तीन तलाक को लेकर कानून बनाने की ओर अग्रसर है केन्द्र की भाजपा सरकार।
भारतीय लोकतंत्र में ऐसे अवसर कम ही दिखाई पड़ते हैं जब देश की सर्वोच्च सत्ता पर विराजने वाली तथाकथित रूप से लोकतांत्रिक सरकारें धर्मनिरपेक्ष होकर व्यापक जनकल्याण की भावना से अपना निर्णय ले और अपने वोट बैंक के लिए चिंतित राजनैतिक दल साम्प्रदायिक तुष्टीकरण की भावना से ओत-प्रोत होकर सरकार की मंशा पर सवाल उठाने की जगह व्यापक जनहित को मद्देनजर रखते हुए सरकार के फैसले में साथ दिखे या फिर उसे मूक समर्थन दे लेकिन इधर तीन तलाक के मुद्दे पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान एक लंबे अर्से बाद ऐसा नजारा देखने को मिला और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि सरकार द्वारा इस विषय को लेकर कानून बनाए जाने के लिए किए जा रहे प्रयासों के तहत देश के अधिकांश विपक्षी दलों की भावनाएं भी तीन तलाक से पीड़ित मुसलिम सम्प्रदाय की महिलाओं के साथ दिखी। हालांकि मुस्लिम लीग व ओवेसी जैसे नेताओं ने सरकार के इस प्रयास को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप बताते हुए न सिर्फ इसकी निंदा की बल्कि सदन में इसका पुरजोर विरोध भी किया लेकिन कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस व अन्य विपक्षी राजनीतिक दल इस ज्वलंत मुद्दे को लेकर सरकार के पक्ष में खड़े दिखे या फिर यह भी हो सकता है कि भाजपा के पक्ष में तेजी से एकजुट होती दिख रही हिन्दूवादी ताकतों ने इन विपक्षी दलों को मजबूर किया हो कि वह मुल्ला-मौलवियों का तुष्टीकरण लगने वाले इस ज्वलंत मुद्दे से दूरी बनाए रखे। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस्लाम में प्रचलित तीन तलाक की मान्यता किसी भी आधार पर न्यायसंगत नहीं है और एक सम्प्रदाय विशेष के बीच प्रचलित इस कुरीति के कारण शादीशुदा मुस्लिम महिलाओं को कई बार अपमानजनक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है लेकिन देश के भीतर काम करने वाले तमाम मानवाधिकारवादी व महिला संगठन अब तक इस ज्वलंत मुद्दे से दूरी बनाये हुए थे क्योंकि देश की राजनैतिक सत्ता पर काबिज सरकारें एक वर्ग विशेष को नाराज करने की हिम्मत जुटाती नहीं दिख रही थी और न ही यह उम्मीद की जा रही थी कि कोई भी सरकार इस परिपेक्ष्य में कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं को राहत देने के लिए आगे आ सकती है। जहां तक केन्द्रीय सत्ता पर काबिज भाजपा का सवाल है तो यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि भारतीय राजनैतिक परिपेक्ष्य में इसे एक हिन्दूवादी मानसिकता वाला राजनैतिक दल माना जाता है और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे कट्टर हिन्दूवादी संगठन के दिशा-निर्देश पर कार्य करने वाले इस राजनैतिक दल को लेकर तमाम विपक्षी दलों द्वारा समय-समय पर यह प्रचारित किया जाता रहा है कि राम मंदिर के निर्माण समेत तमाम विवादित मुद्दे उठाने के साथ ही साथ भाजपा के नेता, संघ के कार्यकर्ताओं की मदद से इसे एक हिन्दू राष्ट्र घोषित करना चाहते हैं लेकिन इधर मुस्लिम महिलाओं से जुड़े इस संवेदनशील मुद्दे को उठाकर भाजपा के नेताओं ने मुस्लिम वोट-बैंक के एक हिस्से में सेंध लगाने का प्रयास किया है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकार का यह फैसला वाकई मुस्लिम महिलाओं को राहत देने वाला है। सरकार के इस पैंतरे के बाद विपक्षी दलों के नेता सन्न हैं क्योंकि अब तक खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हुए नेताओं का यह तबका हमेशा ही वोट बैंक की राजनीति करता रहा है और मुस्लिम मतदाताओं को एकजुट रखने के लिए विपक्ष ने हमेशा ही भाजपा की हिन्दूवादी मानसिकता को निशाने पर रखा है लेकिन तीन तलाक के मुद्दे पर सरकार द्वारा उठाए गए कदम और सत्तापक्ष द्वारा इस विषय पर कानून बनाए जाने के संदर्भ में किए जा रहे प्रयासों के बाद यह