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Tuesday, April 23, 2024

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जीत के बाद

हिमांचल के साथ ही साथ गुजरात में भी जीत का परचम लहराने के बाद केन्द्रीय सत्ता पर काबिज विचारधारा द्वारा और ज्यादा तेजी से लागू किए जाएंगे आर्थिक सुधार।
तेजी से बढ़ते दिख रहे भाजपा के जनाधार के बीच गुजरात और हिमांचल की सत्ता पर भाजपा के काबिज होने के बाद यह तय हो गया है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी व अमित के नेतृत्व को खारिज करना संयुक्त विपक्ष के लिए आसान नहीं होगा और न ही कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए आगे का राजनैतिक सफर ही आसान होगा। हालांकि आंकड़े यह इशारा कर रहे हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस अपनी मुख्य विपक्ष वाली भूमिका में जमी रहेगी और चुनाव दर चुनाव उसकी राजनैतिक ताकत यूं ही घटती-बढ़ती रहेगी लेकिन जनमत यह इशारा कर रहा है कि आधे-अधूरे जनाधार या फिर जोड़-तोड़ से बनने वाली सरकारों से आजिज आ चुकी देश की जनता अब पूर्ण बहुमत के साथ कठोर फैसले ले पाने में सक्षम सरकारों को पसंद कर रही है जिसके चलते एक सक्षम प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी और कुशल नेतृत्व के रूप में अमित शाह की जोड़ी चुनाव दर चुनाव बुलंदियों को छू रही है या फिर यह भी हो सकता है कि संघ के नवराष्ट्र निर्माण का नारा धीरे-धीरे कर जनता पर असर डाल रहा हो। यह माना कि गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान नोटबंदी व जीएसटी जैसे मुद्दों पर चर्चा ही नहीं हुई और भाजपा के रणनीतिकारों ने पूरे चुनाव को बड़ी ही चालाकी के साथ गुजराती अस्मिता से जोड़ दिया लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि जनता ने आंखें बंद कर मोदी के पक्ष में फैसला सुना दिया या फिर सरकार ने चुनावों की आहट सुनकर मतदाताओं को भरमाने के लिए इन ज्वलंत मुद्दों पर अपना पैंतरा बदला हो बल्कि अगर चुनावी माहौल पर गौर करें तो हम पाते हैं कि गुजरात चुनावों के पहले दौर में ही कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने अपने प्रचार अभियान की शुरूआत मंदिरों से कर मुद्दे से भटकने का संकेत दिया और मंदिर व जनेऊ की चर्चाओं के बीच विकास की बातें या फिर पूर्ववर्ती सरकार की उपलब्धियों पर चर्चाओं का क्रम वहीं थमकर रह गया। नतीजतन भाजपा के नेताओं को मुद्दों से हटने का भरपूर मौका मिला और राजनीति के चतुर खिलाड़ी के रूप में मोदी व अमित शाह की जोड़ी ने गुजरात में अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए ऐसा दांव खेला कि कांग्रेस एक बार फिर चारों खाने चित हो गयी। यह ठीक है कि गुजरात से हटकर हिमांचल में कांग्रेस खुद को पहले से ही कमजोर महसूस कर रही थी और यह माना जा रहा था कि हिमांचल की जनता एक बार फिर सत्ता विरोधी रूझान दिखाते हुए मौजूदा विपक्ष के रूप में सामने खड़ी भाजपा के पक्ष में ही अपना समर्थन व्यक्त करेगी लेकिन हिमांचल के चुनाव नतीजे भी इतने विस्मयकारी होंगे और नोटबंदी या जीएसटी जैसे मुद्दों का गुजरात में कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, यह उम्मीद कांग्रेस के बड़े नेताओं को भी नहीं थी। यह तय है कि चुनाव नतीजों से उत्साहित भाजपा अपने आर्थिक सुधार कार्यक्रम को तेज करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करेगी और सरकार के कुछ नये फैसलों के साथ जनता की मुश्किलों में अभी और इजाफा होगा लेकिन हालात इशारा कर रहे हैं कि देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा सामने आ रही मुश्किलों के बावजूद पूरी तरह सरकार के पक्ष में है जबकि अपने कमजोर संगठनात्मक ढांचे के साथ खड़ी कांग्रेस विरोध के सुरों का नेतृत्व कर पाने में पूरी तरह असफल है। लिहाजा केन्द्र सरकार को आगे भी किन्ही खास मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा और न ही जनता के बीच से कोई बड़ा आंदोलन खड़ा होता दिखाई दे रहा है। लिहाजा यह कहना कठिन है कि आगामी लोकसभा चुनावों में कुछ चैंकाने वाले