सीमित विकल्पों के बावजूद भाजपा पर रणनैतिक जीत हासिल करने में कामयाब दिख रही है उत्तराखंड कांग्रेस
मैदानी क्षेत्र की भाजपा के कब्जे वाली दो विधानसभा सीटों से चुनाव लड़ने का ऐलान कर प्रदेश के मुख्यमंत्री हरीश रावत भाजपा पर मनौवैज्ञानिक दबाव बनाने में सफल दिखते है और अगर भाजपा के दिग्गज नेता इन विधानसभा क्षेत्रों में हरीश रावत की राजनैतिक घेराबन्दी करने में नाकाम रहते है तो सत्ता परिवर्तन का ख्वाब देख रहे भाजपा के हाईकमान को संगठनात्मक स्तर पर सुनाई दे रहे विद्रोह के स्वर भारी पड़ सकते है। हाॅलाकि अभी चुनाव लड़ने वाले सभी प्रत्याशियों के चेहरे सामने आने तक चुनाव नतीजों या समीकरणों को लेकर कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी लेकिन हालात इशारा कर रहे है कि खुद दो सीटो से चुनाव लड़ रहे हरीश रावत ने नैनीताल जिले में इन्दिरा हृदयेश तथा राजधानी देहरादून में किशोर उपाध्याय का चेहरा आगे कर इन चार जिलो की छत्तीस सीटो के सहारे अपनी राजनैतिक बढ़त हासिल करने का मन बनाया है। काॅग्रेस के बागी नेताओ और ठीक चुनावाी मौके पर काॅग्रेस छेाड़ने वाले यशपाल व नारायण दत्त तिवारी के मैदान से हटने के बाद एक बारगी यह लगने लगा था कि पिछले चुनाव में हरिद्वार व उधमसिंह नगर में बेहतर प्रदर्शन करने में असमर्थ रही काॅग्रेस इस बार भी राज्य के मैदानी हिस्से में मात खा सकती है तथा सत्ता में रहते हुऐ लालबत्तियों, दायित्वों व संगठनात्मक पदो की दौड़ में शामिल दिखने वाले कई मतलबपरस्त नेता चुनावी मौके में बागी व पार्टी छोड़ने वाले बड़े नेताओं के प्रभाव के चलते भीतरीघात कर सकते है लेकिन इधर हरीश रावत के खुद मैदानी इलाके वाले चुनाव क्षेत्रों से मैदान में उतरने तथा इन्दिरा हृदयेश व किशोर उपाध्याय के अलावा रंजीत रावत को भी इन्ही क्षेत्रों के आसपास वाले क्षेत्रों से प्रत्याशी घोषित होेने के बाद यह तय हो गया है कि सरकार बनने की स्थिति में संगठन अथवा सत्ता में किसी भी तरह की भागीदारी चाहने वाले तमाम छोटे-बड़े नेता अब इन क्षेत्रों के आसपास ही अपनी उपलब्धता बनाऐं रखने को मजबूर होंगे और जाने -अनजाने में उनकी हर राजनैतिक व गैरराजनैतिक गतिविधि पर हरीश रावत की नजर बनी रहेगी। इन हालातों में कांग्रेस में भीतरीघात की संभावनाऐं काफी कम हों जायेंगी जबकि इन तमाम सीटों पर विपक्ष की ओर से कोई मजबूत प्रत्याशी न होने के चलते हरीश रावत के अलावा इन अन्य बड़े व कांग्रेस कार्यकर्ताओं के विभिन्न वर्गों पर प्रभाव रखने वाले नेताओं को भी अपने आसपास के विधानसभा क्षेत्रों के चुनावी समीकरणों को प्रभावित करने का पूरा मौका मिलेगा। यह ठीक है कि कांग्रेस के हरीश रावत के मुकाबले भाजपा के पास भी पूर्व मुख्यमंत्रियों व चुनाव न लड़ने वाले बड़े भाजपाई नेताओं की एक बड़ी फेहिस्त है लेकिन अगर इस फेहिस्त का गंभीरता से अध्ययन करें तो यह स्पष्ट दिखता है कि भाजपा हाईकमान इन चेहरों का ठीक से उपयोग करने के मूड में नही है और न ही इन तमाम लोगो को चुनाव प्रबन्धन से जुड़ी विशेष जिम्मेदारी ही दी गयी है। हो सकता है अब हरीश रावत के पत्ते सामने आने के बाद भाजपा अपनी रणनीति में कुछ बदलाव करें और प्रत्याशियों के मामले मे फेरबदल को अंजाम दे चुनावी समीकरण अपने पक्ष में करने की कोशिश की जाय लेकिन हालात इशारा कर रहे है कि इन तमाम फैसलों के लिऐ अब देर हो चुकी है और भाजपा हाईकमान के सम्मुख सबसे बड़ा सरदर्द अभी उन विद्रोही