चुनावी एजेंडे का मुख्य विषय होने के बावजूद भ्रष्टाचार व महंगाई जैसे मुद्दों पर साफ परिलक्षित हो रही है सरकार की निष्क्रियता।
कुछ ही समय पूर्व जब राजनैतिक भ्रष्टाचार को लेकर त्वरित अदालतें गठित किए जाने की बात चली थी तो लगभग सारे देश ने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया था और इस परिपेक्ष्य में राजनैतिक दलों द्वारा चुनावी चंदा लिए जाने व अन्य आर्थिक लेन-देन को भी जनता की निगाहबानी के लिए रखे जाने की मांग देश के लगभग हर कोने से उठी थी लेकिन इधर टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर आये एक न्यायालय के फैसले ने जनता को निराश किया है और कई सामाजिक संगठनों समेत की जनता के एक बड़े हिस्से का यह मानना है कि चुनावी मौसम में एक दूसरे के बिल्कुल खिलाफ दिखने वाले देश के तमाम राजनैतिक दल व विचारधाराएं अपने निजी हितों से जुड़े तमाम मुद्दों पर एकमत हैं। हालांकि टू जी घोटाले को लेकर न्यायालय का फैसला अंतिम नहीं है और इस विषय पर उच्च स्तरीय अपील की भी पूरी संभावनाएं हैं लेकिन इस तरह के विषय सामने आने के बाद देश की जनता का विश्वास लोकतांत्रिक सरकारों को चलाने वाली राजनैतिक ताकतों व व्यक्तित्वों से हटता है और जनता कानून को खुद पर एक बोझ समझने लगती है। यह ठीक है कि न्यायालय ने अपने विवेक व सबूतों या गवाहों की बिना पर अपना फैसला दिया और सिर्फ मनगणन्त किस्सों या कमजोर सबूतों के आधार पर न्यायिक फैसले सुनाये भी नहीं जा सकते लेकिन जब सबूत एकत्र करने का जिम्मा एक सरकारी एजेंसी पर हो और सरकार में बैठे लोग इस तथ्य से पूरी तरह सहमत हो कि पूरे मामले में बड़ा भ्रष्टाचार हुआ है तो सरकार या सरकारी संरक्षण में काम करने वाली किसी भी एजेंसी द्वारा कमजोर पैरवी करने की बात एकाएक गले नहीं उतरती। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि केन्द्रीय सत्ता पर स्पष्ट बहुमत के साथ काबिज भाजपा भ्रष्टाचार व तेजी से बढ़ती महंगाई को ही बड़ा मुद्दा बताकर चुनाव मैदान में उतरी थी और भाजपा के स्टार प्रचारक के रूप में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने लगभग सभी मंचों से इन दोनों ही मुद्दों पर तत्कालीन सत्तापक्ष अर्थात् यूपीए सरकार पर हमला बोला था लेकिन अफसोसजनक पहलू है कि सत्ता पर कब्जेदारी के इन चार वर्षों में भाजपा के किसी भी नेता या सरकारी पक्ष ने अपने आरोपों को सत्य साबित करने का प्रयास ही नहीं किया और न ही तमाम सरकारी एजेंसियां इन दोनों ही विषयों पर कार्य करने के लिए कृतसंकल्प दिखी। हालांकि केन्द्रीय सत्ता पर काबिज नरेन्द्र मोदी एक लंबे समय तक भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर रखने में सफल रहे हैं और लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत हासिल करने के बाद भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व उनके सहयोगियों द्वारा पूर्ववर्ती सरकारों व सत्ता के शीर्ष पर काबिज रहे राजनैतिक चेहरों पर विभिन्न आरोप लगाने के मामले में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी लेकिन अगर भ्रष्टाचार से जुड़े प्रकरणों व दोषी को सजा दिलाये जाने वाले मामलों के लिहाज से गौर करें तो यह सरकार पूरी तरह असफल दिखाई देती है। यह ठीक है कि वर्तमान सरकार के इन चार सालों के कार्यकाल में राजनैतिक भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मामला सामने नहीं आया है और न ही मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार से जुड़े विषयों पर सरकार पर हावी दिखता है लेकिन इसकी बहुत बड़ी वजह मोदी सरकार द्वारा किया गया सत्ता का केन्द्रीयकरण व कई माध्यमों से मीडिया पर लगाया गया अंकुश दिखता है और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि सत्ता का केन्द्रीयकरण या फिर मीडिया पर लगाया गया अंकुश जैसे तमाम तरीके अंततोगत्वा लोकतंत्र के लिए घातक ही हैं। अगर मोदी सरकार की कार्यशैली पर गौर करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उसका एकमात्र राजनैतिक ध्येय केन्द्र की सत्ता पर काबिज रहना और येन-केन-प्रकारेण अपनी राजनैतिक विचारधारा को बढ़ाते हुए अन्य राज्यों की सत्ता हासिल करना मात्र ही है अगर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तहत कार्य करने वाले तमाम राजनैतिक दलों की कार्यशैली पर गौर करें तो एक हद तक इसे गलत भी नहीं कहा जा सकता लेकिन सत्तापक्ष के नेताओं