काठमांडू में बैठने वाली सरकार के लिए हो सकती है दिल्ली दूर और बीजिंग नजदीक
नेपाल में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी व्यवस्था के कायम होने की उम्मीद एक अच्छी खबर है क्योंकि दंगों, उग्रवाद व अराजकता से आजिज आ चुके नेपाली समाज को इन चुनाव के बाद एक सुखद व शांतिपूर्ण जीवन मिलने की आशा की जा सकती है लेकिन सवाल यह है कि नेपाल के सबसे पुराने मित्र व नजदीकी पड़ोसी भारत पर इन चुनावी नतीजों का क्या प्रभाव पड़ेगा। जैसा कि रूझान इशारा कर रहे हैं नेपाल में इस बार वामपंथी दलों की पूर्ण बहुमत सरकार बनने जा रही है और कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) तथा कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) एक साथ मिलकर सरकार बनाने के लगभग करीब हैं। हालातों के मद्देनजर यह कहना मुनासिब है कि इन हालातों में नेपाल की सत्ता पर काबिज होने वाली वामपंथी सरकार के लिए दिल्ली दूर और बीजिंग नजदीक होगा तथा एक लंबे सत्ता संघर्ष के बाद नेपाली लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के शीर्ष पदों पर काबिज होकर दोनों ही वामपंथी नेता (केपी शर्मा ओली व पुष्पकमल दहल प्रचण्ड) भारत के खिलाफ अपने जगजाहिर विरोध का और भी मुखरता के साथ प्रदर्शन करेंगे जबकि चीन, नेपाल में भारत की कीमत पर अपने राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के लिए कूटनीति और पूंजी की दोधारी तलवार के इस्तेमाल को तेज करेगा। जहां तक भारत का प्रश्न है तो यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि नेपाल के साथ भारत के हमेशा से न सिर्फ मधुर संबंध रहे हैं बल्कि नेपाल में आए संकट की हर घड़ी में भारत ही उसका सच्चा साथी साबित हुआ है लेकिन इधर हालातों में तेजी से बदलाव हुआ है और नेपाल में बढ़े माओवादी संघर्ष के बाद भारत विरोधी कुछ गुटों द्वारा स्थानीय स्तर पर यह प्रचारित किया जाता रहा है कि भारत की सरकारें नेपाल का उपयोग अपने उपराज्य की तर्ज पर करना चाहती है जबकि भारत और नेपाल की खुली सीमाओं का फायदा उठाकर अधिकांश साधन सम्पन्न भारतीय न सिर्फ नेपाल के प्राकृतिक व आर्थिक संसाधनों पर काबिज हो रहे हैं बल्कि देश की राजनैतिक गतिविधियों में बेवजह का हस्तक्षेप कर वह इस मुल्क के राजकाज को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं। हालांकि इन अफवाहों में कोई दम नहीं है और न ही भारत सरकार द्वारा नेपाल के आंतरिक मामलों में बेवजह का हस्तक्षेप किया जाता है लेकिन इस सबके बावजूद नेपाल के लगभग हर आम चुनाव में इस तरह के भारत विरोधी पोस्टर या नारे दिखना अब आम बात है और भारत सरकार द्वारा नेपाल में आए भूकम्प के दौरान की गयी ‘सीमा से अधिक मदद’ के बावजूद एक आम नेपाली भी भारत की वर्तमान सरकार से खुश नहीं है। यह ठीक है कि नेपाल एक बहुसंख्यक हिन्दू राष्ट्र है और यहां के तमाम निवासी भारत के विभिन्न तीर्थस्थलों व मठ-मंदिरों में अपना विश्वास रखते हैं तथा मौका मिलते ही गंगा स्नान अथवा अन्य किसी धार्मिक कार्य के लिए भारत आना उनके लिए सौभाग्य का विषय होता है। यह भी ठीक है कि भारत की सत्ता पर काबिज हिन्दूवादी मानसिकता से ओत-प्रोत मानी जाने वाली भाजपा के राजनैतिक सहयोगी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व विश्व हिन्दू परिषद के अनेक सहयोगी संगठन व संत महात्मा वर्तमान में भी नेपाल में सक्रिय हैं और नेपाली समाज के एक बड़े हिस्से में इनका प्रभाव भी स्पष्ट देखा जा सकता है लेकिन नेपाल के लगातार बढ़ रहे चीन प्रेम को देखते हुए यह समझ पाना मुश्किल है आगे आने वाले वर्षों में भारत और नेपाल के बीच संबंधों को लेकर खटास किस हद तक बढ़ेगी। नेपाल की धरती पर वामपंथी कब्जेदारी के बाद यह तो तय है कि भविष्य में नेपाल की धरती पर चीन की राजनैतिक व आर्थिक गतिविधियों व व्यूह रचना कई तरीकों से सामने आएगी और इसका सबसे ज्यादा असर नेपाल के उन सीमावर्ती भारतीय इलाकों पर पड़ेगा जो न सिर्फ नेपाल से सीधे तौर पर जुड़े हैं बल्कि पारिवारिक रिश्तेदारियों व सामाजिक