सच को खामोश करने के लिए पुलिसिया डंडे का इस्तेमाल हुआ शुरू, आपातकाल से भी बुरे हालात।
यह तो वक्त ही बतायेगा कि छत्तीसगढ़ के पीडब्ल्यूडी मंत्री राजेश मूणत को तथाकथित रूप से ब्लैकमेल करने के संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा पर लगे आरोप कितने सही अथवा गलत हैं लेकिन इस तरह के मामलों में भाजपा शासित राज्यों की सरकार व केन्द्र सरकार की मुस्तैदी की दाद देनी पड़ेगी कि भाजपा के शासनकाल में अलर्ट पुलिस व्यवस्था को एक अकेली महिला हनीप्रीत को ढूंढने में भले ही बारह दिन लग जाय लेकिन एक तेज-तर्रार पत्रकार अथवा तथाकथित रूप से उग्रवादी व राष्ट्रविरोधी साहित्य से लैस कम्प्यूटर या लैपटाॅपधारी खतरनाक माओवादी या नक्सलवादी विचारक का पता ठिकाना तलाशने व उसे गिरफ्तार करने में उन्हें घंटों का समय नहीं लगता और अगर यह तथाकथित पत्रकार वैचारिक रूप से भी भाजपा का विरोधी है तो इसे मार देने या फिर कानून को हाथ में लेकर खुद ही सजा देने में कोई हर्ज नहीं है। वैसे तो तमाम कट्टर व धार्मिक संगठनों की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनैतिक उत्तराधिकारी भाजपा को भी पत्रकारों से डर लगता है और भाजपा के तमाम बड़े नेता सत्ता के केन्द्र में आते ही मीडिया को कठोर निगाहबानी से बचने के रास्ते तलाशने शुरू कर देते हैं लेकिन इधर पिछले तीन चार सालों में एक के बाद एक कर चुनावी विजय का परचम लहराती जा रही भाजपा ने मीडिया से छुपने के अलावा उसे धमकाने का रास्ता भी अख्तियार कर लिया है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि विज्ञापन के इस युग में बड़े-बड़े प्रकाशन या मीडिया संस्थान चलाना आसान नहीं है और शायद यही वजह है कि मीडिया के क्षेत्र में बड़े नाम कहे जा सकने वाले तमाम बड़े मीडिया समूहों पर इस वक्त व्यवसायिक प्रतिष्ठानों व पूंजीपतियों का वैध-अवैध कब्जा है जो सरकार पर दबाव बनाने या फिर अपने नफे-नुकसान को मद्देनजर रखते हुए खबरों और पत्रकारों का इस्तेमाल करते हैं तथा इसकी एवज में प्रकाशन अथवा प्रसारण के क्षेत्र में आने वाली आर्थिक तंगी से इन तमाम संस्थानों को दूर रखा जाता है। अपनी एक अलग पहचान कायम करने के उद्देश्यों के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरने वाले युवाओं व उत्साही नौजवानों की निगाहों में अधिकांशतः इन तमाम बड़े मीडिया समूहों के साथ जुड़कर नाम व दाम कमाने का सपना होता है और अपने लक्ष्य के प्रति अगाध प्रेम व मेहनत के बूते इनमें से अधिकांश इस लक्ष्य को पाने में सफल भी होते हैं लेकिन पत्रकारिता की इस दलदल में घुसकर उन्हें अहसास होता है कि जिसे वह एक चैलेंज समझकर उत्साहित हो रहे थे वह एक प्रायोजित कार्यक्रम के अलावा और कुछ भी नहीं है। एक मिशन के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने वाले कई उत्साही साथियों ने इन स्थितियों को बहुत बारीकी से देखा और झेला है तथा यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इनमें से कई बागी विचारधारा के पत्रकारों ने जब-जब लीक से हटकर खबरों की दुंदभी बजायी है तो राजनैतिक आकाओं का घबराना स्वाभाविक हो जाता है और घबराहट की इस स्थिति में सत्ता के उच्च प्रतिष्ठानों पर काबिज लोकतंत्र के यह प्रहरू या तो मुकदमें की धमकी देते हैं या फिर गिरफ्तारी की। कुछ मामलों में तो हालात इतने ज्यादा खराब हो जाते हैं कि सरकारी तंत्र बकायदा कानून बनाकर खबरों पर रोक लगाने के इंतजामात में लग जाता है या फिर विज्ञापनों पर घोषित-अघोषित रोक लगाकर अखबारों व उनके मालिकों को साधने का प्रयास किया जाता है। हालांकि यह तथ्य भी किसी से छुपा नहीं है कि अपनी प्रसार संख्या अथवा टीआरपी को लेकर मीडिया की स्थिति भी बहुत ज्यादा