फैसले सामने आ सकते हैं या फिर मतदाताओं का एक वर्ग मोदी सरकार के फैसलों व कार्यशैली के विरूद्ध खड़ा दिखाई दे सकता है। हमने देखा कि गुजरात के विधानसभा चुनाव में स्थानीय जनता ने क्षेत्रीय आधार अथवा जाति के आधार पर आरक्षण की मांग को भी पूरी तरह खारिज किया है और चुनाव नतीजे यह अहसास करा रहे हैं कि भाजपा के विरोध में माने जाने वाले मुस्लिम मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने भी लीक से हटकर भाजपा के पक्ष में मतदान किया है। लिहाजा यह कहना गलत होगा कि गुजरात व हिमांचल के चुनाव नतीजे सामने आने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में जातिवादी ताकतें मजबूत होंगी या फिर धर्म आधारित राजनीति को बढ़ावा मिलेगा। हां इतना जरूर कहा जा सकता है कि इन दोनों राज्यों के नतीजे केन्द्रीय सत्ता पर काबिज एक राजनैतिक दल के पक्ष में आने के बाद मोदी सरकार को इस चुनावी वर्ष में भी खुलकर काम करने का मौका मिलेगा और विपक्ष के कमजोर होने के बाद वह उसे अनदेखा कर आगे बढ़ने में कामयाब होगी। हालांकि कांग्रेस से जुड़े कुछ लोग व राजनीति का मोदी विरोधी गुट यह मान रहा है कि गुजरात विधानसभा चुनावों में मोदी व केन्द्र सरकार द्वारा अपनी पूरी ताकत झोंकने के बावजूद भाजपा यहां अपने पुराने इतिहास को दोहरा पाने में असफल रही है और भाजपा के क्षत्रपों को अपनी मजबूती वाले कई विधानसभा क्षेत्रों या लोकसभा क्षेत्रों में भी हार का सामना करना पड़ा है लेकिन यहां यह तथ्य भी काबिलेगौर है कि मोदी विगत चार-पांच वर्षों से गुजरात की राजनीति से निकलकर राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा बने हुए हैं और उन्होंने कभी भी गुजरात सरकार के कामकाज के तौर-तरीकों में दखलंदाजी करने की कोशिश नहीं की है लेकिन इस सबके बावजूद न सिर्फ गुजरात में मोदी का जादू सर चढ़कर बोल रहा है बल्कि स्थानीय जनता ने अपने मतदान के माध्यम से पूर्ववर्ती सरकार के कामकाज व कठोर फैसलों को लेकर अपनी सहमति व्यक्त की है। लिहाजा यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि देश तेजी से बदल रहा है और देश की जनता मोदी सरकार अथवा गुजरात की स्थानीय सरकार द्वारा लिए गए कठोर फैसलों से असंतुष्ट नहीं है बल्कि उसे वर्तमान सरकार से अभी भी उम्मीदें हैं। उपरोक्त के अलावा गुजरात चुनाव परिणामों के परिपेक्ष्य में हम यह भी कह सकते हैं कि इस देश की जनता को मोदी सरकार अथवा भाजपा की हिन्दूवादी नीतियों से कोई ऐतराज नहीं है और न ही देश की जनता के समक्ष महंगाई, नोटबंदी या फिर हाल में लागू जीएसटी कानून के प्रावधान, कोई मुद्दा है। हो सकता है कि कुछ वामपंर्थी या धर्मनिरेपक्ष ताकतें यह मानती हों कि गुजरात के इन विधानसभा चुनावों के दौरान सत्तापक्ष द्वारा जानबूझकर धार्मिक मुद्दों को आगे बढ़ाया गया और भाजपा ने पूरी चालाकी के साथ अहमद पटेल व पाकिस्तान के नाम का इस्तेमाल कर जनपक्ष को अपनी ओर करने का प्रयास किया लेकिन अगर तथ्यों की गंभीरता और गुजरात चुनाव के दौरान सामने आए माहौल पर गौर करें तो हम पाते हैं कि गुजरात का यह विधानसभा चुनाव किसी विचारधारा अथवा सरकारी फैसले के पक्ष या विपक्ष में लड़ा गया चुनाव नहीं था बल्कि इस चुनाव में मोदी व राहुल गांधी दो अलग-अलग राजनैतिक ताकतों के रूप में जनता के सामने थे और जनता ने पूरी बेबाकी के साथ राहुल के नेतृत्व को नकारकर मोदी के नेतृत्व को स्वीकार किया। हालांकि अभी लोकसभा चुनावों में एक वर्ष से ज्यादा का समय है और कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी के पास समय है कि वह इस एक वर्ष के अंतराल में अपने संगठनात्मक ढांचे को मजबूती प्रदान करते हुए जनपक्षीय विचारधारा के साथ आगे बढ़ें लेकिन सवाल यह है कि क्या राहुल खुले राजनैतिक मंच से यह स्वीकार कर पाएंगे कि वह मौजूदा सरकार के फैसलों और खुली आर्थिक नीतियों के संदर्भ में लिए गए पूर्ववर्ती सरकार के फैसलों से सहमत नहीं है। अगर नहीं, तो शायद आगे होने वाले लोकसभा परिणामों के नतीजे भी गुजरात के नतीजों से भिन्न नहीं होने वाले।

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