बंधनों के चलते जिन क्षेत्रों के निवासियों की लगातार आवाजाही नेपाल में लगी रहती है। नेपाल से लगे उत्तराखंड के तमाम सीमावर्ती हिस्सों के लिए यह हालात और ज्यादा दुखदायी हो सकते हैं क्योंकि पलायन की मार से वीरान इन दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में न सिर्फ भारत विरोधी गतिविधियों को पनाह मिलने का खतरा है बल्कि व्यवस्थाओं की मार झेल रहे स्थानीय निवासियों के आक्रोश को मिला किसी भी तरह का माओवादी या नक्सलवादी सहयोग इस शांत इलाके के माहौल व समीकरण दोनों ही बदलकर रख सकता है। इसलिए भारत की राजसत्ता को चाहिए कि वह तुरंत अपनी रणनीतियों में बदलाव करे और नेपाल सीमा से लगे भारतीय क्षेत्रों व दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में व्यवस्था को चाकचैबंद करने के लिए कदम उठाये। उपरोक्त के अलावा भारत सरकार को अपनी विदेश नीति पर पुर्नविचार करते हुए उन तौर-तरीकों पर फिर गौर फरमाना चाहिए जिनके चलते उसके पड़ोसी मुल्क लगातार उसके सम्पर्कों से दूर हो रहे हैं। हम देख रहे हैं कि नीतिगत मामलों में सरकारी तौर पर हुए कुछ बदलावों के चलते इन चार-पांच वर्षों में नेपाल के तमाम राजनैतिक दल न सिर्फ चीन के ज्यादा नजदीक आए हैं बल्कि कुछ व्यवसायिक मामलों में भी नेपाल की भारत पर निर्भरता कम हुई है अर्थात् चीन हर दिशा से बांहें पसारकर नेपाल को अपने आगोश में लेने की कोशिश कर रहा है और अब नेपाल में भी चीन के समान विचारधारा की सरकार बन जाने के बाद चीन के लिए अपनी योजनाओं का विस्तारीकरण बहुत आसान हो गया है। हमने देखा है कि किसी भी देश की पंूजी जब दूसरे मुल्क के विकास कार्यों व अन्य योजनाओं को प्रभावित करती है तो वह उन देशों की राजनीति पर भी आवश्यक रूप से प्रभाव डालती है और नेपाल के मामले में हम देख रहे हैं कि चीन ने यहां सिर्फ इस साल आठ अरब डाॅलर से भी अधिक का निवेश किया है जबकि पिछले पांच वर्षों में नेपाल में सबसे ज्यादा निवेश की घोषणा भी चीन ने ही की है। इसलिए यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि चीन, नेपाल के जरिए न सिर्फ अपने सामरिक हित साधना चाहता है बल्कि नेपाल की जनता को सुलभ यातायात का भरोसा देकर वह काठमांडू पर बीजिंग की पकड़ को मजबूत करना चाहता है। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि भारत व नेपाल की विस्तृत सीमाओं पर आवाजाही रोकना इतना आसान नहीं है और इस खुली छूट का फायदा उठाने के लिए अपराधी व अलगाववादी अक्सर ही भारत-नेपाल की सीमाओं पर आते-जाते रहते हैं। ठीक इसी प्रकार समान भौगोलिक परिस्थितियों के चलते चीन, तिब्बत व नेपाल के नागरिकों के बीच भी फर्क किया जाना बहुत मुश्किल है और भारत में लाखों की तादाद में रहने व काम करने वाले नेपाल निवासियों के चलते इस सीमापार की आवाजाही को रोका जाना भी न्यायोचित नहीं है लेकिन अब इधर बदली हुई परिस्थितियों में जबकि नेपाल पूरी तरह चीन की गोद में जा बैठा प्रतीत हो रहा है और भारतीय राजनेताओं के करीबी माने जाने वाले मधेसियों के विभिन्न संगठन भी सत्ता की रौ में चीन की भाषा बोलते प्रतीत हो रहे हैं तो भारत सरकार को चाहिए कि वह अपनी सीमाओं की सुरक्षा व आगामी समय में साफ दिख रहे माओवाद एवं आतंकवाद के खतरे से बचाव की पुख्ता व्यवस्था बनाकर रखें। कड़े अंतर्राष्ट्रीय कानूनों व भारत के बड़े बाजार को देखते हुए चीन की सेना से यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि वह बाजरिया नेपाल, भारत की सत्ता पर सीधे तौर से हमलावर होने की कोशिश करेगी और न ही अब वह समय है कि एक परमाणु शक्ति सम्पन्न देश सीधे तौर पर दूसरे परमाणु शक्ति सम्पन्न देश पर हमला कर दे लेकिन भारत सरकार को परेशान करने या फिर अन्य आर्थिक कारणों से यहां के सरकारी तंत्र के विरूद्ध किसी छद्म युद्ध या आतंकी साजिशों में विदेशी मिलीभगत की संभावनाओं से इंकार भी नहीं किया जा सकता। इसलिए भारत सरकार को चाहिए कि वह नेपाल में आए इस हालिया बदलाव पर अपनी नजर बनाए रखे और सामयिक परिस्थितियों के आधार पर अपना निर्णय ले।