तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर | Jokhim Samachar Network

Tuesday, April 23, 2024

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तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर

1 मई (मजदूर दिवस पर विशेष) – मजदूर दिवस के अवसर पर ‘‘ दुनिया के मजदूरों एक हो ‘‘ नारों के साथ संगठित श्रमिक शक्ति का शक्ति प्रदर्शन शनै-शनैः फीका पडने लगा है और इसे उदारवादी अर्थव्यवस्था के परिणाम कहें या फिर कल-कारखानों में निरंतरता के साथ बढ़ती जा रही ट्रेड यूनियनों की संख्या के बावजूद श्रमिकों का अपने नेताओं पर घटते विश्वास का नतीजा लेकिन मौजूदा दौर का एक बड़ा सच यह है कि संगठित क्षेत्र के कर्मकारों का श्रमिक आन्दोलन, हड़ताल और शक्ति प्रदर्शन से विश्वास टूटता हुआ दिख रहा है। पिछले दो दशकों में श्रम सुधार के नाम पर सरकारों के कारखानेदारों को कई सहूलियतें दी है और एक चलाकी के साथ श्रमिक संगठनों को कमजोर करने व श्रमिक संरक्षण का दावा करने वाले श्रम मन्त्रालय को शक्तिविहीन करने का खेल पिछले दो-तीन वर्षों में पूर्ण बहुमत की सरकार द्वारा ज्यादा ही तेजी से खेला गया है लेकिन इस सबके लिये सरकार ही एकमात्र दोषी नही है बल्कि वास्तविकता यह है कि पिछले कुछ दशकों में नेता होने का दावा करने वाले श्रमिक प्रतिनिधियों ने भी अपना ज़मीर सरकारों के पास गिरवी रख दिया है और वामपंथी आन्दोलन के लगातार कम होते जा रहे प्रभाव के चलते लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं का प्रतीक माना जाने वाली संसद व विधानसभाओं में घटता दिख रहा वामपंथी नेताओं का प्रतिनिधित्व सरकारी तन्त्र की इस मनमर्जी का बड़ा कारण रहा है। यह ठीक है कि वामपंथी आन्दोलन और सबको समानता का अधिकार जैसे नारों के साथ गरीब, मजलूम व मजदूर की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले श्रमिक संगठनों के बीच से उग्र वामपंथी नारों की हुंकार के साथ नक्सलवाद व माओवाद के दिखाये रास्ते पर चलकर सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से सत्ता हासिल करने की चाह रखने वाली विचारधारा को मिल रही मजबूती ने सामान्य श्रमिक वर्ग का रूझान वामपंथी संघर्षों से हटाया है और मजदूर आन्दोलन को आगे बढ़ाने के नाम पर विभिन्न नामों से छद्म विचारधारा वाले संगठन अपने-अपने नेताओं की जय-जयकार लगाते हुए श्रमिक हितों की लड़ाई लड़ने की बात कहने लगे हैं लेकिन यह भी सच है कि पिछले दो-तीन दशकों से श्रम कानूनों के अनुपालन पर ज्यादा जोर न दिये जाने को लेकर सरकारी दबाव जैसे-जैसे बढ़ा है और कारखानेदारों की मनमर्जी के चलते असायमिक तालाबन्दी, छंटनी व वेतन भत्तों में कटौती जैसी समस्याओं के चलते अस्थायी व स्थायी श्रमिकों को कारखानों से बाहर का रास्ता दिखाने की प्रक्रिया तेज हुई है वैसे-वैसे नक्सली व माओवादी देश की सीमाओं के भीतर मजबूत हुए है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा दौर में पढ़े-लिखें युवाओं की एक बढ़ी संख्या निजी व कार्पाेरेट क्षेत्र में काम कर रही है और कोई भी उद्योगपति एक नये उद्योग की शुरूवात के