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Saturday, April 20, 2024

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फेल हुआ विकास का डबल इंजन

युवा व्यवसायी एवं ट्रांसपोर्टर की असामयिक मौत ने लगाये सरकार की कार्यशैली पर सवालिया निशान
उत्तराखंड में एक व्यवसायी द्वारा भाजपा मुख्यालय में चल रहे जनता दरबार के दौरान जहर गटक लेने की घटना हताश व निराश करने वाली है और यह सम्पूर्ण घटनाक्रम ऐसे वक्त में सामने आया है जब राज्य के तमाम राजनैतिक दल अपने-अपने संसाधनों व राजनैतिक ताकत को एकजुट करते हुए आगामी पंचायत व स्थानीय निकायों के चुनावों के लिए जनता के बीच जाने का मन बना रहे हैं जबकि स्वयं को राज्य की जनता के स्थानीय हितों का स्वयंभू पैरोकार मानने वाले कुछ राजनैतिक व तमाम सामाजिक आंदोलनकारी ताकतें गैरसैण को स्थानीय राजधानी बनाये जाने के मुद्दे को हवा देने में जुटी है। हालांकि यह कह पाना मुश्किल है कि व्यवस्था से क्षुब्ध एवं आर्थिक कारणों से परेशान एक व्यवसायी का हर ओर से निराश होने के बाद उठाया गया यह कदम आगामी स्थानीय निकाय व पंचायत चुनावों को किसी भी हद तक प्रभावित कर पाएगा और पूरी तरह स्थानीय मुद्दों व लोकल राजनीति के आधार पर लड़े जाने वाले इन चुनावों में नोटबंदी व जीएसटी लागू होने के परिणामस्वरूप बाजार में उत्पन्न हुई निष्क्रियता व बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा बनेगी लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार के सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने के बाद सामने आयी भुखमरी के चलते मौत और किसानों की आत्महत्या के बाद यह तीसरी ऐसी बड़ी घटना है जिसने स्थानीय जनमानस को बुरी तरह झकझोरा है और कुछ ही अर्सा पहले राज्य में एक बड़े राजनैतिक बदलाव के पक्ष में खड़ी दिख रही जनता अब टीएसआर सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाने से नहीं चूक रही। यह माना कि सरकार की जनता तक आसान पहुंच के लिए जनता दरबार आयोजित किए जाने के सरकारी सिलसिले पर सवाल उठाने का कोई कारण नहीं है और न ही यह माना जा सकता है कि किसी सार्वजनिक स्थल अथवा मंत्री या मुख्यमंत्री के आवास पर आयोजित किए जाने वाले इस तरह के कार्यक्रमों को जबरदस्ती वाले अंदाज में भाजपा के मुख्यालय में आयोजित किया जाना घटना की गम्भीरता का विषय बना लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि अगर सम्बंधित पक्ष ने पीड़ित की परेशानी को गंभीरता से लिया होता तो शायद इतनी बड़ी घटना सामने ही नहीं आती। जहां तक जनता की सरकार के आला मंत्रियों तक सीधे पहुंच बनाने व नौकरशाही को त्वरित अंदाज में फैसलों पर अमल करने के लिए मजबूर करने के लिहाज से आयोजित किए जाने वाले जनता दरबार या जनता दर्शन कार्यक्रम का सवाल है तो यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि पूर्व में इस तरह के आयोजनों के बहाने होने वाली मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष की बंदरबांट इस तरह के कार्यक्रमों में भारी भीड़ जुटने का एक बड़ा कारण रही है और पूर्ववर्ती सरकारों के मुखियाओं ने अपनी लोकप्रियता को सिद्ध करने के लिए इस तरह के आयोजनों को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है लेकिन इधर भाजपा के सत्ता में आने के बाद इस तरह की अव्यवस्था पर रोक लगी है और सत्तापक्ष के विधायकों व भाजपा के बड़े नेताओं के इशारे पर मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष के संतुलित वितरण किए जाने के खबरें लगातार मिल रही हैं। नतीजतन विभिन्न सार्वजनिक स्थलों व भाजपा के प्रदेश मुख्यालय में प्रतीकात्मक रूप से होने वाले इस आयोजन में भागीदारी करने वालों की संख्या सिमटती जा रही है और मुख्यमंत्री की मौजूदगी में होने वाले इस आयोजन में अब विभिन्न मंत्रियों मात्र की उपस्थिति व सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए मुख्यमंत्री कार्यालय से सम्बद्ध ओएसडी या अन्य विशेषकार्याधिकारियों द्वारा भी जनता दरबार लगाये जाने की खबरों ने इस तरह के आयोजनों की विश्वसनीयता को कम किया है लेकिन इस तरीके की दलीलों या फिर जनता दरबार की अहमियत को कम करके हम हाल ही में सामने आए प्रकरण को हल्के में नहीं ले सकते और न ही उन सवालों को उठने से रोका जा सकता है जिनसे क्षुब्ध होकर पीड़ित पक्ष ने आत्महत्या जैसा गंभीर कदम उठाया। वर्तमान में बेरोजगारी व बेकारी एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रही है और केन्द्र सरकार द्वारा पिछले एक-दो वर्षों में उठाये गए कुछ आर्थिक सुधार सम्बंधी कदमों के बाद तो हालात ज्यादा ही खराब नजर आ रहे