तेरा दलित या मेरा दलित | Jokhim Samachar Network

Thursday, March 28, 2024

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तेरा दलित या मेरा दलित

तुष्टिकरण की राजनीति के चलते राजनैतिक दल उड़ा रहे है संवैधानिक व्यवस्थाओं का मजाक भारत के सर्वोच्च नागरिक के चुनाव हेतु तैयारियाँ पूरी हो चुकी है और हालातों के मौजूदा समीकरणों के मद्देनजर यह भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि रामलाल कोविंद ही अगले राष्ट्रपति होंगे लेकिन उन्हें प्रत्याशी बनाये जाने से पहले भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने उनके आरक्षित जाति से होने का जिस अंदाज में महिमामण्डन किया उसे देखते हुऐ ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो उन्हें यह पद उनकी योग्यता के आधार पर नही बल्कि एक जाति विशेष का नेतृत्व करने के कारण मिला हो और अगर ऐसा है तो यह पूरी तरह भारतीय संविधान के अनुरूप नही है। हो सकता है कि राष्ट्रपति पद के लिऐ भाजपा की ओर से लालकृष्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी की मजबूत दावेदारी को मद्देनजर रखते हुये भाजपा हाईकमान या फिर राष्ट्रपति के चुनाव में अहम् भूमिका निभाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रामलाल कोंविद के आरक्षित जाति से आने पर ज्यादा बल दिया हो और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को यह लगा हो कि रामलाल जी का आरक्षित समूह से होना भाजपा को राजनैतिक फायदा दे सकता है लेकिन सप्रंग द्वारा भी इस पद के लिऐ मीरा कुमार को वरीयता देने के बाद इस किस्से को यहीं खत्म हो जाना चाहिऐं था किन्तु ऐसा मालुम देता है कि भाजपा व कांग्रेस दोनों ही रामलाल व मीरा कुमार को आगे कर ‘तेरा वाला दलित या मेरा वाला‘दलित‘ जैसा कोई खेल, खेल रहे है और ठीक ‘तेरी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद कैसे‘ वाले विज्ञापन के अंदाज में इन दोनों ही नेताओं के दलित होने या न होने का विश्लेषण शुरू हो गया है। वैसे अगर देखा जाय तो राष्ट्रपति पद के लिऐ किसी भी तरह के आरक्षण का प्रावधान नही है और न ही इन दोनों नेताओ का जीवन स्तर इतना नीचे है कि इन्हें अपने राजनैतिक, सामाजिक अथवा आर्थिक जीवन में आगे बढ़ने के लिऐ किसी भी तरह के आरक्षण की आवश्यता है लेकिन अफसोसजनक है कि इन दोनों ही नेताओं को प्रायोजित करने वाले राजनैतिक दल इन नेताओं को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाये जाने के पूरे घटनाक्रम को कुछ इस तरह प्रस्तुत कर रहे है कि मानो उन्होंने दलितोत्थान के मामले में कोई बड़ी जंग जीत ली हो। हांलाकि संप्रग की प्रत्याशी मीरा कुमार ने अपने एक वक्तव्य में यह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि वह सिर्फ दलित होने के कारण इस पद की प्रत्याशी नही बनायी गयी है बल्कि वह इस पद के अनुरूप सभी योग्यताओं व आर्हताओं को पूरा करती है लेकिन दोनों ही तथाकथित रूप से दलित कहलायें जा रहे प्रत्याशियों में से किसी ने भी यह कहने की कोशिश नही की है कि राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के बाद अथवा चुने जाने पर वह व उनका परिवार देश में आरक्षण व्यवस्था लागू होने के कारण मिलने वाले सभी लाभों को छोड़ देगा। कितना आश्चर्यजनक है कि कुछ ही समय बाद इस देश का सर्वाेच्च नागरिक न सिर्फ अपनी जाति के आधार पर आरक्षण के तमाम लाभ लेता दिखाई देगा बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसे तमाम किस्सें घटित होते रहेंगे जहाँ निम्न आर्थिक स्तर पर जानकारी के आभाव में दलितों को वह सामान्य सुविधाऐं भी नही मिल रही होगी जिनके वह असल हकदार है और यह सबकुछ उस भाजपा के राज में संभव होगा जिसे न सिर्फ जातिगत् आधार पर आरक्षण का विरोधी माना जाता है बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले आरक्षण विरोधी आन्दोलनों में जिस भाजपा के नेताओं की प्रत्यक्ष व परोक्ष भागीदारी हमेशा ही देखी गयी है। खैर मामला राष्ट्रपति के चुनाव का है और यह लगभग तय हो चुका है कि कोरी बिरादरी से आने वाले रामलाल कोंविद देश के नये राष्ट्रपति होंगे तथा सीमित संख्याबल के साथ विपक्ष का विरोध प्रतीकात्मक होगा अर्थात् मीरा कुमार अपनी हार सुनिश्चित जानने के बावजूद भी मैदान में डटी हुई है। इस सबके बावजूद यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने संप्रग को एकजुट करने का बीड़ा उठाने वाली कांग्रेस समुचे विपक्ष के कितने हिस्से को अपने साथ जोड़ पाती है और इसी गणना के आधार पर देश की आगामी राजनीति में कांग्रेस का भविष्य तय होगा। हमने देखा कि कांग्रेस द्वारा एकजुटता का संदेश देने के बावजूद कांग्रेस के तथाकथित युवराज, मीरा कुमार की नांमाकन प्रक्रिया से बाहर रहे जबकि उ.