त्यौहारों के बदलते स्वरूप | Jokhim Samachar Network

Friday, April 19, 2024

Select your Top Menu from wp menus

त्यौहारों के बदलते स्वरूप

 

बसंतोत्सव (बसंत पंचमी) पर विशेष

यूं तो उत्तरायणी के बाद से ही मौसम में बदलाव के संकेत मिलने लगते हैं और यह माना जाता है कि हाड़ कपकंपा देने वाली सर्दी धीरे-धीरे कर एक मधुर अहसास में तब्दील हो जायेगी लेकिन भारतीय रीति-रिवाजों के अनुसार बसंत पंचमी को खुशगवार मौसम की एक शुरूआत माना जाता है और अनुभवों के आधार पर मौसम की भविष्यवाणी करने वाले बड़े-बुजुर्ग यह मानकर चलते हैं कि इस अवसर के उपरान्त मौसम का करवट लेना तय है। लिहाजा जनसामान्य के बीच खानपान, फसल की कटाई-बुआई का तरीका या फिर तीज-त्यौहार व विवाह आदि जैसे अवसरों पर होने वाले तमाम बड़े आयोजनों के लिए कार्यविधि व कार्यक्रमों का निर्धारण इसी आधार पर करना हमारी भारतीय परम्परा का हिस्सा रहा है लेकिन इधर कुछ समय से देखा जा रहा है कि मौसम का मिजाज न सिर्फ बदलने लगा है बल्कि बदलाव के इस क्रम ने हमारे फसल चक्र एवं उत्पादन की प्रक्रिया को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है और भारतीय समाज में तेजी से घर कर रही आधुनिकता के चलते हमारे चाल-चलन व रीति-रिवाज में आ रहे बदलाव के अनुरूप ही मौसम ने भी नये रंग दिखाने शुरू कर दिये हैं। यह एक बड़ा सवाल है कि प्रकृति के चक्र में तेजी से आते दिख रहे इस बदलाव के लिए असल में कौन जिम्मेदार है और हमारे वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों व सम्पूर्ण मानव सभ्यता की सुरक्षा के लिए तथाकथित रूप से जिम्मेदार मानी जाने वाली जनहितकारी सरकारों ने पर्यावरण में सम्भावित दिख रहे इस बदलाव से निपटने के लिए क्या-क्या तैयारियां की हैं तथा वह कौन से उपाय हैं जिन्हें अपनाकर फौरी तौर पर या फिर दीर्घकालीन रूप से मौसम में आ रहे इस बदलाव के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं से बचा जा सकता है। हालांकि यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि सरकारी तंत्र अपनी तमाम तरह की योजनाओं के जरिये देश की जनता को पर्यावरण संरक्षण व पानी के सीमित इस्तेमाल से जुड़े संदेश देता रहता है और इधर पिछले कुछ वर्षों में देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद एक मुहिम चलाकर अपने आसपास साफ-सफाई रखने के लिए स्वच्छता अभियान का नारा भी दिया है लेकिन इस सबके बावजूद प्रकृति को उसका मूल स्वरूप लौटा पाने में हम असमर्थ दिखते हैं और जाड़ों के इस मौसम देश के एक बड़े हिस्से में लगभग नहीं के बराबर हुई बारिश व बर्फबारी तथा जंगलों में बेमौसम लगी या लगायी गई आग यह इशारा कर रही है कि प्रकृति के लिहाज से सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। हो सकता है कि प्रकृति के मूल स्वरूप में स्पष्ट रूप से आता दिख रहा यह बदलाव वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों के लिए बड़ी चिन्ता का विषय न हो या फिर वातानुकूलित कमरों में बैठकर सरकार चलाने वाले व योजनाएं बनाने वाले हमारे शासक व नौकरशाह इस