प्रत्याशियों से निपटने का है जो भाजपा की रणनीति पर पलीता लगाने में जुटे हुये है। ऐसा नही है कि विरोध या विद्रोह की स्थिति कांग्रेस में नही है और टिकट बंटवारे को लेकर हरीश रावत द्वारा अपनायी गयी रणनीति से सभी संभावित दावेदार संतुष्ट है लेकिन कांग्रेस के मामले में यह सुर इतने प्रभावी होने की सम्भावना नही है और काॅग्रेस में हुई पिछले वर्ष की बगावत व ठीक चुनावी मौके पर पार्टी छोड़ने की घटनाओं के बाद ज्यादा मजबूती से खड़े दिख रहे हरीश रावत कांग्रेस के बगावती तेवर वाले नेताओं को यह संकेत भी दे रहे है कि अब कांग्रेस में गुटबाजी की कोई संभावना नही है। हांलाकि अभी यह कहना कठिन है कि इस बार मैदानी विधानसभाओं पर ज्यादा तवज्जों देते दिख रहे हरीश रावत अपने प्रचार अभियान के दौरान कुमाँऊ क्षेत्र व गढ़वाल के लिऐ कितना समय निकाल पायेंगे तथा अपनी चुनाव सभाओं, रैलियो या फिर शक्ति प्रदर्शन के लिऐ उनकी रणनीति क्या होगी लेकिन टिकट वितरण के दौरान कांगे्रस को परिवारवाद से दूर रखने में सफल रहे हरीश रावत संगठन से जुड़े सामान्य कार्यकर्ताओं को यह संदेश देने में भी कामयाब रहे है कि उन्हें समर्पित व निष्ठावान कार्यकर्ताओं की फिक्र है। यह ठीक है कि कांग्रेस द्वारा भाजपा के कुछ बागी उम्मीदारों को अपना प्रत्याशी घोषित कर संगठन के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी की गयी है और कुछ मजबूत व निर्दलीय प्रत्याशियों के खिलाफ जानबूझकर कमजोर प्रत्याशी मैदान में उतार पर्दे के पीछे की सौदेबाजी के संकेत भी दिये गये है लेकिन दूषित हो चुकी राजनीति के इस दौर में इस तरह की राजनैतिक कारगुजारियों को कतई गलत नही कहा जा सकता। वैसे भी सरकार को समर्थन देने वाले सभी निर्दलीय व क्षेत्रीय दलों के विधायकों को कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में जाने का मौका दे या फिर निर्दलीय मैदान में उतरने की स्थिति में विरोध न किये जाने की गांरटी दे हरीश रावत तमाम निर्दलीय प्रत्याशियों व अन्य दलों के बगावती उम्मीदवारों को यह संदेश पहले ही दे चुके है कि सत्ता में आने की स्थिति में कांग्रेस के साथ चलने का विकल्प उनके लिऐ हमेशा ही खुला है। कुल मिलाकर देखा जाय तो हम यह कह सकते है कि ‘देर आये दुरूस्त आये‘ वाले अंदाज में भाजपा के बाद जारी हुई कांग्रेस के उम्मीदवारों की इस सूची के विरोध में कुछ कांग्रेस के प्रत्याशी या फिर विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों के संभावित दावेदार अपना गुस्सा भले ही प्रदर्शित कर रहे हो लेकिन इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि भाजपा द्वारा रची गयी ‘जोड़-तोड़ की राजनीति का जवाब देने का यह कांग्र्रेसी अंदाज बुरा नही है। यह तो वक्त ही बतायेगा की कांग्रेस व भाजपा के बीच होने वाली इस चुनावी जंग की परणीति क्या होगी और उत्तराखंड की जनता सरकार बनाने के जनादेश के साथ किस नेता या राजनैतिक दल को बहुमत से आगे आने का मौका देगी लेकिन हालात यह इशारा कर रहे है कि हरीश रावत के इस पहले ही दांव ने भाजपा के महारथियों को चित कर दिया है और अब यह उनकी मजबूरी होगी कि चुनाव मैदान में न उतरने के बावजूद भी उन्होंने अपने अपने प्रभाव क्षेत्रों तक सीमित रहना पड़ेगा जबकि सीमित विकल्पों के साथ कांग्रेस के बड़े चेहरे अपने निर्वाचन क्षेत्रों से कोई मजबूत चुनौती न मिलने के चलते एक साथ कई विधानसभा क्षेत्रों के समीकरणों को प्रभावित करेंगे।