‘हिमालय बचाओ‘ जैसे नारे के साथ पाँच सितारा होटलों में आयोजित कार्यक्रमों व विचार विमर्श तक सिमटा हिमालय दिवस।
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के तमाम पांच सितारा सुविधाओं से युक्त होटलों व अन्य आयोजन स्थलों पर सरकारी खर्च से धूमधाम के साथ मनाये गये हिमालय दिवस में पर्यावरणविदों, नेताओं व सरकार के प्रतिनिधियों ने जमकर एक बड़े पर्वतीय भू-भाग की दुर्दशा पर चिन्ता व्यक्त करते हुऐ पहाड़ो पर पलायन जैसी समस्याओं को उकेंरने का प्रयास किया और इस एक दिवसीय तामझाम के माध्यम से सरकार यह भी बताने की कोशिश करती दिखाई दी कि वह वाकई एक बड़े पर्वतीय भू-भाग की बिगड़ती पारिस्थितिकी को लेकर चिन्ताग्रस्त है लेकिन इस सारी जद्दोजहद के बावजूद ऐसा नही लगता कि सरकार इन तमाम विषयों पर किसी ठोस निष्कर्ष तक पहुँची हो और सरकार तंत्र ने इस पूरे विचार-विमर्श के उपरांत हिमालयी क्षेत्रों के पर्यावरण, पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने या फिर पलायन जैसी समस्याओं का समाधन ढ़ूढने के संदर्भ में कोई ठोस रणनीति तय की हो। उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में ‘हिमालय बचाओं‘ का नारा लगाते ही यहाँ की संस्कृति, विचारधारा, खानपान और लोकपरम्पराओं पर लगातार हो रहे हमले का मुद्दा एकाएक ही मनोमष्तिष्क को चकाचैंध करता है और उत्तराखंड के संदर्भ में अल्प जानकारी रखने वाला कोई भी पर्यावरणविद् या बुद्धिजीवी आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि इस पर्वतीय प्रदेश के हिमालयी क्षेत्र को बचाने का नारा देने की पहली शर्त ही यहाँ पर लगातार हो रहे पलायन पर लगाम लगाना है लेकिन इस मुद्दे पर तमाम बड़ी-बड़ी बातें करने वाली सरकारी व्यवस्था व प्रदेश की राजनैतिक सत्ता पर कायम विचारधारा इसपर कोई भी लगाम लगाने में पूरी तरह असफल है। हांलाकि राज्य के हिमालयी क्षेत्रों अर्थात् दूरस्थ ग्रामीण इलाकों से पलायन की समस्या इस राज्य के लिऐ नई नही है। बल्कि अगर इसे व्यापक राजनैतिक परिपेक्ष्य से देखें तो हम पाते है फिर एक अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड के निर्माण का पूरा आन्दोलन वस्तुतः इसी समस्या का वाजिब समाधान ढ़ूँढ़ने की दिशा में जनपक्ष की ओर से प्रस्तुत किया गया एक विचार मात्र था लेकिन राजनीति की बिसात के चतुर खिलाड़ियों ने उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद विकास के तथाकथित ढ़ाँचे को कुछ इस तरह प्रस्तुत किया कि राज्य निर्माण के बाद पलायन की समस्या कोढ़ पर खाज की तरह और भी ज्यादा तेजी से बढ़ती चली गयी। यह ठीक है कि लगभग इसी दौर में भारत सरकार द्वारा अंगीकार की गयी उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के बाद विलासितापूर्ण जीवन जीने की ललक का भी हिमालयी क्षेत्रों में पलायन बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि राज्य गठन के बाद अस्तित्व में आयी लगभग सभी तथाकथित जनहितकारी सरकारों ने अपने शासन काल के दौरान विकास का ऐसा कुचक्र रचा कि पहाड़ में गाँव के गाँव ही खाली होते चले गये। यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि इस पहाड़ी क्षेत्र का नौजवान पूर्व से ही अपनी रोजी-रोटी व रोजगार की तलाश में मैदानी क्षेत्रों व महानगरों की ओर रूख करता रहा है तथा अपनी मेहनत, लगन व ईमानदारी के बलबूते इस क्षेत्र ने देश को लगभग हर हिस्से में प्रतिभावान कार्यकर्ताओं के समूह दिये है। शायद यहीं वजह रही कि राष्ट्रीय राजनीति के लगभग सभी महापुरूषों ने इस सीमित क्षेत्रफल व जनसंख्या वाले राज्य को हमेशा विशेष तवज्जों दी लेकिन इधर एक अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद इस हिमालयी क्षेत्र के दुर्गम ग्रामीण इलाकों व दूरस्थ क्षेत्रों में एक नयी परम्परा ने जन्म ले लिया है और अब पहाड़ का नौजवान सिर्फ रोजगार से जुड़े उद्देश्यों को पूरा करने के लिऐ ही देश के महानगरों व सुविधापूर्ण मैदानी इलाकों की ओर रूख नही कर रहा है बल्कि नयी पीढ़ी के तमाम नौनिहालों व युवा बेहतर शिक्षा व्यवस्था के लिऐ पहाड़ों से नीचे उतरने को मजबूर है। चरमराती स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते अपने गांव व जन्मभूमि को छोड़ना बुजुर्गो की