उत्तराखंड जैसे राज्यों में देखने को मिल सकता है एक अलग तरह का नशा विरोधी आन्दोलन
राष्ट्रीय राजमार्गो से शराब की दुकानें हटाने के न्यायालयी आदेशों के बाद उत्तराखंड समेत देश के तमाम हिस्सो ंमें अफरातफरी का माहौल है और शराब की धंधेबाजी में लगे लोग अपने नये ठौर-ठिकाने ढ़ूँढ़ने में व्यस्त है। हांलाकि बार व सेना का निर्धारित कोटा आंबटित करने वाली आर्मी केंटीन को लेकर न्यायालय के नियम स्पष्ट नही है लेकिन धार्मिक आस्था के केन्द्रों व स्कूलों से इनकी एक निश्चित दूरी बनाये रखने की कवायद शुरू हो गई है। हम यह तो नही कहते कि शराब की दुकानों पर न्यायालय के वर्तमान रूख के बाद जनसामान्य के बीच शराब की खपत या फिर शराब के सेवन के उपरांत होने वाले अपराधों मंे कुछ कमी आयेगी और सरकार को इससे मिलने वाले राजस्व के मामले में घाटा उठाना पड़ेगा लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि सरकारों द्वारा इस नियम को सख्ताई से लागू किये जाने के बाद अपने धंधे को चलाये रखने के लिऐ उचित जगह की तलाश कर रहे शराब के कारोबारियों के कदम रिहाईशी इलाकों की ओर बढ़ेंगे और शराब की आसान उपलब्धता के नाम पर स्थानीय पुलिस की मिली भगत से इसकी होमडिलिवरी या फिर अवैधानिक ब्रिकी को ही बढ़ावा मिलेगा। उपरोक्त के अलावा राष्ट्रीय राजमार्ग से आबादी वाले क्षेत्रों में स्थानातंरित होने वाली शराब की दुकानें न सिर्फ स्थानीय स्तर पर अराजकता पैदा करेंगी बल्कि आम आदमी, विशेषकर युवा मन को शराब की खरीद व सेवन के लिऐ ललचायेगी भी। इसी सोच के साथ उत्तराखंड समेत कई राज्यों में आबादी वाले क्षेत्रों मे खुलने वाली इन संभावित दुकानों का विरोध होना शुरू हो गया है और राज्यों की जनता विशेषकर महिलाएं न्यायालय के निर्देश पर सामने आने वाले इस सरकारी फैसले को विरोध करने का मन बना रही है। हो सकता है शराब की इन संभावित व नये क्षेत्रों में खुलने वाली दुकानों का यह विरोध कालान्तर में ‘नशा मुक्ति आंदोलन‘ में तब्दील हो जाय और जनमत को काबू में रखने के लिऐ विभिन्न राज्यों की सरकारों को अपने शासन क्षेत्रों में शराब बंदी लागू करनी पड़े लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार का यह फैसला कानूनन रूप से जायज मानी जाने वाली शराब की बिक्री बंद कर अवैध शराब की बिक्री व कच्ची शराब के निर्माण को रोकने के मामले में भी कारमद होगा। सरकारी तंत्र और शराब कारोबारियों के मधुर संबंध व शराब के धंधे की मोटी कमाई देखते हुऐ यह सबकुछ इतना आसान नही लगता लेकिन अगर एकबारगी यह मान भी लिया जाय कि राष्ट्रीय राजमार्गो से सरकारी नियन्त्रण वाली शराब की दुकाने पूर्णरूप से हटा दिये जाने के बाद व्यवस्था में कुछ सुधार की गुंजाइश दिखती भी है तो सरकार ने यह स्पष्ट करना चाहिऐं कि उसका अगला कदम क्या होगा। यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि सरकारी ठेके होने के बाद राजस्व के नुकसान के नाम पर शराब की दुकाने खुलवाने के लिऐ ऐड़ी-चोटी का जोर लगा देने वाला स्थानीय प्रशासन किसी भी कीमत पर यह नही चाहेगा कि इन दुकानों में से किसी की निलामी न हो या फिर इनकी बिक्री में कमी आये लेकिन इन कोशिशों में जनता और सरकार का सीधे टकराव होना तय है और उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में शराब के सेवन व बिक्री को स्थानीय स्तर पर आबादी के लिये एक अभिशाप मानने वाली जुझारू आन्दोलनकारियों की टोलियां इस मुद्दे पर बड़े आन्दोलन करने का मन बना रही है। हालातों के मद्देनजर उत्तराखंड में नवगठित भाजपा सरकार को मैदान में आते ही एक बड़ा आंदोलन झेलना पड़ सकता है और यह तय है कि अगर ऐसा होता है तो इससे न सिर्फ स्थानीय स्तर पर सरकार को आलोचना का शिकार होना पड़ सकता है बल्कि नमो-नमो के मूलमंत्र से अपनी राजनैतिक बढ़त बनाकर आगे चल रहे भाजपपाईयों की मुश्किलें भी बढ़ सकती हैैं क्योंकि उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद पलायन समेत अन्य तमाम छोटी-बड़ी समस्याओं के विकराल रूप में सामने आने के लिऐ राज्य की तथाकथित रूप से गठित जनहितकारी सरकारो को दोषी मानने वाली स्थानीय जनता राज्य में होने वाले शराब के उनमुक्त व्यापार को भी लोकहित का बड़ा दुश्मन मानती है लेकिन अफसोसजनक है कि राज्य की राजनीति में शराब के कारोबारियों का हस्तक्षेप तेजी से बढ़ता ही जा रहा है और कोई भी राजनैतिक दल दावे से यह कहने की स्थिति में नही है कि वह राज्य में लगातार बढ़ रहे शराब के कारोबार पर प्रभावी रोक लगाकर आम आदमी को राहत देने की नीतियों पर विचार कर रहा है। लिहाजा राष्ट्रीय राजमार्गो से शराब की दुकानें हटाये जाने का मुद्दा व्यापक जनहित को कितना प्रभावित करेगा, यह तो पता नही लेकिन अगर शहरी व कस्बाई क्षेत्रों में इन दुकानों को खोले जाने के खिलाफ कोई आंदोलन भड़कता है तो उत्तराखंड की नई-नवली सरकार की मुसीबतें बढ़ सकती है। इसलिऐं सरकार को चाहिऐं कि मार्च के अन्तिम सप्ताह में शराब की दुकानों के लिऐ टेंडर आंबटित करने से पहले ही वह इस गंभीर समस्या पर विचार करें और शराब को राजस्व वसूली या फिर सिर्फ कमाई का जरिया मानने की जगह इससे जुड़ी समस्याओं व इसके कारण समाज में पैदा हो रही विभेद व अराजकता की स्थितियों पर भी विचार करते हुये नीतिपूर्ण फैसले लिये जाये। हम यह नही कहते कि नई सरकार ने उत्तराखंड में पूर्ण शराबबंदी लागू करने जैसे ठोस फैसले तुरन्त लागू करने चाहिऐ लेकिन मौजूदा हालातों में सरकार के पास एक मौका है कि वह शराब की दुकानो की संख्या मंे कमी लाकर अपनी जनहितकारी नीतियांे का परिचय दे सकती है और अगर ऐसा होता है तो इसे राज्य निर्माण के बाद स्थानीय जनता के हितों की सुरक्षा के मद्देनजर उठाया जाने वाला एक ऐसा बड़ा कदम माना जायेगा जो कि इस पर्वतीय प्रदेश में भाजपा को ज्यादा मजबूत जनाधार देने में मदद करेगा।
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