एक बार फिर राहुल की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ताजपोषी को लेकर अटकलों का दौर जारी।
राजनैतिक चर्चाओं व खबरों पर अगर भरोसा करें तो यह कहा जा सकता है कि राहुल अब कांगे्रस की बड़ी जिम्मेदारी संभालने को पूरी तरह तैयार हैं और अध्यक्ष के रूप में उनकी ताजपोशी की अंदरूनी तैयारियां पूरी तरह मुकम्मल कर ली गयी हैं। वैसे अगर हालातों पर गौर करें तो राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष बनने या न बनने से हालातों पर कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला और न ही देश की राजनीति में ऐसे कोई मुद्दे हैं जिन पर राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद ही अहमियत दी जानी हो लेकिन इस खबर के जरिये कांग्रेस के लोग पिछले कई वर्षों से अपने कार्यकर्ताओं में जान फूंकने की कोशिश कर रहे हैं और हालात हैं कि जस के तस बने हुए हैं। राजनीति के लिहाज से गौर करें तो राहुल गांधी पहली ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें गांधी खानदान से जुड़ा होने के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति में जगह बनाने के लिए इतनी मशक्कत करनी पड़ रही है वरना देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू देश की आजादी के चलते राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पसंद पर आजाद भारत की बागडोर संभालने को तैयार हुए तो उस वक्त उनकी टक्कर में कई अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व बड़े कद के नेता मौजूद थे। इसके ठीक बाद इंदिरा गांधी ने जब कांग्रेस की बागडोर संभाली तो उस वक्त कांग्रेस में कई बड़े चेहरे मौजूद थे और कांग्रेस के भीतर से इस परिवारवादी फैसले को चुनौती देने का प्रयास भी हुआ लेकिन इंदिरा ने अपने राजनैतिक कौशल व लोकप्रियता की आड़ में हर चुनौती को दरकिनार कर दिया और फिर उनकी आकस्मिक हत्या के बाद राजीव गांधी को राजनीति में लाया गया। पेशे से पायलट राजीव गांधी को राजनीति का कोई शौक नहीं था और न ही उन्होंने अपनी मां के रहते इसमें आने की कोई कोशिश ही की लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं व इंदिरा गांधी के विश्वसनीय लोगों को राजीव ही ऐसे चेहरे लगे जिन पर जनता विश्वास कर पाती और जो कांग्रेस को जोड़कर चलने में सफल रहते। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक गैर अनुभवी राजनीतिज्ञ होने के बावजूद राजीव गांधी सरकार ने ऐसे तमाम ऐतिहासिक फैसले लिए जो बाद में मील का पत्थर साबित हुए और एक चुनावी सभा के दौरान हुई उनकी नृशंस हत्या ने कांग्रेस को फिर नेतृत्व विहीन कर दिया। हालांकि इस बार कुछ बुजुर्ग व अनुभवी कांग्रेसियों ने बिना गांधी परिवार का सहारा लिए अपने दम पर नया नेतृत्व खड़ा करने व सरकार चलाने का फैसला लिया और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस दौर में लिए गए कई महत्वपूर्ण फैसलों ने भारतीय राजनीति की दिशा व दशा दोनों ही बदल दी लेकिन यह सब कुछ ज्यादा लंबे समय के लिए ऐसे ही नहीं चल सका और तमाम कांग्रेसी नेताओं ने महसूस किया कि कांग्रेस को एकजुट रखने व चुनाव जीतने के लिए उन्हें गांधी परिवार के सहारे की जरूरत है। नतीजतन सोनिया गांधी को आगे लाया गया और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि राजनैतिक अनुभवहीनता के बावजूद सोनिया ने पुराने नतीजों व पारिवारिक अनुभवों के दम पर कई बड़े फैसले