प्र. के बड़े नेता कहे जा सकने वाले पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी इस नांमाकन कार्यक्रम से दूरी बनायें रखी। इसके ठीक विपरीत केन्द्र में भाजपा सरकार के अस्तित्व में आने के बाद पहले पहल बिहार में कांग्रेस को साथ लेकर मोर्चा बनाने वाले नितीश कुमार राष्ट्रपति चुनाव के शुरूवाती दौर में ही इस गठबंधन से बाहर दिखते है जबकि देश के राजधानी दिल्ली में मोदी सरकार की नाक में दम करने वाले तथा अकेले अपने दम पर मोदी मंत्र को धता बताकर दिल्ली प्रदेश की सत्ता हासिल करने में सफल व पंजाब विधानसभा चुनावों में भाजपा के विजय रथ को रोकने का बड़ा कारण कहे जो सकने वाले अरविंद केजरीवाल व उनकी आम आदमी पार्टी ने भी अभी तक अपना पक्ष खुलकर सामने नही रखा है। हांलाकि केन्द्र की सत्ता में दावेदार शिवसेना ने राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर खुलकर विपक्ष के साथ होने के संकेत दिये है और सत्ता पक्ष के साथ समझे जाने वाले दो-एक अन्य छोटे दल भी रामलाल कोविंद के नाम पर सहमत नही बताये जाते लेकिन विपक्ष का प्रमुख हिस्सा माने जाने वाले मायावती व मुलायम सिंह जैसे तमाम नेता इस मुद्दे पर केन्द्र सरकार से सहमत दिखते है और अगर राष्ट्रपति चुनाव की जीत-हार को पैमाना माने तो हम यह दावे से कह सकते है कि आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर विपक्ष को एकजुट करने के मामले में कांग्रेस को कोई बहुत बड़ी सफलता मिलती नही दिख रही। जहाँ तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली का सवाल है तो इन पिछले तीन सालों में यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि अपनी धुन के पक्के मोदी परिणाम की चिन्ता किये बिना तुरत-फुरत में निर्णय लेकर उसे लागू करने की नीतियों पर विश्वास करते है और उनके द्वारा लिये गये नोटबंदी के निर्णय के बाद वर्तमान तक सामने आती दिख तंगहाली व जीएसटी लागू किये जाने के फैसले को लेकर उठ रहे विरोध के स्वरो के बावजूद यह कहा जाना मुश्किल है कि विपक्ष को उनके मुकाबले के लिऐ कोई सर्वमान्य चेहरा आसानी से सुलभ हो पायेगा। इन हालातों में यह जाँच का विषय हो सकता है कि वह कौन से कारण रहे जिनके चलते भाजपा व संघ को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन के मामले में दलित कार्ड खेलने को मजबूर होना पड़ा । सहरानपुर व उसके आस-पास के क्षेत्रों में भड़की दलित बनाम सवर्ण हिंसा के बाद एकबारगी ऐसा जरूर लगा था कि अगर इस विचारधारा को ज्यादा हवा दी गयी तो वाकई में भाजपा की राजनीति को नुकसान पहुँच सकता है लेकिन समय रहते हालातों पर काबू पा लिया गया और अब ऐसा नही लगता कि इस तरह की विचारधारा को शह दे रहा पक्ष आसानी के साथ जनता के जज्बातों में खेल पायेगा, तो फिर वह कौन से कारण रहे जिनके चलते भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की यह मजबूरी थी कि वह राष्ट्र के प्रथम व्यक्ति के चुनाव के मसले को इस तरह जातीय आरक्षण की भेंट चढ़ा दे कि समय-असमय इसकी चर्चा की जा सके। वजह चाहे जो भी हो लेकिन यह तय है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्र्तगत् होने वाले देश के प्रथम नागरिक के चुनाव को जिस तरह जातीय मुद्दे की राजनीति में लपेटकर प्रस्तुत किया गया उससे कहीं न कहीं रामलाल कोविंद की प्रतिभा को ठेस पहुँची है और ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कोविंद अपनी योग्यता, प्रतिभा या फिर फिर संघ के प्रति समर्पण की भावना के बूते नही बल्कि अपनी जाति को आधार बनाकर इस पद तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हो जबकि अगर वास्तविकता में देखा जाय तो राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाये जाने से पहले रामलाल कोविंद को खुद भी यह अहसास नही रहा होगा कि उन्हें इतनी जल्दी यह शुभअवसर मिल सकता है।

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