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Tuesday, April 16, 2024

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निज भाषा में कीजिऐ, जो उन्नति की बात

मंचीय आयोजनों अथवा हिन्दी पखवाड़ों के स्थान पर राजभाषा को बनाना होगा सरकारी कामकाज की भाषा
राष्ट्र भाषा दिवस को एक विशेष अवसर के रूप में अंगीकार कर इस दिन सरकारी व गैर सरकारी तौर पर विभिन्न आयोजन किये जाने की परम्परा हिन्दी को एक सर्वमान्य व अन्र्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किये जाने के प्रावधानों के तहत की गयी होगी लेकिन सरकारी लालफीताशाही ने हिन्दी दिवस या राष्ट्र भाषा दिवस को एक रस्मी रूप प्रदान कर इस अवसर पर किये गये जाने वाले आयोजनों को औपचारिकता मात्र बनाकर रख दिया है। यूं तो हिन्दी हमारे देश की सार्वजनिक बोल-चाल की आम भाषा है और अगर विभिन्न क्षेत्रीय व राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में गौर किया जाय तो यह साफ जाहिर होता है कि हिन्दी विभिन्न क्षेत्रीय बोली-भाषा व संस्कृति वाले भारत को एकता के सूत्र में बांधे रखने में सफल भी है लेकिन देश की आजादी के इन सत्तर वर्षो बाद भी इसे सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में अंगीकार नही किया गया है और न ही देश की न्यायपालिका द्वारा इस भाषा का अधिकाधिक इस्तेमाल किया जाता है। यह ठीक है कि मीडिया के क्षेत्र में तेजी से बड़े हिन्दी भाषी समाचार व मनोरंजन चैनलों के साथ ही साथ छोटे समाचार पत्रों या पत्रिकाओं के प्रकाशन को व्यवसाय के रूप में अंगीकार करने की प्रवृत्ति ने हिन्दी की लोकप्रियता व जनसाधारण के बीच पहुँच को बढ़ाया है लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षो में राजनैतिक कारणों से छोटे समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के प्रकाशन को हतोत्साहित कर रही सरकारी व्यवस्था हिन्दी के नवोदित लेखकों व पत्रकारों को इस परिपेक्ष्य में किसी भी तरह के प्रयास करने से रोकती प्रतीत होती है और फेसबुक, वेबसाइट अथवा संचार क्रान्ति के अन्य तमाम माध्यमों के जरिये हिन्दी की समृद्ध परम्परा को दूषित करने या फिर हिन्दी के विचारों को भी अंग्रेजी में व्यक्त करने की जो कोशिशें शुरू हुई है उन्होंने राजभाषा की तेजी से आगे बढ़ रही परम्परा पर अनाधिकृत रूप से कब्जा कर लिया प्रतीत होता है। हालातों के मद्देनजर हमारी सरकारें या हिन्दी दिवस जैसे अवसरों पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करने वाले संस्थान बंद वातानुकूलित कमरों या भव्य मंचो पर बैठकर हिन्दी का गुणगान करते भले ही दिखे लेकिन हम यह कह सकते है कि हमारे देश की राष्ट्र भाषा मानी जाने वाली हिन्दी एक बार फिर आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रही है और अगर यह सबकुछ ऐसे ही चलता रहा तो यकीन जानियें कि आने वाले कुछ दशकों में अपनी साधारण बोलचाल की भाषा में हिन्दी का प्रयोग करने वाले तथा लेखन में शुद्ध हिन्दी की वर्तनी का प्रयोग करने वाले लोग सीमित संख्या में रह जायेंगे। समाज में आ रहे इस परिवर्तन के लिऐ जनसाधारण को दोषी नही ठहराया जा सकता और न ही यह माना जा सकता है कि हमारे देशवासी जानबूझकर हिन्दी का प्रयोग अपने रोजमर्रा के कामकाज में इस्तेमाल होने वाली भाषा के रूप में करने से बच रहे है बल्कि अगर तथ्यों व समाज में आ रहे बदलाव