किए जिनके चलते कांग्रेस एक बार फिर दस सालों तक सत्ता के शीर्ष पर काबिज रही लेकिन इन दस सालों में यह पहली बार था जब गांधी परिवार का कोई भी चेहरा सक्षम होने के बावजूद सरकार का अंग नहीं था। सोनिया अगर चाहती तो प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी कर सकती थी या फिर राहुल अथवा प्रियंका में से किसी भी एक को सरकार में सर्वोच्च शक्तिशाली मंत्री बनाया जा सकता था लेकिन राहुल ने अनुभवों के जरिये कुछ सीखने का प्रयास किया और वह सत्ता का सुख लेने के स्थान पर संगठन को मजबूती दिए जाने के फार्मूलों की तलाश में जुट गए। हो सकता है कि उनके द्वारा आजमाया गया पार्टी के संगठनात्मक चुनाव का मुद्दा कांग्रेस के कई बड़े नेताओं को रास नहीं आया हो और यूथ कांग्रेस के साथ ही साथ एनएसयूआई जैसे संगठनों के प्रदेश अध्यक्ष के अलावा जिलास्तरीय प्रतिनिधि चुने जाने के मामले में संगठनात्मक स्तर पर बरती जा रही पारदर्शिता ने स्थापित नेताओं के दरबार में हाजिरी कम कर दी हो लेकिन यह तय है कि राहुल राजनीति में जिस प्रकार का बदलाव लाना चाहते हैं वह समय की मांग के अनुरूप व आवश्यक है और इसके दूरगामी प्रभाव पड़ने तय हैं। यह माना कि कांग्रेस के सर्वोच्च नेता के रूप में राहुल को अभी तक कोई बड़ी राजनैतिक सफलता नहीं मिली है और राजनीति के पंडितों के एक तबके ने उनकी अनुभवहीनता के मद्देनजर उन्हें पप्पू के नाम से नवाजा है लेकिन अगर तथ्यों की गंभीरता पर गौर करें तो वह राहुल गांधी ही हैं जिन्होंने सत्तापक्ष एवं विपक्ष के तमाम नेताओं को उनकी एसी कारों के काफिले से बाहर निकालकर दलितों के घर भोजन करने व गांव में चारपाई बिछाकर बैठकें करने को मजबूर किया है। यह ठीक है कि राहुल गांधी का कांग्रेस की नीतियों से हटकर मंदिरों में जाना और हवन करते हुए फोटो वाइरल होना यह सिद्ध करता है कि जनता के रूख को देखते हुए कांग्रेस भी अपनी नीतियों, सिद्धांतों व काम करने के तरीके में बदलाव लाने को मजबूर हुई है लेकिन अगर तथ्यों की गंभीरता पर जाएं तो हमें यह मानना पड़ेगा कि वह राहुल ही हैं जिन्होंने सामाजिक चर्चाओं या चुनावी हार-जीत की फिक्र किए बिना बदलाव के इस इरादे पर कायम रहना आवश्यक समझा है और राजनीति के मैदान में आगे बढ़ने के लिए शाॅर्टकट अपनाने की जगह जनसंघर्षों की एक अलग कहानी लिखने में जिन्हें कोई परेशानी नहीं है। हो सकता है कि कांग्रेस राहुल के नेतृत्व को स्वीकार करने के बाद अभी और दो-एक चुनावों में पराजित हो या फिर योजनाबद्ध तरीके से राहुल को पप्पू साबित करने में लगे लोग उनकी असफलताओं को लेकर और दो-चार नये चुटकुले गढ़े लेकिन इतिहास गवाह है कि राजनीति के मैदान में संघर्ष ही वह पूंजी है जो आम आदमी को बहुत कुछ सिखाती व अनुभव प्रदान करती है। लिहाजा यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि राहुल गांधी कांग्रेस के वह स्वर्णाभूषण हैं जो संघर्षों की आग में तपकर कुंदन बनने की तैयारी कर रहे हैं या फिर हम यह भी कह सकते हैं कि जनसंघर्षों का यह दौर राहुल गांधी के कच्चे राजनैतिक ज्ञान को भारतीय राजनीति के अलाव में पकाकर चुनावी संघर्षों के लिए मजबूत कर रहा है और वह अपने अनुभवों से बहुत कुछ सीख रहे हैं। खैर जो कुछ भी हो रहा है, अच्छा है और हमें खुशी है कि कांग्रेस को पहली बार एक ऐसा अध्यक्ष मिलने जा रहा है जिसने अपनी पारिवारिक विरासत के अलावा जनसंघर्षों व चुनावी राजनीति से भी बहुत कुछ सीखा है।