हैं। उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों में सरकारी तंत्र के पास राजस्व वसूली के स्रोत सीमित हैं और कोई बड़ा उद्योग या काम धंधा न होने के कारण यहां की जनता का एक बड़ा हिस्सा सरकारी नौकरी या फिर सरकार के भरोसे पर चलने वाले छोटे-मोटे काम धंधों तक ही सिमटा हुआ है। इधर नयी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद सामने आये जीएसटी जैसे कानूनी बदलाव व तंत्र में बढ़े भ्रष्टाचार के चलते ठेकेदारी जैसे तमाम छोटे-मोटे काम धंधों के जरिये सरकार से जुड़े कामगारों व छोटे व्यवसायियों पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है जिसके चलते वह स्वयं को असुरक्षित व ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं और काम धंधे व सरकार द्वारा किए जाने वाले भुगतान के आभाव में उन्हें अनेक तरह से आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ रहा है। जहां तक सरकार की मंशा अथवा कार्यप्रणाली का सवाल है तो यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि खुले बाजार से ऋण लेकर अपने कार्मिकों का वेतना जुटा रही सरकार के पास सत्ता में पूर्ण बहुमत हासिल होने के बावजूद राज्य के विकास को लेकर खाका ही नहीं है और न ही सरकार की कार्यशैली यह इशारा कर रही है कि अपने नौ महिने के कार्यकाल में वह शराब व खनन के जरिये राजस्व वसूलने के अलावा कुछ सोच पायी है। अगर आम आदमी के नजरिये से गौर करें तो ऐसा लगता है कि केन्द्र के साथ ही साथ उत्तराखंड में भी समान विचारधारा की सरकार बनने के बाद विकास का डबल इंजन सरपट दौड़ना चाहिए था और सत्तापक्ष को हर तरह से समर्थन देने के बाद राज्य में केन्द्र सहायतित योजनाओं व परियोजनाओं की बाढ़ आ जानी चाहिए थी लेकिन प्रदेश सरकार की गतिविधियों को देखकर यह लग रहा है कि वह अभी तक पुरानी योजनाओं के नाम बदलने या फिर पूर्व में किए गए उद्घाटनों व शिलान्यासों की नये सिरे से विवेचना करने में ही मशगूल हैं। हालांकि राज्य में पंचेश्वर बांध बनाये जाने या फिर पहाड़ों पर सुगम यातायात के लिए आल वेदर रोड व रेलवे लाइन बनाये जाने का हल्ला है और अगर समाचार पत्रों या सरकारी भोपू लगने वाले कुछ खबरिया चैनलों पर यकीन करें तो ऐसा लगता है कि इस दिशा में तेजी से काम भी शुरू हो गया है लेकिन इन तमाम कार्यों के लिए स्थानीय स्तर पर ठेका या टेंडर आदि को लेकर कोई प्रक्रिया ही नहीं है और न ही किसी स्थानीय व्यक्ति अथवा छोटे ठेकेदार को काम मिलने की ही खबर है। इन हालातों में स्थानीय बेरोजगारों या फिर छोटी पूंजी लगाकर बैंक कर्ज के माध्यम से काम कर रहे ठेकेदारों का चिंतित होना स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है और यह चिंता हाल ही में सामने आए भाजपा मुख्यालय के घटनाक्रम में स्पष्ट दिखती है। यह हो सकता है कि कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल इस घटनाक्रम को मुद्दा बनाकर सरकार को घेरने का प्रयास करें या फिर सरकारी तंत्र यह साबित करने की कोशिश करे कि सुनियोजित साजिश के तहत पहले वीडियो वाइरल कर इस सम्पूर्ण घटना को अंजाम देने वाला पीड़ित पक्ष विपक्ष की रणनीति का हिस्सा था लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार इस घटनाक्रम से सबक लेगी और सरकार चलाने के लिए जिम्मेदार नेताओं व नौकरशाहों द्वारा विभिन्न स्तरों पर धन का इंतजाम कर रूके हुए या रोके गए पूर्व के सरकारी भुगतानों को निपटाया जाएगा। सरकार द्वारा अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने में आड़े आ रही धन की कमी इस तरह के भुगतानों को करने की इजाजत नहीं देती और अगर सरकारी टेªजरी के नाम पर चल रही हेरफेर व सरकारी विभागों के दायरे में रहकर काम करने वाले निजी व्यवसायियों की हालत पर गौर करें तो हम पाते हैं पिछले लगभग एक वर्ष से भी ज्यादा समय से भुगतान के नाम पर छोटे उद्यमियों व कार्यदायी संस्थानों को टहलाने का सिलसिला वर्तमान तक जारी है। इन हालातों में छोटी पूंजी व बैंक के कर्ज के माध्यम से अपना कारोबार करने निकले पाण्डेय जैसे तमाम व्यवसायियों के सम्मुख आत्महत्या के सिवा चारा भी क्या है और अगर सरकार इस बड़े घटनाक्रम के बाद अभी भी नहीं चेतती है तो यह निश्चित जानिये कि हमारा राज्य बेकारी और भुखमरी से आगे बढ़कर अराजकता की ओर बढ़ता चला जाएगा। सवाल यह है कि इस गंभीर समस्या का समाधान क्या है और क्या सिर्फ मुख्यमंत्री बदले जाने या फिर सरकार बदलने से हालातों पर नियंत्रण पाया जा सकेगा? पाण्डेय की मौत पर अफसोस जाहिर कर रही या फिर सरकार के खिलाफ आक्रोशित जनता को इन सवालों का जवाब जल्द से जल्द ढूंढना होगा।

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