यह एक महत्वपूर्ण प्रष्न है कि अगर एक लोक सेवक की हैसियत से देष के प्रधानमंत्री बाबा रामदेव को सम्मान दे सकते हैं तो एक थानेदार या पुलिस का सिपाही राधे मां के सम्मान में अपनी कुर्सी क्यों नहीं छोड़ सकता।
धर्म एक संवेदनशील मुद्दा है और भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष मुल्क में इसकी संवेदनशीलता बहुत ज्यादा बढ़ जाती है क्योंकि यहां विभिन्न धर्मों, विचारधाराओं व मतों के लोग रहते हैं तथा भारत के हर नागरिक को अपनी मान्यता व इच्छा के अनुसार धार्मिक गतिविधियों में भागीदारी करने की स्वतंत्रता है। हालातों के मद्देनजर हमारे देश में जब कोई धार्मिक उन्माद जन्म लेता है या फिर किसी धर्म अथवा पंथ विशेष से जुड़े धर्मगुरू पर कानून का उल्लंघन करने और व्यभिचार करने के आरोप लगते हैं तो स्थितियां काफी बिगड़ती हुई नजर आती हैं तथा हम अपने इर्द-गिर्द मौजूद तमाम पंथों व सम्प्रदायों से जुड़े धर्मगुरूओं व विशेष व्यक्तियों को शक भरी नजरों से देखने लगते हैं लेकिन इन स्थितियों से जूझने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए और इस तरह की समस्याओं से निपटने में कानून की क्या भूमिका होनी चाहिए, इन विषयों पर हमारा सरकारी तंत्र व सरकार चलाने को जिम्मेदार राजनैतिक विचाराधाराएं प्रायः मौन रहती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि धर्म एक नितांत निजता का विषय है और इस पर किसी भी तरह की सार्वजनिक चर्चा स्थितियों को ज्यादा खराब कर सकती हैं। लिहाजा जनता के उद्वेलित मन में उठते विचार व उद्गार बाहर नहीं निकल पाते और एक अलग किस्म की कुण्ठा का जन्म होता है जिसके परिणामस्वरूप तमाम ऐसी घटनाएं व दुर्घटनाएं जन्म लेती हैं जिनकी सामान्य परिस्थितियों में परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसा ही एक मामला पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में सामने आया। जब एक थानेदार ने चर्चाओं में बनी रहने वाली धार्मिक हस्ती राधे मां को थाने में पेशी के दौरान बैठने के लिए अपनी कुर्सी दी। तात्कालिक परिस्थितियां क्या रही होंगी और इस आचरण के पीछे थानेदार की मंशा क्या होगी, यह एक जांच का पहलू हो सकता है लेकिन अपने सामान्य जीवन में किसी संत-महात्मा अथवा भगवाधारी व्यक्ति को सम्मान देना व उसके लिये यथायोग्य आसन की व्यवस्था करना हमारी संस्कृति एवं समाज का एक हिस्सा है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक सरकारी कर्मकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने नैतिक, सामाजिक व संस्थागत् जीवन का निर्वहन करते वक्त एक अधिकारी अथवा सरकारी कर्मचारी की भांति नहीं बल्कि एक सामान्य नागरिक की भांति व्यवहार करे। इस परिपेक्ष्य में अगर देखें तो दिल्ली पुलिस के इस छोटे कर्मचारी का यह आचरण सामान्य व्यवहार के विपरीत नहीं था लेकिन मौजूदा हालातों में जब बाबा राम-रहीम समेत कई धर्मगुरूओं पर कानून का शिकंजा कसा हुआ है और राधे मां जैसी तथाकथित धार्मिक हस्ती खुद कानून के कठघरे में है तो दिल्ली पुलिस के इस रवैय्ये पर चर्चा होना स्वाभाविक है और इस चर्चा को व्यापक रूप दिए जाने की स्थिति में देश-विदेश की कई बड़ी व धार्मिक हस्तियों पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। चर्चा के दौरान यह सवाल भी उठ सकता है कि अगर उक्त थाने में राधे मां के स्थान पर बाबा रामदेव या फिर बालकृष्ण जैसी सरकार की प्रिय हस्तियां होती तो क्या व्यवस्था अपने सरकारी तंत्र के खिलाफ वही कड़े कदम उठाती जो मौजूदा हालातों में उठाये गये या फिर सत्ता से नजदीकी व आर्थिक सम्पन्नता को देखते हुए कानून के देखने का नजरिया भी बदला हुआ होता और यह घटना भी उन तमाम मामलों में ही शामिल होती जिनकी जनता को कानों-कान खबर ही नहीं होती। यह माना कि रामवृक्ष, रामपाल, आशाराम और राम-रहीम जैसे तमाम नाम एक-एक कर सामने आने से देश की जनता के बीच आक्रोश का एक माहौल है और हमारे बुद्धिजीवी समाज का एक बड़ा हिस्सा यह चाहता है