सत्ता पर काबिज होने के बाद छात्रो के बीच कमजोर होती दिख रही भाजपाई विचारधारा से जुड़ी इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्
अगर छात्र राजनीति में राजनैतिक दलो की दखलंदाजी को सही मानते हुऐ छात्र संघ चुनावों के नतीजों को राजनैतिक विचारधारा के आधार पर गठित छात्र संगठनो की जीत-हार के नजरिये से देंखे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि एक के बाद एक कर सामने आ रहे छात्र संघ चुनावों के नतीजों में कांग्रेसी विचारधारा पर आधारित एनएसयूआई उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज भाजपा की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले एवीबीपी पर भारी पड़ रहा है। हांलाकि यह आश्चर्यजनक सत्य है कि उत्तराखंड की सत्ता पर पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार बनने के बाद प्रदेश की युवा पीढ़ी विशेषकर छात्रो के बीच भाजपा या एबीवीपी को लेकर रूझान कम हो रहा है जबकि वर्तमान तक यह माना जाता था कि भाजपा के लगातार बढ़ते दिख रहे राजनैतिक ग्राफ के पीछे युवा वर्ग व छात्रो की विशेष भूमिका रही है और अगर पिछले दस सालों में (लिंगदोह कमेटी की सिफारिशे लागू होने के बाद) सामने आये चुनाव नतीजों पर गौर करें तो हम पाते है कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इन पिछले दस सालो में न सिर्फ छात्रो के बीच पकड़ बनायी है बल्कि नये महाविद्यालयों में चुनाव जीतने के अलावा उसने अपनी लगभग अधिकांश जीत को बरकरार रखने का भी प्रयास किया है लेकिन इधर पिछले एक वर्ष के भीतर ऐसा क्या हुआ कि परिषद द्वारा मैदान में उतारे जा रहे तमाम प्रत्याशी धड़ाधड़ हारते नजर आ रहे है और ऐसा मालुम दे रहा है कि छात्र जनता की आवाज बनकर उत्तराखंड में नवगठित सरकार के विरूद्ध अपना फैसला सुना रहे है। यह ठीक है कि छात्र राजनीति को सीधे तौर पर प्रदेश के हालातों या सरकार के विरूद्ध जनादेश से नही जोड़ा जा सकता और न ही कुछ महाविद्यालयों में विद्यार्थी परिषद के प्रत्याशियों को मिली हार को आधार बनाते हुऐ एक बहुमत वाली सरकार के खिलाफ जनादेश की संज्ञा दी जा सकती है लेकिन अगर सवाल सरकार की लोकप्रियता का अंदाजा लगाने या फिर आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर कयास लगाने का हो तो इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता छात्रसंघ चुनावों में विद्यार्थी परिषद को लगातार मिल रही शिकस्त इस बात का प्रतीक है कि प्रदेश की भाजपा सरकार आम आदमी के पैमाने पर खरी नही उतर रही। शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी बदलाव लाने की बात करने वाली संघ की विचारधारा से ओतप्रोत राजनैतिक संगठन के रूप में भाजपा जब केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुई तो यह माना गया सत्ता पर लम्बे समय तक कब्जेदारी बनाये रखने के लिये भाजपा के नेता अपने तमाम अनुषांगिक संगठनो के माध्यम से जनता के बीच अपनी पहुँच व पकड़ को मजबूत करने के लिऐ विशेष प्रयास करेंगे और ऐसा हुआ भी लेकिन छात्रो व युवाओं के बीच पकड़ बनाने के लिऐ संघ के रणनीतिकारों ने तार्किकता के स्थान पर भावानात्मक मुद्दो व धर्म का सहारा लेना ज्यादा उचित समझा और तथाकथित राष्ट्रवाद के नाम पर छात्रो व युवाओ के बीच तेजी से पैठ बना रही भाजपा ने जेनएयू जैसे कैंम्पसों पर काबिज होने के लिऐ हिंसा का सहारा लेेने में कोई बुराई नही समझी। जब तक भाजपा सत्ता से बाहर रही तो बदलाव लाने के नाम पर यह सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा और भाजपा के केन्द्रीय सत्ता पर काबिज होने के बाद भी छात्रो व युवाओं में यह उम्मीद बनी रही कि देश के प्रधानमंत्री के रूप में तमाम