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Friday, March 29, 2024

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जिद पर अड़ी सरकार

नोटबन्दी के चलते सामने आ रही अव्यवस्थाओं के बावजूद ‘आल इज वैल’ का सन्देश देने को मजबूर है सरकारी तन्त्र।

नोटबन्दी को लेकर सरकार ने अभी स्थितियाँ साफ नही की है और सरकार यह बताने को तैयार नही दिखती है कि सरकार द्वारा छापे गये हजार-पाँच सौ के नोटो में से कितने नोट सरकार द्वारा तय की गयी अवधि के दौरान वापस आ गये हैं। हाॅलाकि नोट बन्दी को एक ऐतिहासिक कदम बताने वाले मोदी व उनकी सरकार के मन्त्रियों से भाजपा का निचले स्तर का कार्यकर्ता सहमत नही दिखाई देता और इस मामले केा लेकर धीरे-धीरे कम होते दिख रहे उसके जोश को देखते हुए यह अन्दाजा भी लगाया जाना मुश्किल नही है कि आने वाले पाॅच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान नोटबन्दी को सरकार की अभूतपूर्व सफलता के रूप में प्रचरित करने का मन बनाये बैठी भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकरणी इस मुद्दे पर रक्षात्मक कदम उठा सकती है। यह ठीक है कि केन्द्र सरकार की ओर से नोट बन्दी को उत्साहजनक बताने की कोशिश कर रहे वित्तमन्त्री ने आॅकड़ो का सहारा लेते हुए यह बताने की कोशिश की है कि सरकार द्वारा लिये गये इस फैसले का विपक्ष द्वारा किये जा रहे प्रचार के विपरीत असर पड़ा है और इन पिछले दो महिनो में नकदी के लेनदेन पर लगायी गयी रोक के चलते रिश्वतखोरी व भ्रष्टाचार के मामले कम हुए है लेकिन सरकार द्वारा प्रचारित किये जा रहे प्लास्टिक मनी व कैशलैश ट्रान्जक्सन जैसे जुमलो को पैट्रोल पम्पो के मालिको के संगठनो द्वारा दी जा रही चेतावनी व बैंक कर्मियों का आक्रोश जैसे तमाम मुद्दे ही आईना दिखा रहे है और सरकार का यह कथन तर्कसंगत नही लगता कि नगदी के लेन देन पर प्रभावी रोक लगाकर व्यवस्था को सुधारा जा सकता है। सरकार द्वारा फरवरी माह की पहली तारीख को अपना बजट पैश कर पाॅच राज्यों के विधानसभा चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश यह इशारा कर रही है कि सरकार भी जनता के रूख को देखकर थोड़ी डरी हुई है और वह नही चाहती कि इन राज्यों से आने वाले चैकाने वाले परिणाम विपक्ष को सरकारी कामकाज के तरीके पर उंगली खड़ी करने का मौका दें लेकिन अपनी जिद के चलते मोदी जनता के समक्ष यह स्वीकार करने को भी तैयार नही है कि नोटबन्दी के मुद्दे पर सरकार द्वारा लिये गये सही फैसले को लागू करने के लिए सरकार ने कुछ भी तैयार नही की हुई थी जिस कारण जनसामान्य को अकारण ही कई तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। भारी संकट में फंसी जनता की दिक्कत को छोटी-मोटी परेशानी कहकर टालने की कोशिश करने वाले तथा अपने हर कथन में राष्ट्र भक्ति के जुमले का इस्तेमाल करने वाले भाजपा के भक्त इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नही है कि मोदी सरकार द्वारा किये गये इस असफल प्रयोग के कारण के कारण न सिर्फ औद्योगिक मन्दी का माहौल है बल्कि देश के लगभग हर कोने में निम्न मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा परेशान है और अगर राजनैतिक जागरूकता की दृष्टि से देखा जाए तो सरकार बनाने या बिगाड़ने में इसी वर्ग का योगदान सबसे अधिक रहता हैं। यह माना जा रहा है कि देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा रोज कमाकर खाने की संस्कृति पर विश्वास करता है और खेतिहर मजदूर, निर्माण कार्यों में लगे कुशल व अकुशल श्रमिक तथा अन्य तमाम तरह के दिहाड़ी मजदूर इस नोटबन्दी की व्यवस्था के बाद दुखी है क्योकि नकदी के आभाव में उनके काम करने के अवसर घट गये है तथा ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कारखाना मजदूरो व असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए अघोषित छटनी का दौर शुरू हो गया है लेकिन देश के हुक्मरान इसे मानने को तैयार ही नही है और जुमलो की भाषा में बात करने वाले देश के प्रधानमंत्री यह उम्मीद कर रहे है कि पिछले कई बारो की तरह इस बार भी जनता उनके बहकावे में आ जायेगी। हाॅलाकि आगामी पाॅच राज्यों के विधानसभा नतीजों से मोदी की सरकार को कोई फर्क नही पड़ने वाला और न ही हाल-फिलहाल अगले एक वर्ष तक राज्यसभा के राजनैतिक समीकरणों में किसी तरह के बदलाव की उम्मीदें है लेकिन उत्तरप्रदेश,उत्तखण्ड व पंजाब राज्यों से भाजपा को अपने पक्ष में नतीजे आने की उम्मीद है क्योकि इन राज्यों की जनता ने लोकसभा चुनावों के वक्त भाजपा के पक्ष में पूरी एकजुटता के साथ मतदान किया था और भविष्य में होने वाले लोकसभा चुनावों में भी इन राज्यों का समर्थन पाये बिना अपनी सरकार को बचाये रखना भाजपा के लिए आसान नही लगता। मोदी यह अच्छी तरह जानते है कि देश की हिन्दी भाषी पट्टी में जब तक भाजपा का असर बना हुआ है तब तक उसे सत्ता से बाहर किया जाना आसान नही हैं, और शायद यही वजह है कि मोदी सरकार अपने इस असर को बनाये रखने के लिए इन राज्यों के विधानसभा चुनावों से पूर्व आगामी वित्तीय वर्ष का वार्षिक बजट सदन के सम्मुख रख वाहवाही लूटना चाहती है। हो सकता है कि प्रधानमंत्री द्वारा लायी गयी इस नोटबन्दी योजना व बहुप्रचारित कैशलैस स्कीम के कुछ दीर्घकालीन फायदे भी हो और जैसा कि सरकार द्वारा बताने की कोशिश की जा रही है उन्ही आॅकड़ो के अनुरूप आयकर विभाग की मदद से चार-पाॅच लाख करोड़ रूपये का काला धन या वित्तीय हेरफेर सरकार की नजरों में आ जाये लेकिन इस सारी जद्दोजहद का आम आदमी को कोई फायदा होगा, ऐसा नही लगता जबकि नोटबन्दी की स्थिति में सबसे ज्यादा परेशानी इसी आम आदमी व रोज कमाकर खाने वाले वर्ग ने उठानी पड़ी है और इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि सामान्य वर्ग की घरेलू महिलाओं व गृहणियों द्वारा आड़े वक्त में इस्तेमाल के लिए सम्भालकर रखे गये धन का लगभग समुचा हिस्सा इस वक्त बैंको में जमा हो जाने के कारण इस वर्ग की परेशानी वास्तव में बढ़ गयी है। नोटबन्दी के हालातों में बढ़ी इस परेशानी को प्रधानमंत्री द्वारा दिया गया कैशलेस का नारा कम कर पाने में असमर्थ है और दूसरा कैशलेस भुगतान की स्थिति में काटे जाने वाले सर्विस चार्ज को लेकर सामने आ रही दुविधा से जनसामान्य के बीच अभी भी असंमजस का माहौल है। भाजपा के लोग जनता के बीच जाकर इन भ्रान्तियों को दूर करने या फिर जनता की जायज परेशानी को सरकारी हुक्मॅरानो तक पहुॅचाने का काम करने की जगह सिर्फ जुमलो या नोटबाजी के जरिये मोदी का महिमा मण्डन करने में लगे है और जनसामान्य को देश प्रेम का पाठ पढ़ाकर एक गलत फैसले को सही साबित करने का प्रयास किया जा रहा है। हाॅलाकि अब यह सम्भव व तर्कसंगत नही दिखता कि मोदी एक हजार व पाॅच के नोट बन्द करने के अपने फैसले को वापस ले और न ही सारे देश में रातोरात एटीएम व मिनी बैंक बन्द कर कैशलेस व्यवस्था लागू की जा सकती है। वैसे भी कैशलेस भुगतान को लेकर सामने आ रही भ्रान्तियों व इसमें काटे जा रहे कमीशन की विसंगतियों को दूर किये बिना किसी भी व्यवस्था के लिए यह सम्भव नही है कि जनता को जोर-जबरदस्ती इस तरह के संसाधनो के इस्तेमाल के लिए बाध्य करे। इसलिए सरकार व रिजर्व बैंक को चाहिए कि बाजार के हालात दुरूस्त करने व आम आदमी की जिन्दगी को ढर्रे पर वापस लाने के लिए वह अपनी जिद छोड़कर बाजार में नकदी नोटो को प्रवाह को तेज बनाये।

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