पर गौर करें तो हम पाते है कि देश की आजादी के इन सात दशकों बाद भी हमारी सरकारों ने हिन्दी को अपने सामान्य कामकाज की भाषा के रूप में नही अपनाया है जिस कारण हमारी सरकारें हिन्दी को रोजगार से नही जोड़ पायी है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि समाज में तेजी से आ रहे बदलाव के बावजूद भी वर्तमान तक देश में हिन्दी को समझने वाले,उसका सामान्य कामकाज में प्रयोग करने की इच्छा रखने वाले या फिर सार्वजनिक तौर पर इसका इस्तेमाल करने वाले लोग बड़ी संख्या में है और देश के उपभोक्ता बाजार में भी हिन्दी भाषियों का परचम लहरा रहा है जिसके चलते भारत के बड़े बाजार पर कब्जे के लिऐ प्रतिस्पर्धा करती दिख रही बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में तो हिन्दी की स्वीकार्यता व उसे जानने या समझने की उत्कंठा बड़ी है लेकिन सरकारी कामकाज में गोपनीयता रखने की पक्षधर दिखने वाली भारतीय नौकरशाही के एक छोटे समूह का अंग्रेजी व अन्य भाषाओं के प्रति प्रेम किसी से छुपा नही है और शायद यही वजह है कि हिन्दी का सामान्य ज्ञान रखने वाले अथवा अपने सामान्य कामकाज में हिन्दी का प्रयोग करने वाले बहुभाषी भारतीय समुदाय का अंग्रेजी प्रेम पीछे नही छूट रहा है बल्कि यह तबका अपनी अगली पीढ़ी को हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी को अपनाने अथवा देश की युवा पीढ़ी को हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी में पारंगत बनाने की जिद पकड़े बैठा मालुम होता है जिसके चलते देश के लगभग सभी हिस्सों में गली-मोहल्लों में खुलने वाले अंग्रेजी स्कूलों तथा कुछ ही दिनों में अंग्रेजी भाषा के ज्ञान में पारंगत बना देने का दावे के साथ अंग्रेजी सिखाने वाले प्रशिक्षण केन्द्रों की बाढ़ सी आ गयी मालुम देती है। यह ठीक है कि ‘लकीर के फकीर‘ वाले अंदाज में रोजमर्रा के कामकाज में क्लिष्ट हिन्दी भाषा को अपनाया जाना आसान नही है और हिन्दी को ज्यादा लोकप्रिय व सार्वजनिक इस्तेमाल की भाषा बनाने के लिये उसमें रोजमर्रा के इस्तेमाल में शामिल हो चुके अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दो को हटाया नही जा सकता लेकिन लोकपरम्परा की एक भाषा व संस्कृति को जीवित रखने के लिऐ यह भी आवश्यक है कि इसका इस्तेमाल करने वाले अधिकांश लोगो को इसके व्याकरण से जुड़े पहलुओं व स्थानीय स्तर पर इसका प्रयोग करते समय उपयोग में लाये जाने वाले सभी समानार्थी व प्रर्यायवाची शब्दों का ज्ञान हो। दुर्भाग्य का विषय है कि राजभाषा दिवस जैसे पारम्परिक व सरकारी आयोजनो में इस दिशा में कतई काम नही हो रहा है और प्रोत्साहन राशि प्रदान करने या फिर सम्मानित करने के खेल में होने वाला राजनैतिक दखल कहीं न कहीं हिन्दी के क्षेत्र में अनुकरणीय कार्य कर रहे लेखकों व पत्रकारों को हतोत्साहित करता प्रतीत हो रहा है। यह माना कि देश-विदेश में सम्बन्ध रखने तथा वैश्विक परिवेश में बने रहने के लिऐ सरकारी तंत्र की भी अपनी मजबूरियाँ है और राष्ट्रीय भाषा के प्रोत्साहन के नाम पर अंग्रेजी अथवा अन्य विदेशी भाषाओं से नाता तोड़ लेना प्रयोगात्मक तरीके से कतई संभव नही है लेकिन अगर सरकार चाहे तो वह अपने तंत्र में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी अथवा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को प्राथमिकता देकर इस समस्या का हल खोज सकती है और