छोटी-बड़ी समस्याओं से अकेले जूझ रहे मोदी जी देर सबेर बेरोजगारी व उच्च शिक्षा क्षेत्र मंे सुधार जैसी आवश्यकताओं पर ध्यान अवश्य देंगे लेकिन इधर प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री के रूप में संघ की विचारधारा के संवाहक माने जाने वाले धन सिंह रावत की ताजपोशी के बाद उनके द्वारा छात्रो को पढ़ाये जा रहे अनुशासन के पाठ तथा व्यवस्था सुधारने के नाम पर प्रदेश के तमाम महाविद्यालयों में राष्ट्रीय ध्वज लगाये जाने, उसकी ऊँचाई व ड्रेस कोड जैसे विषयों चलायी जा रही बहस से छात्रो व युवाओं का एक बड़ा हिस्सा संतुष्ट नही है और छात्र संघ चुनावों के परिणाम देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो छात्रो के बीच एबीवीपी का जनाधार घटा है। यह माना कि प्रदेश के सबसे बड़े महाविद्यालय माने जाने वाली डीएवी काॅलेज देहरादून में छात्र संघ अध्यक्ष पद पर इस बार भी एबीवीपी का कब्जा लगातार ग्यारवें साल बरकरार रहा है और कुमाँऊ के एमवीपीजी काॅलेज हल्द्वानी समेत कुमाँऊ विश्वविद्यालय के तमाम कालेजों व नैनीताल या अल्मोड़ा कैम्पसों में अभी तक चुनाव नही हुऐ है लेकिन अगर मिल रहे रूझानों व छात्र संघ चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो हम पाते है कि कुल मिलाकर इस बार छात्रों विशेषकर महिला मतदाताओं के बीच एबीवीपी की स्वीकार्यता घटी है और किसी भी राजनैतिक दल के राजनैतिक भविष्य के लिऐ यह हितकर नही है कि देश व दुनिया की आधी आबादी का भरोसा उसके उपर से टूटे। अगर राजनैतिक हालातों पर गौर करें तो हम पाते है कि उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद से ही यहाँ छुटपुट रूप से शराब का विरोध होता रहा है और राज्य गठन से पूर्व प्रदेश भर के लगभग सभी हिस्सों व सभी वर्गो की भागीदारी से शुरू आरक्षण विरोधी आन्दोलन के अलग राज्य की मांग में तब्दील होने के बाद यह पहला मौका है जब प्रदेश के लगभग सभी हिस्सों में महिलाओं द्वारा किसी आन्दोलन में खुलकर भागीदारी की गयी है। यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि हालियाँ विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा तत्कालीन हरीश रावत सरकार पर शराब माफिया व अवैध खनन को शह देने के आरांेप लगाकर सत्ता में आयी थी और चुनाव के लिऐ जनता के बीच जाने से पूर्व भाजपा के नेताओं ने डेनिस को खूब उछाला था लेकिन इधर त्रिवेन्द्र सिंह रावत के सत्ता पर काबिज होने के बाद न सिर्फ प्रदेश के लगभग सभी हिस्सो से शराब की दुकानों के विरोध की खबरें लगातार आ रही है बल्कि शराब की दुकानों के खोलने-बंद करने के समय में बार-बार होने वाली तब्दीली, राजस्व बढ़ाने के नाम पर राज्य के भीतर चलायी जा रही शराब बिक्री के मोबाइल वाहनांे से जुड़ी खबरें तथा बार के लाईसेन्स जारी किये जाने के परिपेक्ष्य में सरकारी स्तर पर लगातार हो रही थुक्काफजीहत को देखकर ऐसा लगता है कि मानो यह सरकार सिर्फ शराब बेचने के लिऐ ही काम कर रही है। आश्चर्य का विषय यह है कि छात्रों व अन्य युवा संगठनो के बीच अपनी पकड़ बनाये रखने के लिऐ भाजपा के रणनीतिकार देश का भविष्य माने जाने वाली युवा पीढ़ी को शराब के धंधे से जोड़ने में नहीं हिचक रहे और अगर सूत्रों से मिली खबरो को सही माना जाय तो हम यह कह सकते है कि प्रदेश की टीआरएस सरकार द्वारा छात्रों के बीच अपनी विचारधारा वाले संगठन को मजबूती देने के नाम पर एबीवीपी के बड़े नेताओं को देशी शराब की केन्टीनो के ठेके तक दिये गये है। अगर ऐसा है तो छात्रसंघ चुनावो में मिली हालिया जीत को एबीवीपी की विचारधारा की जीत नही कहा जा सकता और न ही यह उम्मीद की जा सकती है कि इन तौर-तरीको से भाजपा का जनाधार पूर्व की भांति कायम रह पायेगा।