कि इस प्रकार के तमाम घटनाक्रमों के बाद तथाकथित संत समाज व कथावाचकों को आगे बढ़ाने वाली विचारधारा पर एक अंकुश लगे लेकिन यह भी तय है कि जनता को डंडे के दम पर धार्मिक आयोजनों व सत्संगों में जाने से नहीं रोका जा सकता और न ही हमारा कानून हमें यह इजाजत देता है कि हम किसी व्यक्ति विशेष को किसी धर्मगुरू अथवा तथाकथित बाबा को सम्मान देने से रोक सकें। इन हालातों में दिल्ली पुलिस के इस कर्मचारी ने जो किया वह ऐसा अपराध नहीं है जो क्षमा योग्य न हो लेकिन सरकार की कार्यशैली व जनता के बीच उमड़ते आक्रोश पर सवाल करने से बच रहा मीडिया इस खबर को ले उड़ा और सम्पूर्ण घटनाक्रम को कुछ इस तरह प्रस्तुत किया गया कि मानो यह अछम्य अपराध हो लेकिन अगर दिल्ली पुलिस के एक अदने से कर्मचारी का यह कृत्य अपराध की श्रेणी में आता है और उसे इस भ्रष्ट आचरण की सजा दी जाती है तो उन तमाम राजनीतिज्ञों के धार्मिक कार्यक्रमों और उनके सत्ता में रहते हुए कई विवादित संतों के मठ-मंदिरों या अन्य धार्मिक संस्थानों पर मत्था टेकने के खिलाफ भी कार्यवाही होनी चाहिए जो सिर्फ अपने राजनैतिक लाभ व चर्चाओं में बने रहने के लिए संवैधानिक पदों पर रहते हुए इस तरह का आचरण करते हैं। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि विभिन्न धार्मिक आयोजनों व संत-महात्माओं के प्रवचनों के दौरान उमड़ने वाली भारी भीड़ का लालच हमारे राजनीतिज्ञों को इस तरह के कार्यक्रमों की ओर आकर्षित करता है तथा स्वयं को विशिष्ट बताते हुए अपने प्रचार-प्रसार के लिए आधुनिक तकनीकी व अन्य व्यवस्थाओं का सहारा लेने वाले यह तथाकथित बाबा अपने भक्तजनों व विशेष अवसरों पर उमड़ने वाली भीड़ को यह बताना नहीं भूलते कि उसके दरबार में साधारण लोग ही नहीं बल्कि अमुक-अमुक नेता या सत्ता के शीर्ष पर बैठा जनप्रतिनिधि भी हाजिरी भरने आता है। नतीजतन सामान्य बुद्धि वाली निरीह जनता इन बाबाओं के झांसे में फंस जाती है और कालान्तर में राम-रहीम जैसे तथाकथित संतों के कारनामे सामने आते हैं। इसलिए एक कानून के माध्यम से यह प्रावधान किया जाना आवश्यक हो गया लगता है कि सत्ता के शीर्ष पदों पर पदासीन व्यक्तित्वों के धार्मिक आयोजनों में भागीदारी व धर्मगुरूओं के प्रवचनों या अन्य कार्यक्रमों के दौरान उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति को लेकर एक आचार संहिता बनायी जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि अपनी निजी अथवा जरूरी धार्मिक यात्राओं अथवा सामाजिक आयोजनों के दौरान इन जनसेवकों को किसी भी प्रकार की सरकारी सुविधा अथवा वीआईपी के रूप में मिलने वाली सुविधा से महरूम रखा जाएगा। यदि यह सब संभव नहीं है तो पुलिस के एक साधारण कर्मचारी द्वारा राधे मां या किसी भी अन्य संत को सम्मान दिए जाने की घटना पर इतना बड़ा बवंडर क्यों और इस बिना वजह के मुद्दे को तूल दिए जाने का क्या औचित्य। यह एक सत्य और चर्चा का विषय है कि देश की आजादी के बाद हमारे नेताओं व राजनैतिक दलों ने अपनी राजनैतिक जरूरतों के हिसाब से धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा में फेरबदल किया है और इसे हमारी संवैधानिक कमजोरी ही कहा जा सकता है कि आज आजादी के मात्र सत्तर सालों बाद देश की सत्ता की राजनीति में न सिर्फ धार्मिक व जातिगत मुद्दे हावी हैं बल्कि जनपक्ष का एक बड़ा हिस्सा यह समझ पाने में खुद को असमर्थ पा रहा है कि इस देश का कानून व सरकारी तंत्र किस तरह की व्यवस्था को संरक्षण देना चाह रहा है। सत्ता पर हावी राजनीति अपने तात्कालिक फायदे को देखते हुए किसी भी समस्या या हालात की समीक्षा कर रही है और नितांत निजता का विषय धर्म सार्वजनिक बहस का मुद्दा बना हुआ है लेकिन इस सारी जद्दोजहद में आम आदमी का हित दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता और न ही कोई कानूनविद् अथवा न्यायालय इस तरह के मामलों को स्वतः संज्ञान में लेकर इन तमाम विषयों पर स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने के मूड में है।