लगभग स्पष्ट हो रहा है कि भाजपा हिन्दूवाद या हिन्दू राष्ट्र के नाम पर मुस्लिम मतदाताओं के बीच डर का साम्राज्य नहीं चाहती बल्कि उसकी कोशिश इस सम्प्रदाय की खामियों को दूर करते हुए राष्ट्रवादी मुस्लिमों को देश के विकास के मुद्दे पर साथ लेकर चलने की है। हालांकि अभी यह मानना जल्दबाजी होगी कि तीन तलाक के इस मुद्दे पर सरकार द्वारा की गयी पहल को सार्वजनिक रूप से स्वीकृति मिलने के बाद सरकार इस दिशा में और भी नये प्रयास करने पर विचार करेगी या फिर अधिसंख्य रूप से मेहनतकश तबके व रोज कमाकर खाने वाले वर्ग से जुड़े इस्लामिक सम्प्रदाय के लोगों को शिक्षा व बेहतर रोजगार से जोड़ने के लिए सरकार द्वारा नये सिरे से योजनाएं बनाने पर विचार किया जाएगा लेकिन यह तय है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने तीन तलाक के मुद्दे पर पीड़ित मुस्लिम महिलाओं के साथ खड़े होकर एक ऐसी चाल चली है जिसका कोई जवाब विपक्ष के पास नहीं है। यह ठीक है कि विपक्ष अगर सरकार के विरोध में सड़कों पर उतरना चाहे तो उसके पास मुद्दों की कमी नहीं है और वह तमाम समस्याएं अभी भी बदस्तूर बनी हुई हैं जिन्हें मुद्दा बनाकर भाजपा के रणनीतिकार पिछले लोकसभा चुनाव के लिए जनता के बीच गए थे लेकिन इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले चार वर्षों के शासनकाल में भाजपा का शीर्ष नेतृत्व स्वयं को राष्ट्रवादी एवं जनसामान्य के हितों को लेकर चिंतित साबित करने में सफल रहा है और सरकार ने सत्ता पक्ष के पास मौजूद जमीनी कार्यकर्ताओं की टोली व देश के प्रधानमंत्री के रूप में बनी नरेन्द्र मोदी की मजबूत छवि का पूरा फायदा उठाया है। जहां तक तीन तलाक का सवाल है तो यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि मुस्लिम बिरादरी के बीच भी इस प्रथा को बहुत अच्छे नजरिए से नहीं देखा जाता और अगर जनसंख्यीय आंकड़ों के लिहाज से गौर करें तो हम पाते हैं कि देश में सामने आ रहे बलात्कार, अपहरण, कन्या भू्रण हत्या अथवा अन्य ऐसे ही तमाम महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के मुकाबले तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं की संख्या बड़ी सीमित है लेकिन सरकारी पक्ष ने बड़ी ही चालाकी के साथ इसे एक बड़े मुद्दे का रूप देकर इस पर कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष की जुबान बंद कर दी है और यह तय है कि आने वाले कल में सरकार अगर ऐसे ही दो-चार नये फैसले लेने की दिशा में आगे बढ़ती है तो मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते हुए उन्हें एक वोट बैंक के रूप में एकजुट करने वाली मानसिकता पर विराम लगेगा जिसके चलते भारतीय मतदाता को अपने हित-अहित को देखते हुए स्वतंत्र रूप से मतदान करने की दिशा में एक आजादी मिलेगी। हमने देखा की तरक्की पसंद मुस्लिम समाज न सिर्फ तीन तलाके के मुद्दे पर सरकार के साथ है बल्कि महिलाओं द्वारा किए जाने वाले पर्दे को लेकर भी मुस्लिम महिलाएं धीरे-धीरे कर एकजुट होती दिख रही हैं लेकिन इसके ठीक विपरीत हिन्दू धर्म के अनुयायियों को धर्म, जाति अथवा वर्ण के आधार पर लामबंद करने की कोशिशें तेज हुई हैं और हाल के कई चुनावों में भाजपा को मिली एक के बाद एक सफलता ने राजनेताओं को मजबूर किया है कि वह कट्टरवादी हिन्दू ताकतों को खुश रखने का प्रयास करे। शायद यही वजह है कि चुनावी मौसम में गोल टोपी पहनकर दरगाहों के चक्कर लगाने वाले नेता अब मंदिरों व शिवालयों से अपने चुनाव प्रचार का कार्यक्रम प्रारंभ करते दिखाई दे रहे हैं और सार्वजनिक मंचों से चुनावी फतवों का ऐलान नहीं सुनाई पड़ रहा लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह किसी एक राजनैतिक दल या विचारधारा के पीछे भागकर हम भारतीय संविधान की व्यापक जन कल्याण की भावना को नजदीक से छू भी पाएंगे या फिर हमारी राजनीति सिर्फ चुनाव और सत्ता प्राप्ति के खेल तक सीमित होकर रह जाएगी।