विवादों को दर किनार कर प्रेस क्लब पहुंचे मुख्यमंत्री अन्ततोगत्वा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने भी पूर्ववर्ती सरकार के बड़े नेताओं का अनुसरण करते हुये ‘प्रेस क्लब देहरादून‘ द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भागीदारी कर यह संदेश देने की कोशिश की कि राजनीति के खेल मे विवादों को सुलझाने के स्थान पर उन्हें हवा दिया जाना ज्यादा श्रेष्ठकर है। जी हां उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में पत्रकारों के एकमात्र मान्य संगठन प्रेस क्लब पर पिछले कई वर्षो से विवादों की छाया चल रही है और मजे की बात यह है कि राजनीति के धुरन्धर खिलड़ियों की छत्रछाया में पल रहे पत्रकारों के दो गुटों के बीच के इस खेल में जमीन से जुड़े पत्रकारों को कुछ हासिल होने वाला नही है। हांलाकि प्रदेश की राजधानी देहरादून में छोटे-बड़े समाचार पत्रों से मान्यता प्राप्त पत्रकारों की कुल संख्या कई सैकड़ा है और राजधानी की जनसंख्या व अपराध को लेकर लगातार बढ़ रहे आकड़ों को देखते हुऐ इसे बहुत ज्यादा भी नही कहा जा सकता लेकिन मजे की बात यह है कि प्रदेश के मुखिया त्रिवेन्द्र सिंह रावत हिन्दी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर आयोजित जिस कार्यक्रम में शामिल हुऐ उसके आयोजकों द्वारा सरकारी दस्तावेजों में अपनी सदस्य संख्या आधे सैकड़े से भी कम दर्शायी गयी है और उक्त प्रेस क्लब की कार्यकारिणी को लेकर माननीय उच्च न्यायालय में भी विवाद चल रहा है। ऐसा नहीं है कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत इन तमाम सनसनीखेज जानकारियों से अनभिज्ञ है या फिर आयोजक मण्डल ने आधी-अधूरी जानकारी देकर उन्हें गुमराह किया है बल्कि हकीकत यह है कि इस कार्यक्रम के निर्धारण के बाद राजधानी के पत्रकारों के दूसरे बड़े गुट(जिसमें से कुछ लोगों ने प्रेस क्लब देहरादून की वर्तमान कार्यकारणी व चुनाव प्रक्रियाओं को लेकर न्यायालय में वाद दाखिल किया है।) ने इस पूरे मुद्दे पर मुख्यमंत्री समेत अन्य तमाम विशेष अतिथियों को अब तक के तमाम घटनाक्रमों का सिलसिलेवार ब्योरा पहुंचाने की पूरी कोशिश की है जिसके परिणाम स्वरूप मंच पर आपेक्षित कुछ प्रतिष्ठित चेहरे ऐन मौके पर मंच से नादारद दिखे लेकिन इस सबके बावजूद मुख्यमंत्री का इस विवादित कार्यक्रम में शामिल होना यह दर्शाताा है कि प्रदेश के मुखिया के रूप में त्रिवेन्द्र सिंह रावत भी कतिपय बड़े समाचार पत्रों के मालिकों के दबाव में काम कर रहे इस तथाकथित पत्रकारों के जेबी संगठन के हिमायती के रूप में आगे आना चाहते है। हमने देखा कि पूर्ववर्ती सरकार ने भी सत्ता के मद में अपनी आंखे बंद कर न सिर्फ कुछ अवांछित तत्वों को नियमों के खिलाफ व गलत तरीके से सदस्यों की संख्या प्रस्तुत करते हुऐ चुनाव कराने में मदद की बल्कि सत्य का आधार लेकर चल रहे जुझारू पत्रकारों को प्रेस क्लब के बाहर ही पुलिस की मदद से लाठी-डंडों से पीटा गया लेकिन सरकारी तंत्र सबकुछ जानकर भी अनजान बना रहा। नतीजतन ठीक चुनावी मौसम में स्थानीय समाचार पत्रों व पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से फूटी सरकार विरोधी चिंगरी ने हरीश रावत सरकार के बेहतर कामकाज के बावजूद भी प्रदेश की जनता को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि गुण्डागर्दी व भय के शासन के खिलाफ बदलाव का नारा लगाया जाना जरूरी है। वर्तमान में सत्ता पर काबिज त्रिवेन्द्र सिंह रावत एक नौसिखियें राजनेता की तरह व्यवहार कर रहे है और उनके तथाकथित सलाहकारों द्वारा उन्हें प्रेस क्लब के संदर्भ में दी गयी मौजूदा राय उनपर भारी पड़ सकती है क्योंकि यह संघर्ष सिर्फ और सिर्फ पत्रकारों के दो समूहों या विचारधाराओं का नही है बल्कि इस संघर्ष में वह तमाम लोग प्रेस क्लब की वर्तमान कार्यकारणी के खिलाफ खड़े है जिन्हें न सिर्फ इस प्रेस क्लब का आधार स्तम्भ कहा जा सकता है बल्कि अपनी खबरों के माध्यम से सच्चाई की मशाल जलाये रखने के लिऐ जिन लोगों ने अपना पूरा जीवन होम कर दिया हैं।