मजबूरी बन गया है तो शैक्षिक योग्यता के अनुरूप कामकाज व मनोरंजन की सुविधाओं का आभाव नवयुवकों, नवयुवतियों व विवाहिता महिलाओं को गांव छोड़ने पर मजबूर कर रहा है। सरकार अगर चाहती तो वह बहुत ही आसानी से जनसामान्य की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के संसाधन जुटाकर इस मजबूरी के पलायन पर विराम लगा सकती थी लेकिन सरकारी तंत्र व तंत्र को चलाने वाले हमारे तथाकथित जनप्रतिनिधि सिर्फ मंचीय प्रदर्शन व घोषणाओं तक सीमित होकर रह गये है और नौकरशाही की शह पर हिमालय बचाओं जैसे नारों व हिमालय दिवस जैसे आयोजनों में सरकारी धन व कीमती वक्त की बर्बादी को बहुत ही खूबसूरती के साथ अंजाम दिया जा रहा है। यह माना कि सरकार के पास जादू की छड़ी जैसी कोई व्यवस्था नही है जो वह राज्य अथवा महानगरों के मैदानी इलाकों में मिलने वाली जनसुविधाओं व व्यवस्थाओं को जादू के जोर पर दूरस्थ पर्वतीय इलाकों तक पहुंचाकर पलायन की समस्या का त्वरित समाधान निकाल सके लेकिन अगर इस परिपेक्ष्य में स्वस्थ मन के साथ सच्ची कोशिश की जाय तो इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि पहाड़ों पर तेजी से छाता दिख रहा सन्नाटा तोड़ा जा सकता है। पहाड़ को नजदीक से जानने वाले लोग यह अच्छी तरह जानते है कि उत्तराखंड के सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में खेती की एक खुशहाल परम्परा रही है और वह दिन भी बहुत ज्यादा पीछे नही छूटे है जब अपनी फुर्सत के पलों में रोजगार के लिऐ पहाड़ से मैदानी इलाकों की ओर रूख कर चुका पहाड़ी नौजवान अपनी गांव की यात्रा से वापसी की ओर रूख करते हुऐ अपने साथ पहाड़ की यादगार के रूप में स्वास्थ्यवर्धक पहाड़ी उत्पादों व मसालों का रूप ले चुकी आर्युवैदिक औषधियों को ले जाना नही भूलता था लेकिन सरकार द्वारा लगाये गये प्रतिबंधो व लगभग समाप्ति की कगार पर पहुँच चुकी खेती की परम्परा ने पहाड़ से पलायन कर चुकी अधिसंख्य जनता का नाता उसके पैतृक गाँव से तोड़कर रख दिया है। लिहाजा पहाड़ो पर मौका-बमौका होने वाले धार्मिक आयोजन व मेले बीते दिनों की बात होते जा रहे है और उनका स्थान धंधेबाजी से जुड़ी मंचीय संस्कृति ने ले लिया है। इन हालातों में हम अगर यह उम्मीद करें कि कोई भी औद्योगिक संस्थान अथवा जोर-जबरदस्ती के दम पर पहाड़ की ओर ठेला गया सरकारी मंत्रालय एक बार फिर पहाड़ की सूनी होती जा रही ग्रामीण संस्कृति को जीवन्त कर सकता है तो इसे एक बड़ी मानवीय भूल कहा जा सकता है लेकिन कमीशनबाजी और जोड़-जुगाड़ के खेल में इस तरह की गलतियाँ क्षेत्रों में की जा रही है जिसके चलते आबादी विहीन होने की कगार पर पहुँच चुके हिमालयी क्षेत्रों में कंकरीट के जंगल और वन्य पारिस्थितिकी तंत्र के लिऐ बेहद ही खतरनाक खंड़जे तेजी से पनपते दिखाई दे रहे है। यह माना कि सुविधाओं के आभाव से जूझ रहे पहाड़ी ग्रामीणों के लिऐ सड़के उनकी न्यनतम् आवश्यकताओं में से एक है और तमाम मैदानी क्षेत्रों व बाहरी मुल्कों में काम कर रहा पहाड़ी नौैजवान भी यह चाहता है कि वह जब भी अपनी जन्मस्थली की ओर रूख करें तो उसकी अमीरी की ठसक के साथ ही साथ उसके द्वारा पूरी मेहनत से जुटाई गयी सुविधाओं की आहट भी उसके गांव या गलियारें तक पहुंचे लेकिन इसके लिऐ सिर्फ सम्पर्क मार्गो या स्थानीय मदो से होने वाले खर्च के नाम पर खंड़जो का निर्माण ही जरूरी नही है बल्कि अगर सरकार चाहे तो अन्य कई तरीकों का इस्तेमाल कर पहाड़ से पलायन कर चुके मूल निवासियों व सुदूरवर्ती क्षेत्रों में काम कर रहे नौजवानों की मेहनत की कमाई को इस हिमालयी क्षेत्र के विकास के लिऐ इस्तेमाल कर सकती है। इस सारे खेल में कमीशनबाजी या जोड़-जुगाड़ की कोई गुजांइश नही है और सरकारी तंत्र द्वारा उठाया गया कोई भी इस तरह का कदम पहाड़ के राजनैतिक समीकरणों को पूरी तरह बदलकर रख सकता है। शायद यही वजह है कि सरकार व स्थानीय जनप्रतिनिधि नही चाहते कि इस तरह की कोई पहल हो लेकिन राजनैतिक चर्चाओं में बने रहने व पहाड़ के विकास को लेकर चिन्तनशील दिखने के लिऐ इन तमाम विषयों पर विचार-विमर्श करते दिखना आवश्यक हो जाता है और शायद यही वजह है कि हिमालय बचाने की चिन्ता अब सिर्फ पांच सितारा होटलों में होने वाले कार्यक्रमों या फिर सार्वजनिक मंचो तक ही सीमित होकर रह गयी है।