नौकरशाही के लिऐ हिन्दी भाषा के व्याकरणीय ज्ञान को एक आवश्यक शर्त के रूप में शामिल कर कई समस्याओं व विवादों से बचा जा सकता है। ठीक इसी प्रकार देश के नेता, नीतिनिर्धारक एवं सरकारी कर्मचारी आपसी बातचीत एंव जनपक्षीय विषयों पर केवल हिन्दी अथवा क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग को आवश्यक शर्त के रूप में स्वीकारते हुऐ हिन्दी को एक सारगर्भित भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किये जाने की दिशा में अपना योगदान दे सकते है लेकिन भारत के लोकतांत्रिक तंत्र में इच्छाशक्ति का घोर आभाव दिखता है और इच्छाशक्ति के आभाव में केवल एक दिवसीय आयोजनों या फिर पखवाड़े के आयोजन मात्र से हिन्दी को समय की आवश्यकता के अनुसार प्रतिष्ठित व प्रतिस्थापित करना आसान नही है। हो सकता है कि सरकार यह मानती हो कि देश के सामान्य नागरिक की भाषा होने के कारण हिन्दी लेखन की परम्परा के विलुप्त होने अथवा भाषा के अपभ्रंश होने का कोई खतरा नही है और देश की युवा पीढ़ी के बीच तेजी से प्रचलित होती दिख रही अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी अर्थात् हिंग्लिश के माध्यम से इस राष्ट्रीय भाषा को एक नई ऊँचाईयों तक ले जाना संभव है लेकिन अगर गंभीरता से गौर करें तो अंग्रेजी के साथ हिन्दी मिलाकर बोलने या फिर अंग्रेजी में ही हिन्दी लिखने की इस नई परम्परा ने भारतीय समाज द्वारा दशकों की मेहनत व प्रयासों के बाद सृजित हिन्दी भाषा की वर्तनी व उसका प्रयोग करने के तरीके का सत्यानाश करके रख दिया है और अगर सबकुछ ठीक ऐसे ही चलता रहा तो यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि भारत देश की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हिन्दी आने वाले कुछ समय में ही संस्कृत भाषा की तरह एक वर्ग विशेष की भाषा बनकर रह जायेगी। इन हालातों में बहुआयामी भारत को एकता के सूत्र में बांधने के लिये हमें नये आयामों व समीकरणों की तलाश करनी होगी या फिर यह भी हो सकता है कि हिन्दी को आत्मसम्मान व गौरव का विषय बताने वाले इसपर अपना एकाधिकार समझने लगे और अपने अन्र्तमन के संवाद या प्रगतिशील विचार देश दुनिया के तमाम हिस्सों तक पहुँचाने के लिऐ हम सिर्फ कुछ गिने -चुने बहुभाषियों पर निर्भर होकर रह जाये। अगर ऐसा होता है तो यह निश्चित जानियें कि इस देश की राजनैतिक व्यवस्था को संभालने वाली विचारधारा या भारतीय परम्पराओं के लिऐ यह सबसे अशुभ अवसर होगा और हम जाने-अनजाने में एक बार फिर गुलामी की ओर जाते दिखाई देंगे। इसलिऐं हमारे नीतिनिर्धारकों व सरकार की बागडोर संभालने वाले नौकरशाहों ने सिर्फ मंचीय संस्कृति से आगे बढ़कर राष्ट्र भाषा के मौलिक स्वरूप को बचाने के प्रयास करने चाहिऐं और इसके सबसे आसान तरीके के रूप में जनसाधारण व देश के युवा वर्ग को हिन्दी में लेखन करने अथवा उसकी हिन्दी पठन-पाठन की अभिरूचि पैदा करने को बढ़ाना ही होगा किन्तु हम देख रहे है कि देश की लगातार बढ़ती जा रही जनसंख्या के अनुपात में हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या में तेजी से कमी आ रही है और सरकार भी अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिऐ हिन्दी के प्रकाशनों को हतोत्साहित कर रही है। इन हालातों में हिन्दी के बचे रहने अथवा इसके विकास की बात करना भी बेमानी है।

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