दुश्मन से मुकाबले का वक्त | Jokhim Samachar Network

Friday, April 19, 2024

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दुश्मन से मुकाबले का वक्त

कश्मीरी पत्थरबाजों के साथ ही साथ नक्सलियों से भी निपटना, सुरक्षा बलो का मनोबल बनाये रखने के लिऐ जरूरी कश्मीर के दिन-ब-दिन खराब हो रहे माहौल के मद्देनजर जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की और मुलाकातों के इस सिलसिले को देखते हुये सारा देश उम्मीद भरी नजरों से दिल्ली के तख्त की ओर निहार रहा था क्योंकि देश की जनता का मानना है कि 56 इंच का सीना होने का दावा करने वाले देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसी भी कीमत पर सेना के जवानों व स्थानीय सुरक्षाबलों पर पथराव करने वाले अलगाववाद समर्थक कश्मीरियों के समक्ष घुटने नही टिकेंगे। उम्मीदों के अनुरूप प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने महबूबा से कहा भी कि केन्द्र पत्थरबाजों और उपद्रवियों के दबाव में किसी के साथ बातचीत नही की जायेगी लेकिन सवाल यह है कि इस तरह कश्मीर की इस ज्वलन्त समस्या का समाधान कैसे निकलेगा और भारत की एकता एंव अखण्डता को अक्षुण रखने के वादे के साथ केन्द्र की राजनीति में आये नरेन्द्र मोदी जम्मू-कश्मीर को लेकर समय-समय पर किये गये अपने वादों पर किस तरह खरे उतर पायेंगे ? यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि कश्मीर में तेजी से सामान्य होते जा रहे माहौल के बीच स्थानीय युवा बुरहान बानी की पुलिसिया मुठभेड़ में हुई मौत के बाद हालातों में एक बार फिर तेजी से बदलाव आया है और इस घटनाक्रम से नाराज स्थानीय युवा व छात्र इस घटनाक्रम के बाद से ही लगातार सुरक्षा बलों पर पत्थरों से हमलावर है। हांलाकि आंतक के इस स्वरूप के पीछे छुपी पड़ोसी मुल्क की साजिश से इनकार नही किया जा सकता और न ही इस तथ्य को नकारा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर की मौजूदा सरकार को अस्थिर करने के लिऐ राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल राजनैतिक दल भी युवाओं को भड़काने का काम कर रहे है लेकिन इस तरह के तर्को के बीच से कश्मीर समस्या का समाधान नहीं निकलता और न ही कश्मीर मंे हालत सामान्य होने की उम्मीद बंधती है। यह ठीक है कि कश्मीर को सेना के हाथांे सौंपने के मामले में जल्दबाजी से काम नही लिया जा सकता और न ही भारत जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आंतक पर सीधे तौर से हमलावर होने जैसे फैसलों पर विचार किया जा सकता है लेकिन सवाल यह है कि हमारें सैनिक कब तक निहत्थों की तरह हाथ पर हाथ रखकर मजबूरी के साथ अपना फर्ज निभाते रहेंगे। पाकिस्तान समर्थक कश्मीरी आंतकियों के अलावा सेना व अर्ध सैनिक बलों पर पूरी तैयारी के साथ सैन्य हमला करते तथाकथित माओवादी या नक्सलवादी लड़ाके भी देश की सुरक्षा व्यवस्था व आम नागरिक के अधिकारों के लिऐ खतरा बने हुये है और हमारे सत्तापक्ष के नेता या सत्ता के शीर्ष पर बैठे हमारे नीतिनिर्धारक सिर्फ मौखिक निन्दा या फिर कठोर कार्यवाही किये जाने की घोषणाओं के सहारे जनता को अश्वस्त करते हुये अपने देश के भीतर ही दुश्मनों के हाथों हताहत हो रहे सैन्य दलों का हौंसला बढ़ा रहे है। सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर मजबूत सैन्य शक्ति माना जाने वाला भारत अपनी सीमाओं के भीतर तक वार कर रहे देश के दुश्मनों से क्यों नहीं निपट पा रहा। वजह साफ है राजनैतिक तौर पर गठित होने वाली सरकारों में इच्छा शक्ति का आभाव साफ झलकता है और उनके बयानों व भाषणों में कितनी ही तल्खी भले ही क्यों न हो लेकिन जब फैसले की घड़ी आती है तो हर छोटे-बड़े घटनाक्रम के पीछे राजनैतिक लाभ तलाशने की कोशिश की जाती है और पड़ोसी मुल्क में घुसकर देश के दुश्मनों का सफाया करने के लिऐ ‘सर्जिकल स्ट्राइक‘ करने का दावा करने वाली राजनैतिक सोच अपनी सरहदो के भीतर हो रहे आंतकी हमलों को असहाय सी देखती रहती है। जम्मू-कश्मीर में पहली बार भाजपा सरकार का हिस्सा है और छत्तीसगढ़ में पिछले पन्द्रह सालों से भाजपा की ही सरकार है लेकिन इन दोनों ही राज्यों में सुरक्षा बलों पर हो रहे हमलों को लेकर सरकार कुछ भी कहने की स्थिति में नही है क्योंकि सरकार में बैठे लोगों के पास इच्छा शक्ति का आभाव है। इतिहास गवाह है कि पच्छिम बंगाल को उग्र वामपंथ के हाथों मुक्त करवाने वाली कांग्रेस वहां आज तक चुनाव नही जीत पायी जबकि पंजाब में खालिस्तान समर्थक उग्रवादियों का सफाया करने की एवज में कांग्रेस ने न सिर्फ अपनी लोकप्रिय नेता इन्दिरा गांधी को खोया बल्कि पंजाब में आंतक के खिलाफ उठाये गये कड़े कदमों की एवज में कांग्रेस को लंबे समय तक पंजाब की सत्ता से बाहर रहना पड़ा लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नही है कि अपनी राजनैतिक विरासत बचाने के लिऐ देश की एकता और अखण्डता को दांव पर लगा दिया जाय। अपने भाषणों, नारों और वक्तव्यों में कांग्रेस के शासनकाल पर उंगली उठाने वाले नेताओं ने देश के इतिहास व पूर्व में घटित राजनैतिक घटनाक्रमों से सबक लेते रहना चाहिऐं। अन्यथा किसी भी दिन कन्धार विमान अपहरण काण्ड जैसा कोई घटनाक्रम फिर से शूल बनकर भाजपा को एक नई टीस दे सकता है। यह ठीक है कि केन्द्र की मोदी सरकार की भी अपनी मजबूरियाँ है और केन्द्र में पूर्ण बहुमत की सरकार होने के बावजूद भाजपा के नेता कुछ मोर्चो पर अभी भी खुद को मजबूर महसूस करते है लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नही है कि देश के सैनिक और सीमा पर तैनात सुरक्षा बल भाजपा को राजनैतिक मजबूती देने के चक्कर में अपने प्राणों को दांव पर लगाते रहे। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि अब वक्त आ गया है कि देश के भीतर के दुश्मनों का मुंह तोड़ जवाब दिया जाय और सरकार द्वारा इस दिशा में कोई भी सकारात्मक कदम उठाये जाने का पूरे देश की जनता बेताबी से इंतजार कर रही है।

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