बदलाव को महसूस नहीं कर पा रहे हों लेकिन अगर आम आदमी के नजरिये से देखें तो हम पाते हैं कि प्रकृति के इस बदले स्वरूप के चलते जनसामान्य के बीच परेशानियों का बढ़ना तय माना जा रहा है और बिना बारिश के लगातार पड़ रही सूखी ठंड ने कई तरह की समस्याओं को जन्म देना भी शुरू कर दिया है। पहाड़ों पर बारिश व बर्फबारी न होने के कारण जहां एक ओर पेयजल के स्वाभाविक स्रोत समय से पहले ही सूखने शुरू हो गए हैं वहीं दूसरी ओर ठंड के इस मौसम में ही तेजी से पिघलना शुरू हो चुके ग्लेशियर एक बड़ी प्राकृतिक आपदा की ओर इशारा कर रहे हैं लेकिन सरकारी तंत्र इन तमाम प्राकृतिक संकेतों को नजरंदाज करते हुए अपनी तयशुदा रणनीति पर ही काम कर रहा है और मौसम की मार के चलते फसलों को होने वाले नुकसान व आपूर्ति की कमी के कारण बाजार में तेजी से बढ़ने वाली जमाखोरी व महंगाई जैसी समस्याओं पर काबू पाने के लिए सरकार ने किसी भी तरह के उपाय शुरू नहीं किए हैं। यह माना कि बारिश, सदी, गर्मी या फिर प्राकृतिक आपदाओं पर सरकार का कोई जोर नहीं है और न ही सरकार के पास ऐसा कोई तरीका ही है कि वह प्रकृति को अपने हिसाब से चलने के लिए मजबूर कर सके लेकिन अगर सरकारी तंत्र चाहे तो वह वर्तमान दौर में चल रही अपनी तमाम योजनाओं को सही तरीके से अमलीजामा पहनाकर हालातों पर काफी हद तक काबू पा सकता है किंतु यह अफसोसजनक है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे नौकरशाहों व राजनेताओं का रूझान हालातों पर काबू पाने की अपेक्षा समस्याओं को लटकाकर रखने या फिर स्थितियों को टालने में ज्यादा है और कई मामलों में यह देखा गया है कि सरकार तथाकथित विकास के नाम पर अपने ही बनाये नियमों की अवहेलना करती दिखाई देती है। सरकारी नियमों का अनुपालन कराते हुए हालातों को काबू में रखने के लिए बने विभाग भ्रष्टाचार का केन्द्र बने हुए हैं और आम आदमी की जरूरतों पर हावी नजर आने वाले कानूनों में छेद ढूंढने के लिए कई तरह के धंधेबाजों ने व्यवसायिक रूप व अन्दाज अपना लिया है लेकिन व्यवस्था इन तमाम विषयों पर चुप्पी साधे हुए है क्योंकि तेजी से बढ़ रहे चुनावी खर्च और ऐशोआराम भरी जिंदगी के लिए जरूरी तमाम छोटी-बड़ी आर्थिक जरूरतों का भुगतान इसी मद से किया जाता है। नतीजतन चंद लोगों की मौज के लिए हम पूरी की पूरी सभ्यता एवं आबादी को एक बड़े खतरे की ओर धकेल रहे हैं और प्रकृति की नेमतों के रूप में मिले तमाम नदी, नाले, पहाड़, झरने व जंगल धीरे-धीरे कर मानवजनित कूड़े के ढेर में तब्दील होते जा रहे हैं। यह ठीक है कि सभ्य मानव समाज की भी अपनी जरूरतें व जीने का अन्दाज है और मानव जीवन में सतत् रूप से चलने वाली विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एवं इस्तेमाल भी जरूरी है लेकिन यह एक गंभीर सवाल है कि यह दोहन या इस्तेमाल हो किस कीमत पर रहा है और इसका सामान्य जनता को क्या नफा या नुकसान है। उदाहरण के लिए अगर गौर करें तो जल का जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान है और सरकारी तंत्र द्वारा जल को दूषित होने से बचाने, इसे व्यर्थ बर्बाद न करने, वर्षा के जल