व सत्ता पर काबिज विचारधारा की अपनी सत्ता को बचाए रखने या फिर साम्राज्य को आगे बढ़ाने के अलावा भी अन्य कई जिम्मेदारियां हैं और मौजूदा सरकार इन जिम्मेदारियों को उठाने में पूरी तरह असफल दिखाई देती है या फिर यह भी कह सकते हैं कि सत्तापक्ष ने अपने चुनावी वादे व घोषणाएं चुनाव जीतने के तत्काल बाद ही ठंडे बस्ते में डाल दी है। हालांकि सरकार का मानना है कि सत्ता पर काबिज होने के बाद ऐतिहासिक नोटबंदी को लागू कर उसने राजनैतिक भ्रष्टाचार के अलावा आतंकवाद, कालाधन या फिर चोर-बाजारी से जुड़ी तमाम धंधेबाजियों पर रोक लगाने की दिशा में एक पहल की है और पूरे देश में एक साथ जीएसटी कानून लागू करने के बाद निचले स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार व हेराफेरी के धंधों पर पूरी तरह रोक लगना संभावित है लेकिन अगर आंकड़ों के लिहाज से गौर करें तो कुछ और ही कहानी सामने आती है तथा पिछले तमाम चुनावों के दौरान सत्तापक्ष द्वारा अंधाधुंध तरीके से खर्च किया गया पैसा यह इशारे करता है कि सरकार भ्रष्टाचार को रोकने से पहलू से पूरी तरह असफल है। यह ठीक है कि हालिया दौर में हुए गुजरात व हिमांचल चुनावों में भाजपा की जीत तथा इन पिछले चार वर्षों में उन्नीस राज्यों में लहराया भाजपा का परचम यह इशारे करता है कि जनसामान्य का एक बड़ा हिस्सा देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए भाजपा के राजनैतिक एजेंडे को तेजी के साथ स्वीकार कर रहा है लेकिन अगर पिछले तमाम चुनावों में जनसभाओं के दौरान सत्ता के शीर्ष पदों पर काबिज राजनेताओं के चुनावी उद्बोधनों व घोषणाओं पर गौर करें तो हम पाते हैं कि अपनी सत्ता का परचम देश के ज्यादा से ज्यादा हिस्से में लहराने के लिए भाजपा न सिर्फ अपने एजेंडे से हटी है बल्कि उसने देश की जनता को दिग्भ्रमित करने के प्रयास करते हुए चुनावों को विकास के मूल एजेंडे से भटकाकर अन्य विषयों पर केंद्रित करने की कोशिश भी की है। हो सकता है कि भाजपा के नीति निर्धारकों को यह तरीका जायज लगता हो और उन्हें ऐसा प्रतीत होता हो कि एक बार सम्पूर्ण राष्ट्र की कमान अपने हाथों में लेने के बाद वह आसानी के साथ उन विषयों पर विचार कर पाएंगे जो व्यापक जनहित के लिए जरूरी होने के साथ ही साथ मौजूदा सामाजिक परिवेश के ज्वलंत प्रश्न भी हैं लेकिन यहां पर सवाल यह उठता है कि क्या भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में एक साथ किसी बड़े राजनैतिक एजेंडे को लागू किया जाना इतना आसान है और अगर ऐसा है भी तो सरकार धीरे-धीरे कर उन तमाम एजेंसियों या आयोगों की कार्यशैली में सुधार लाने की कोशिश करते हुए पारदर्शिता लाने का प्रयास क्यों नहीं करती जो सीधे तौर पर जनता व चुनाव को प्रभावित नहीं करते। वर्तमान में भारत के चुनाव आयोग व सीबीआई की कार्यशैली पर तमाम तरह के सवाल उठ रहे हैं और यह दोनों ही नहीं बल्कि इस तरह की तमाम संस्थाएं जनता के एक हिस्से की नाराजी की चिंता छोड़कर कुछ इस तरह कार्य कर रही हैं कि मानो जनापेक्षाओं का सम्मान करना उनका विषय ही न हो। यह ठीक है कि इन तमाम आयोगों, एजेंसियों या अन्य संस्थानों के अध्यक्ष व अन्य तमाम पदाधिकारी सीधे जनता के बीच से नहीं चुने जाते और न ही यह तमाम संस्थाएं सीधे तौर पर जनता के प्रति जवाबदेह हैं लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नहीं है कि इन्हें मनमानी करने या फिर सत्तापक्ष के पिछलग्गू बनने की छूट दी जाय और इन संस्थानों के प्रति जवाबदेह अधिकारी एक राजनैतिक दल के कार्यकर्ता की तरह काम करने लगे। वर्तमान में हो कुछ ऐसा ही रहा है और अगर वर्तमान फैसले या अन्य तमाम परिपेक्ष्यों में विचार करें तो ऐसा लगता है कि मानो इन तमाम संस्थानों के उच्च पदों पर बैठे अधिकारी अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए यस मैन बनकर रह गए हैं। यह माना कि टू जी घोटाले में आरोपियों के बरी होने पर सत्तापक्ष को सीधे तौर पर कोई लाभ नहीं दिखता और न ही कहीं ऐसे संकेत मिले हैं कि किसी उच्च पदस्थ जनप्रतिनिधि या सत्तापक्ष के नेता ने जिम्मेदार अधिकारियों से इस संदर्भ में कोई विचार विमर्श ही किया हो लेकिन यह भारतीय राजनीति है और यहां सरकार के हर फैसले के पीछे कोई न कोई राजनैतिक निहितार्थ अवश्य छिपा होता है। इसलिए टू जी घोटाले को लेकर न्यायालय द्वारा लिया गया फैसला सामयिक व तथ्यों या सबूतों पर आधारित होने के बावजूद शक के दायरे में है।