साफगोई वाली नहीं है और विभिन्न छोटे मीडिया संस्थानों में भी भेड़ का रूप धरकर कुछ भेड़िये अपने अवैध कारोबार व ब्लैकमेलिंग के अड्डे चला रहे हैं लेकिन इस सबके लिए भी सरकारी व्यवस्था व वह नियम कानून जिम्मेदार हैं जो एक सच्चे पत्रकार को आंकड़ों का झूठा खेल खेलने को मजबूर करते हैं। खैर इस सबके बावजूद यह कहने में कोई हर्ज नहीं है नेताओं के तमाम झूठे-सच्चे किस्से सामने लाने या फिर भ्रष्टाचार से जुड़े मामले खोलने में स्थानीय स्तर के लघु व मझोले समाचार पत्रों अर्थात् मीडिया के उस छोटे हिस्से का बड़ा योगदान रहता है जिसे सामान्य परिस्थितियों अथवा मीडिया को उपकृत करते वक्त हेय दृष्टि से देखा जाता है। यहां पर यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि इनके सीमित सम्पर्कों के बावजूद जनता से सीधे जुड़ाव व बड़ी संख्या के कारण मीडिया के इस हिस्से की खबर का समाज पर असर तथा खबर पर प्रतिक्रिया तुरंत दिखाई दिखाई देने लगती है और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि चुनावी मौसम में किसी प्रत्याशी के पक्ष में माहौल बनाने या बिगाड़ने के अलावा किसी राजनैतिक दल का हव्वा खड़ा करने में भी इस छोटे व मझोले मीडिया की भूमिका अहम् रहती है। भाजपा के लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि पिछले लोकसभा चुनावों के वक्त तथा उसके बाद भी मीडिया के एक बड़े हिस्से ने अपने नफे नुकसान की परवाह किए बिना तत्कालीन भाजपा नेता व प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी के पक्ष में माहौल बनाया क्योंकि अन्ना के आंदोलन के बाद बने भ्रष्टाचार विरोधी माहौल के बाद उन्हें लगा कि एक राष्ट्रीय राजनैतिक संगठन होने के कारण भाजपा कांग्रेस का बेहतर विकल्प साबित हो सकती है लेकिन सत्ता के शीर्ष पदों पर चेहरे बदल जाने के बाद भी राजकाज के तौर-तरीके न बदलने तथा तमाम तरह की राजनैतिक व लोकलुभावन घोषणाओं के बावजूद सरकार द्वारा जनसामान्य के हितों को ध्यान में रखते हुए कोई फैसले न लिए जाने के कारण वर्तमान में मीडिया का यह हिस्सा सरकार के विरोध में है और सरकार भी मीडिया के इस हिस्से के साथ किसी भी तरह के समझौते या आर्थिक लेन-देन की संभावनाओं को टटोलने के बाद इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि विरोध के इन सुरों को खामोश करने के लिए दबंगई या फिर कानून का सहारा लेकर की जाने वाली कार्यवाही ही एकमात्र विकल्प है। नतीजतन मीडिया के इस हिस्से में आने वाली खबरों को लेकर न सिर्फ प्रशासन सख्त हो गया है बल्कि भाजपा शासित राज्यों की पुलिस व सत्ता पक्ष से जुड़े राजनैतिक कार्यकर्ता छोटे समाचार पत्रों के मालिकों व इनसे जुड़े खोजी पत्रकारों से कुछ इस तरह पेश आ रहे हैं कि मानो यह खुजली वाले कुत्ते हों। शायद यही वजह है कि पत्रकारों के खिलाफ कानूनी कार्यवाहियों, राजनैतिक हमलों व धमकाने वाली गतिविधियों की बाढ़ सी आ गयी है और कल तक अपनी खबर या फोटो छापने के लिए स्थानीय स्तर के समाचार पत्रों के कार्यालयों के खुशामद करते दिखने वाले चेहरे आज पूरे रौब के साथ सत्ता की धौंस देते हुए पूरे का पूरा समाचार पत्र अपने हिसाब से छापने की सलाह दे रहे हैं। सलाह के रूप में दी जाने वाली इस धमकी को राजनीति का मुलम्मा चढ़ाकर हिन्दू राष्ट्रवाद के लिए जरूरी बताया जा रहा है और धारा के विपरीत चलने वाली कलम को वामपंथी का दर्जा देकर तोड़कर फैंक देने या खामोश कर देने का आवाह्न अब खुले मंचों से है। इन हालातों में हम यह मान सकते हैं कि पत्रकारिता इस समय कठिन दौर से गुजर रही है और यह दौर आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक खतरे का दौर है क्योंकि ‘बंदर के हाथ में उस्तरा’ देने की हिमाकत हमने ही की है।