को संरक्षित करने या फिर इसके सीमित इस्तेमाल को लेकर अनेक तरह की उपदेशात्मक नारों के साथ विभिन्न स्तरों पर मुहिम चलायी जाती रही है तथा जल संसाधनों की देखरेख व सही इस्तेमाल को लेकर विभिन्न विभागों का गठन भी किया गया है लेकिन इस सम्पूर्ण कवायद के बावजूद हमारे नदी-नाले व अन्य तमाम जल के स्रोत न सिर्फ तेजी से प्रदूषित होते जा रहे हैं बल्कि भूमिगत् जल का स्तर भी तेजी से नीचे जा रहा है और बारिश या अन्य आसमानी स्रोतों से प्राप्त होने वाले जल को लेकर एक बड़े पैमाने पर मुहिम चलाने के बावजूद हम इस दिशा में भी बहुत ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाए हैं। अगर सामान्य जनता के नजरिये से देखें तो उसे साल के बारह महिने आसानी के साथ उसकी जरूरत भर का जल उपलब्ध हो जाना एक बड़ी उपलब्धि है और राष्ट्र व राज्यों की अधिकांश सरकारें इस उपलब्धि को हासिल करने में असफल ही दिखाई देती हैं लेकिन इसी सरकारी तंत्र की तमाम बैठकों व अन्य दैनिक कामकाज में पेयजल की उपलब्धता बनाये रखने के नाम पर बोतल बंद पानी पर सरकारी खजाने का मुंह कुछ इस तरह खोला जाता है कि मानो सरकार के पास इसका कोई विकल्प ही नहीं है। ठीक इसी तरह पर्यावरण के दूसरे महत्वपूर्ण पहलू माने जाने वाले वनों की अगर बात करें तो हम पाते हैं कि अपनी योजनाओं और सरकारी सोच के हिसाब से सरकारी तंत्र वनों के वजूद को बनाये रखने के लिए संकल्पित नजर आता है और वनों के अस्तित्व को बनाये रखने व वृक्षारोपण आदि अभियानों की निरन्तरता बनाये रखने के लिए सरकार ने कड़े कानूनों के प्रावधानों के साथ ही साथ एक बड़े सरकारी अमले का गठन करने के अलावा तमाम तरह की योजनाओं को भी धरातल पर उतारने का प्रयास किया है लेकिन अगर हकीकत में देखा जाये तो इन तमाम प्रावधानों व सरकारी बाबूओं की फौज अस्तित्व में आने के बाद ही वनों का क्षेत्रफल तेजी से सिकुड़ना शुरू हुआ है और वनों को आग से बचाने या फिर नये वृक्ष लगाने में आम जनता की भागीदारी कम हुई है जबकि इस परिपेक्ष्य में तमाम तरह के कानूनों व प्रावधानों के लागू किए जाने से पूर्व गांव की सामान्य जनता अपने जंगलों व वृक्षों को लगाकर उनकी रक्षा एवं सुरक्षा का दायित्व ईश्वर के भरोसे छोड़ते हुए उन्हें न सिर्फ ग्राम देवता को समर्पित कर देती थी बल्कि वनों में लगने वाली आकस्मिक आग व अन्य परिस्थितियों से वनों को बचाने के लिए ग्रामीण पूरी तत्परता के साथ मैदान में कूद पड़ते थे। आज परिस्थितियां तेजी से बदली हैं और सरकार व इसे चलाने वाले तंत्र ने प्रकृति की दी हुई नेमतों को कमाई का जरिया समझ लिया है और विलासिता के संसाधनों को बढ़ाने के लिए प्रकृति का वैध-अवैध रूप से दोहन जारी है। नतीजतन मौसम और पर्यावरण तेजी से प्रभावित हो रहा है तथा इस बदलाव का असर हमारे रहन-सहन के तौर-तरीकों व मान्यताओं पर भी पड़ने लगा है जिसके कारण पौराणिक काल से मनाये जा रहे तीज-त्यौहार व अन्य आयोजन बेमानी साबित होते जा रहे हैं लेकिन हम फिर भी लकीर पीटने वाले अन्दाज में रस्म अदायगी में जुटे हुए हैं।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *