पदम्श्री के राष्ट्रीय सम्मान से नवाजी गयी बंसती देवी बिष्ट।
उत्तराखंड की सुप्रसिद्ध लोकगायिका बंसती देवी बिष्ट को पदम्श्री से सम्मानित किया जाना वाकई में सुखद है और इसे न सिर्फ बंसती देवी बिष्ट का बल्कि उत्तराखंड की लोक परम्पराओं व लोककला का सम्मान कहा जा सकता है। उत्तराखंड की सुप्रसिद्ध गायन विधा जागर में पारंगत इस महिला लोककलाकार ने इस उपलब्धि को हासिल करने के लिऐ कठोर जतन किये है और इनकी शिक्षा, पारिवारिक पृष्ठभूमि व जागर गायन परम्परा को लेकर पर्वतीय समाज की मानसिकता को ध्यान में रखते हुये इनके परिवार के त्याग एवं संघर्ष को नही नकारा जा सकता लेकिन बंसती देवी बिष्ट को मिली इस उपलब्धि के लिऐ उत्तराखंड के संस्कृति विभाग को श्रेय दिया जाना भी उचित होगा क्योंकि बंसती देवी बिष्ट के मंचीय जीवन की शुरूवात से वर्तमान तक उत्तराखंड सरकार के आधीन आने वाले इस विभाग ने उन्हें न सिर्फ विभिन्न छोटे-बड़े मंचों पर अपनी प्रतिभा को प्रस्तुत करने का अवसर दिया बल्कि पिछले कई वर्षों से उनके नाम को इस पुरष्कार के लिऐ आगे बढ़ाने में विभाग के सहयोग व प्रयासों से इनकार नही किया जा सकता। ‘जागर‘ उत्तराखंड के दोनो ही मण्डलों में लोक गायन की एक परिपक्व लोक कला है तथा इसके गायन पर देवताओं के अवतरित होने व आर्शीवाद देने की मान्यता के चलते स्थानीय जनता की बीच इसके गायकों को देवतुल्य सम्मान दिये जाने की परम्परा पहाड़ो पर पहले से ही रही है लेकिन उत्तराखंड आंदोलन के दौर मंे इस कला के पारंगत व स्थानीय लोक कलाओं के जानकार नरेन्द्र सिंह नेगी, स्व. गिरीश तिवारी (गिर्दा) व हीरा सिंह राणा जैसे तमाम लोक गायकों द्वारा जनाक्रोश को स्वर देने के लिऐ लोक गायन की इस परम्परा पर किये गये प्रयोगों ने गायन की इस विधा को न सिर्फ एक पहचान दी बल्कि स्थानीय स्तर पर लोक गायन करने वाले बंसती देवी बिष्ट जैसे अनेक लोकगायक इसी दौर में एक बेहतर मंच पा सके। इसलिऐं वर्तमान परिपेक्ष्य में यह कहना अनुचित नही होगा कि पदम् श्री की उपाधि से सम्मानित बंसती देवी बिष्ट की जिम्मेदारी इस सम्मान को पाने के बाद अब और बढ़ गयी है तथा अपनी इस प्रतिभा को और निखारने व इसकी लोकप्रियता को जन-जन तक पहुँचाने के साथ ही साथ उनका यह महती दायित्व है कि जिस उत्तराखंड आंदोलन ने, उन्हें अपनी प्रतिभा को मंच पर प्रदर्शन के योग्य बनाया, उस उत्तराखंड आंदोलन की दूर दृष्टा जनता के सपनो को पूरा करने के लिऐ वह अपनी प्रतिभा, योग्यता एवं वर्तमान में मिले इस राष्ट्रीय सम्मान को बतौर हथियार इस्तेमाल करें। इस तथ्य को नकारा नही जा सकता कि उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद पहाड़ो पर बड़ा पलायन इस पर्वतीय प्रदेश की प्रमुख समस्या है लेकिन इन पिछले सोलह वर्षों में राज्य में गठित होने वाली तथाकथित जनहितकारी सरकारों ने इस समस्या के समाधान को लेकर किसी भी तरह के प्रयास नही किये है और न ही पहाड़ की मूलभूत समस्याओं के समाधान की ओर कोई कदम उठाया गया है। बंसती देवी बिष्ट के समकक्ष तमाम लोक गायक अगर चाहे तो अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करते हुये अपने इस परम्परागत् ज्ञान व प्रसिद्धि के बल पर, पहाड़ से पलायन कर दूर देेश या विदेशों में बसे तमाम उत्तराखंड के मूल निवासियों को अपने कुल देवता व अन्य स्थानीय मन्दिरों की ओर रूख करने को प्रेरित कर सकते है। आप यकीन जानिये कि अपनी मातृ भूमि से विमुख हो अपने-अपने काम धंधों में फंसे पहाड़ के यह कर्मवीर जब अपने कुल देवता के पूजन या फिर अवकाश के कुछ क्षणों को बिताने के लिऐ पहाड़ की ओर रूख करना शुरू कर देंगें तो कालान्तर में इस पर्वतीय प्रदेश के सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों के हालात खुद-बु-खुद ही बदलते नजर आयेंगे और एक लोककलाकार के रूप में बंसती देवी बिष्ट जैसे तमाम बड़े नामों की यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी लेकिन अफसोसजनक है कि आधुनिक होते भारत में कलाकार की लोकप्रियता व उसके बड़े नाम का अंदाजा उसके द्वारा प्रति प्रस्तुति लिये जाने वाले शुल्क से लगाये जाने के कारण हमारे अपने लोग ही अपनी इस जिम्मेदारी से विमुख होते दिखाई दे रहे है और उत्तराखंड आंदोलन के दौर में जोर-शोर से लगाये जाने वाले ‘आधी रोटी खाकर भी उत्तराखंड राज्य बनाने‘ के नारे अब बेमतलब साबित हो रहे है। खैर इन तमाम विषयों व समस्याओे पर तो फिर कभी चर्चा होती रहेगी। वर्तमान में विषय बंसती देवी बिष्ट को भारत सरकार द्वारा पदम् श्री से सम्मानित किये जाने का है और उपलब्धि के लिए उन्हें एक बार फिर बधाई देते हुये हमारा मन हर्ष से भावविभोर है।