वक्त अपने साथ कुशल कामगारों व न्यूनतम् शिक्षा प्राप्त कर्मचारियों को लेकर चलना चाहता है। अपने कैरियर के शुरूआती दौर में यह लोग किसी भी श्रमिक संगठन से भले ही न जुड़े हो लेकिन संकट के दौर में श्रमिक संगठनों का अपने हितों के लिए इस्तेमाल करना यह अच्छी तरह जानते है। औद्योगीकरण एवं रोजगार के नये संसाधन पैदा करने के नाम पर सरकार द्वारा उद्योगों को दी जा रही छूट व सुविधाओं की समय सीमा समाप्त होने पर अधिकांशतः यह देखा गया है कि उद्योगपति धीरे-धीरे कर अपना काम समेटने की जुगत में लग जाते है और सरकार द्वारा लगातार कमजोर बनाये जा रहे श्रम कानूनों के चलते इस आकरण की तालाबन्दी या फिर कारखाने को बन्द करने की उद्योगपति की साजिश के कारण एक साथ हजारों-हजार श्रमिक रोेजाना सड़कों पर आ रहे है। श्रमिक वर्ग में आ रही इस नये किस्म की बेरोजगारी तथा अपने जायज हक-हकूक के लिए श्रम विभाग के समक्ष किये जाने वाले अनिश्चितकालीन धरनों व प्रदर्शनों से उकताया श्रमिक या तो व्यवस्था के खिलाफ विदªोही बनकर उग्र वामपंथी रूख अख्तियार कर लेता है या फिर उसका विश्वास अपने इर्द-गिर्द नजर आने वाले श्रमिक संगठनों व श्रमिक नेताओं से हट जाता है। इन दोनों ही स्थितियों में श्रमिक आन्दोलन को नुकसान ही होता है और यह कहने में हर्ज नहीं है कि कामगारों के मामले में सरकार द्वारा अपनायी जा रही यह अन्यायपूर्ण नीति वाम पंथी राजनैतिक दलों का जनाधार कम करते हुऐ उनके वोट-बैंक में सैंध लगाने में सहायक भले ही सिद्ध हो रही हो लेकिन सरकारी तन्त्र के प्रति बढ़ता मजदूरों का गुस्सा जंगलों व आदीवासी क्षेत्रों तक सीमित नक्सालियों व माओवादियों को शहरो, कस्बाई क्षेत्रों व औद्योगिक श्रमिको के नजदीक लाने में सहायक सिद्ध हो रहा है। सरकार को भले ही यह लगता है कि औद्योगिक क्षेत्रों में ‘हायर एंड फायर’ की नीति को लागू करने में सफलता की ओर बढते दिख रहे उसके कदम औद्योगिक विकास को लेकर एक नई कहानी लिख रहे है तथा असंगठित क्षेत्रों के कल्याण के नाम पर निर्माण कार्यो में लगाया जाने वाला श्रमिक कल्याण से जुड़ा उपकर भवन निर्माण से जुड़े मजदूरों को एक नई दिशा दे रहा है लेकिन हकीकत इससे कुछ अलग हटकर है। लगातार शोषण, कम वेतन व असुरक्षित भविष्य के भय का शिकार बने कारखाना मजदूर ‘मई दिवस’ के अवसर पर लाल झण्डा हाथो में थामें वैश्विक स्तर पर मजदूरों की एकता का नारा भले ही न लगाये या फिर चुनावी मौको पर कुछ कतरा शराब का लालच व चन्द सिक्कों की खनक के सहारे इस वर्ग का मत हासिल करने में सत्तापक्ष व बाहुबली लोग सफल भले ही हो जाये लेकिन यह सच है संकट की घड़ी में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित कुछ समर्पित व्यक्तित्व ही मजदूर, मजलूम व किसानों की आवाज उठाते नजर आते हैं और इनकी अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की इच्छाशक्ति व ईमानदारी के साथ अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण की भावना जीवन के कई अन्धेरे व उजाले पक्षों के बारे में विचार करने को मजबूर कर देती है।

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