो पाया है। भाजपा इस वक्त सत्ताधारी दल है और देश की जनता के एक बड़े हिस्से को अपने पक्ष में उद्देलित करने के लिए उसके पास अन्य भी कई ज्वलंत मुद्दे व विषय हैं। लिहाजा भाजपा से जुड़ी विचारधारा का मानना है कि अब इस विषय का निस्तारण अतिशीघ्र हो जाना चाहिए, ताकि जनता के बीच यह संदेश जाए कि वह अपनी पूर्व में की गयी घोषणाओं व रणनीति को लेकर संवेदनशील है लेकिन विपक्ष का मानना है कि सत्ता के शीर्ष पर काबिज भाजपा इन तमाम तथ्यों व तर्कों का आगामी लोकसभा चुनावों में फायदा उठा सकती है, इसलिए विपक्ष का रवैय्या ढीला-ढाला है और वह सुनवाई टालने के मूड में है। इस परिपेक्ष्य में न्यायालय का रूख क्या होता है यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन यह तय है कि मामला बहुत पेचीदा है और मामले से जुड़े तमाम पक्षकारों के पास अपने-अपने तर्कों के समर्थन में तथ्य हैं। लिहाजा यह तय है कि इस मामले पर फैसला देना इतना आसान नहीं है कि न्यायालय भी इस विषय में जल्द ही कुछ कर सके लेकिन फिर भी यह उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे विद्वान न्यायाधीश तथ्यों व गवाहों की बिना पर ऐसा फैसला लेंगे जो तर्कों की कसौटी पर खरा बैठेगा और देश की अधिसंख्य जनता को मान्य होगा। हम देख रहे हैं कि राजनेताओं की जिस पीढ़ी ने राममंदिर निर्माण के आंदोलन की रणनीति तैयार कर इसे एक परिकल्पना के रूप में जनता के बीच उतारा था, वह पीढ़ी अब राजनीति से लगभग बेदखल हो गयी है और राममंदिर को एक बड़ा मुद्दा बताने वाले भाजपा नेताओं के पास इस वक्त गोहत्या, लव जेहाद, हिन्दू आतंकवाद जैसे तमाम मुद्दे हैं जिनके आधार पर वह स्थानीय स्तर पर मतदाताओं को एकजुट करने में सफल दिखते हैं। इसके ठीक विपरीत राममंदिर निर्माण को लेकर भाजपा प्रतिबद्ध है और उसे लगभग हर चुनाव में अपनी इस प्रतिबद्धता को लेकर ताने सुनने पड़ते हैं जिसके कारण आज भी राममंदिर भाजपा के चुनावी घोषणा पत्रों का हिस्सा बना हुआ है। वर्तमान में जब भाजपा की नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार को चार साल पूरे हो चुके हैं और आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारियां लगभग शुरू हो चुकी हैं तो भाजपा की जरूरत है कि वह इस विषय पर ईमानदारी से प्रयास करती दिखे तथा सत्ता पक्ष के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता कि वह इस विषय पर न सिर्फ न्यायालय के साथ खड़ी दिखे बल्कि हर बिंदु व तथ्य पर न्यायालय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती दिखे। मोदी-योगी के बयान व उत्तर प्रदेश या केन्द्र सरकार का राममंदिर के मुद्दे पर अपनाया गया वर्तमान रूख यही इशारे भी कर रहा है। बस अब यह देखना बाकी है कि न्यायालय के फैसले का रूख किस करवट बैठता है और न्यायालय के फैसले को लागू करवाने के लिए सत्ता पक्ष को किस हद तक मशक्कत करनी पड़ती है।