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Saturday, April 20, 2024

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जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश में

एचआईवी संक्रमण या जन स्वास्थ्य जैसे तमाम विषयों पर घटी है सरकार की संवेदनशीलता।
एचआईवी संक्रमण के जानलेवा खतरों से देश की तमाम जनता को आगाह कराते हुए बचाव व रोकथाम की दिशा में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार ने अच्छा काम किया है और इन पिछले दो दशकों में न सिर्फ देश के सभी हिस्सों में इन विषयों को लेकर जागरूकता आयी है बल्कि एक सामान्य एचआईवी मरीज को लेकर सरकार की संवेदनशीलता व सुविधा दोनों में ही बढ़ोत्तरी हुई है लेकिन इस सबके बावजूद हम अभी यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि हमने रोकथाम को उपाय के रूप में अपनाकर एचआईवी मरीजों की बढ़ती संख्या पर काबू पा लिया है या फिर लगातार तेजी से बढ़ती जा रही एचआईवी मरीजों की संख्या का ग्राफ अब धीरे-धीरे कम होने लगा है और अब वह समय आ गया है कि सरकार इस विषय को लेकर निश्चिन्त हो सकती है। अगर आंकड़ों की भाषा में बात करें तो हम पाते हैं कि सरकार द्वारा किए जा रहे प्रसार-प्रचार एवं अन्य जरूरी उपायों के बावजूद अभी वह समय नहीं आया है कि हम एचआईवी संक्रमण के फैलने के खतरे से खुद को दूर मानें या फिर एचआईवी मरीजों के चिन्हीकरण, जांच व इलाज के कार्य को ढर्रे पर चल रही व्यवस्था के भरोसे छोड़ दिया जाय लेकिन खबर मिल रही है कि सरकार इस विषय में जारी किए जाने वाले बजट को कम करने पर विचार कर रही है और विश्व बैंक द्वारा निर्धारित समय सीमा समाप्त होने के बाद इस प्रोजेक्ट को पूरी तरह बंद कर दिए जाने की संभावना है। वैसे अगर सरकार की दृष्टि से देखें तो यह माना जा सकता है कि बड़े पैमाने पर एचआईवी मरीजों के चिन्हीकरण, जागरूकता कार्यक्रम व अन्य तमाम तरह की व्यवस्थाओं का सुदृढ़ीकरण किए जाने के बाद इन तमाम इंतजामातों को पहले से चल रही सरकारी व्यवस्थाओं के भरोसे छोड़ने का निर्णय गलत नहीं था और सरकारी कामकाज में जनभागीदारी की अपेक्षा रखने वाले तमाम स्वयत्तशासी संगठनों अर्थात् एनजीओ से भी यह अपेक्षा की जानी चाहिए थी कि वह जनजागरूकता व प्रसार-प्रचार जैसे कार्यक्रमों को अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए सरकारी कामकाज में सहयोग करते लेकिन सरकार के नियंत्रण में चलने वाली चिकित्सा व्यवस्थाओं व एनजीओ या समाजसेवा के नाम पर होने वाली ठेकेदारी को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि अगर सरकार ने एचआईवी को लेकर चल रहे तमाम कार्यक्रमों, योजनाओं व व्यवस्थाओं से अपना हाथ खींचा तो बड़ी मेहनत के साथ खड़ी की गयी एक पूरी व्यवस्था न सिर्फ धड़ाम करके गिर पड़ेगी बल्कि कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं व उद्देश्य के प्रति समर्पित तमाम निष्ठावान कर्मियों के अथाह प्रयासों से किया गया एक बड़ा कार्य फिर गडमड होकर रह जाएगा क्योंकि एक मजबूत व्यवस्था व अलग तंत्र के चलते बामुश्किल अस्पतालों व एआरटी सेंटरों तक पहुंचाए गए एचआईवी पीड़ितों को पहले से चल रहे स्वास्थ्य केंद्रों के घालमेल के साथ सामंजस्य बैठाने में कई तरह की समस्याओं का सामाना करना पड़ सकता है। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि हमारे देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल बेहाल है और सरकारी तंत्र की नैतिक व सामाजिक जिम्मेदारी होने तथा इस संदर्भ में ठीक-ठाक पैसा खर्च किए जाने के बावजूद हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने इलाज को लेकर या तो निजी संस्थानों पर निर्भर है या फिर उसने खुद को किस्मत के भरोसे छोड़ दिया है। इन हालातों में अगर आंकड़ों के आधार पर बात करें तो हम पाते हैं कि प्रतिवर्ष डेंगू, मलेरिया, पीलिया अथवा भूखमरी व कुपोषण जैसी तमाम छोटी-बड़ी बिमारियों से मरने वाले मरीजों की संख्या एचआईवी संक्रमण से ग्रसित मरीजों की तुलना में कम नहीं है और न ही इनकी जान की कीमत को कम करके आंका जा सकता है लेकिन हमारी सरकारी व्यवस्था ने इन तमाम तरह के मरीजों को तो पहले ही भगवान या निजी संसाधनों के भरोसे छोड़ दिया था और अब ऐसा लगता है कि सरकार एचआईवी संक्रमण की रोकथाम हेतु किए जाने वाले उपायों व मरीजों के इलाज से भी अपने हाथ खींचने वाली है। अगर वाकई में ऐसा है तो इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छा कदम नहीं कहा जा सकता और न ही सरकार चलाने के लिए जिम्मेदार राजनैतिक दलों व विचारधारा से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपनी गरीब रियाया को वर्ड बैंक के रहमोकरम पर छोड़ देगी लेकिन अफसोसजनक है कि ऐसा होता दिख रहा है और स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर बड़े-बड़े भवन व अन्य सुविधाएं जुटाती दिख रही सरकारी मशीनरी को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो सरकारी तंत्र की कोशिश आम आदमी को राहत देने की नहीं बल्कि कंकरीट का जंगल खड़ा कर या अन्य साजो सामान एकत्र कर कमीशन उद्योग को पालने-पोसने की है। हमने देखा कि स्वास्थ्य सुविधाओं में मजबूती लाने के नाम पर सारे देश में अरबों-करोड़ रूपए ठिकाने लगा दिए गए लेकिन आम आदमी को कोई राहत नहीं मिली और न ही एनआरएचएम, इमरजेंसी-108, स्वास्थ्य बीमा योजना या अन्य तमाम नामों से शुरू की गयी सुविधाएं आम आदमी को राहत देने में कामयाब नहीं है। अगर कुछ कर्मठ कर्मचारियों या फिर सेवा भाव से कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं के अथक प्रयासों से एआरटी सेंटर देशभर में अच्छा काम कर भी रहे हैं तो इन्हें व्यवस्था व बजट में कमी के नाम पर पुरानी व्यवस्थाओं का ही हिस्सा बनाकर इनका दम घोटने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसी हालत में यह एक बड़ा सवाल है कि सरकारी मशीनरी के इस रूझान को देखते हुए एड्स मुक्त भारत का स्वप्न कब और कैसे साकार हो पाएगा तथा वह कौन सा दिन होगा जब न सिर्फ एचआईवी पीड़ित ही बल्कि एक सामान्य मरीज भी पूरे हक के साथ सरकारी अस्पताल में जाकर अपने हर तरह के चिकित्सकीय परीक्षण व दवा के संदर्भ में निश्चिन्त हो सकेगा। यह एक अफसोसजनक तथ्य है कि शिक्षा के बाद सरकार का दूसरा सबसे बड़ा दायित्व माना जाने वाला विषय जन स्वास्थ्य भी अब धीरे-धीरे कर बाजारवाद के हवाले किया जा रहा है और पांच सितारा होटल संस्कृति की तर्ज पर बनते अस्पतालों व धनोपार्जन को ही अपना धर्म समझने वाले डाक्टरों के नेताओं, नौकरशाहों व स्वयंसेवियों के साथ मजबूत हो रहे गठजोड़ के चलते यह लगभग तय हो गया है कि आम आदमी की परेशानियां वाकई में बढ़ने वाली हैं। इन हालातों में देशभर में एड्स कंट्रोल की दृष्टि से स्थापित किए गए एआरटी सेंटर व अन्य प्राथमिक उपचार केंद्र कहीं न कहीं आम आदमी को यह भरोसा दिलाते थे कि उनको एक अति गंभीर बीमारी से बचाने और बुरे से बुरे हालात में उसके स्वास्थ्य पर नजर रखने के लिए इन सेंटरों को व्यवस्थित किया जाना व आधुनिक चिकित्साविज्ञान के लिए आवश्यक सुविधाओं से सुसज्जित किया जाना आवश्यक है लेकिन हालात यह इशारा कर रहे हैं कि सरकार धीरे-धीरे कर इस पूरी व्यवस्था से पल्ला झाड़ने के मूड में है और इस तरह के कार्यकलापों, विशेषकर एचआईवी एड्स को लेकर जागरूकता व अन्य चुनौतीपूर्ण कार्यक्रमों के लिए बजटीय प्रावधान तेजी से घटाए जा रहे हैं। लिहाजा यह समझ पाना मुश्किल है कि सरकार आखिर चाहती क्या है और जन सुविधाओं व सामाजिक दायित्वों से अपने हाथ खींचने के बाद सरकारी तंत्र करों के जरिये प्राप्त धनराशि का उपयोग कैसे करना चाहता है?

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