गैरसेंण के नवनिर्मित विधानसभा भवन में सत्र आयोजन करने की मंाग के बहाने एक बार फिर चर्चाओं का विषय बना स्थायी राजधानी का मुद्दा।
गैरसेंण को राज्य की स्थायी राजधानी बनाये जाने के मुद्दे पर वर्तमान बजट सत्र के दौरान एक गंभीर बहस का प्रयास नेता प्रतिपक्ष द्वारा किया गया तथा पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल के दौरान आहूत विधानसभा सत्र में, आगामी बजट सत्र गैरसेंण के नवनिर्मित विधानसभा भवन मे करने सम्बन्धी संकल्प का जिक्र करते हुऐ नेता प्रतिपक्ष ने वर्तमान सत्र को गैंरसेंण मे आहूत न किये जाने को सदन की अवमानना बताया जिसपर सरकार की ओर से संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत द्वारा बताया गया कि गैरसेंण के नवनिर्मित भवन में अभी तक विधानसभा सत्र चलाने लायक अवस्थापना सुविधाऐं नहीं जुटायी जा सकी है और वर्तमान में चल रहे चारधाम यात्रा सीज़न को देखते हुऐ गैरसेंण में अस्थायी रूप से सारा तामझाम जुटाया जाना संभव नही था, इसलिऐं सरकार ने वर्तमान बजट सत्र को गैरसेंण के स्थान पर देहरादून में आहूत करने का निर्णय लिया लेकिन सरकार अतिशीघ्र इस समस्या का न्यायोचित, स्थायी व जनभावनओं के अनुरूप सामधान निकालेगी। नियम अठावन के तहत चल रही चर्चा में भागीदारी करते हुऐ पूर्ववर्ती विधानसभा के अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल ने अवस्थापना सुविधाओं के संदर्भ में संसदीय कार्यमंत्री द्वारा दिये गये बयान पर आपत्ति बयान करते हुऐ गैरसेंण में हो चुके स्थायी निर्माण व कक्षों की संख्या का विस्ताार से जिक्र करते हुये यह दावा किया कि गैरसंेण में बन रहा यह विधानसभा भवन न सिर्फ सभी खूबियों से युक्त व देश के विभिन्न राज्यों द्वारा निर्मित विधानरसभा भवनों से बेहतर सुविधा वाला है बल्कि सरकार जनभावनाओं को सम्मान करते हुऐ यहां पूर्व में तीन विधानसभा सत्रों का आयोजन कर चुकी है जिस दौरान किसी सम्मानित जनप्रतिनिधि अथवा कर्मचारी व अधिकारी की ओर से किसी प्रकार की असुविधा को लेकर कोई शिकायत दर्ज नही करायी गयी है। हांलाकि सम्पूर्ण चर्चा के दौरान सत्ता पक्ष पूरी सजगता के साथ गैरसेंण को स्थायी अथवा ग्र्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने से बचता नजर आया लेकिन उसने विपक्ष को यह आश्वासन देकर शान्त करने का प्रयास अवश्य किया कि सरकार धीरे-धीरे कर ही सही किन्तु इस समस्या के स्थायी समाधान की ओर आगे बढ़ेगी। कितना आश्चर्यजनक है कि उत्तराखंड राज्य गठन के इन सत्रह वर्षाे के भीतर बारी-बारी से भाजपा व कांग्रेस की सरकार सत्ता के शीर्ष पर काबिज होती रही है और लगभग हर सरकार ने अपने कार्यकाल के दौरान राज्य की स्थायी राजधानी के मुद्दे पर स्थायी समाधान देने का दावा भी जनता से किया है लेकिन मौका आने पर तंत्र व नेता इस जिम्मेदारी से बचते दिखायी देते है। हमने देखा कि पूर्ववर्ती सरकार ने किस तरह पूरे जोर-शोर के साथ गैरसेंण में विधानसभा भवन व अन्य अवस्थापना सुविधाऐं जुटाने का दावा किया और यह कार्य अभी विधिवत् रूप से शुरू भी नही हुआ था कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा द्वारा देहरादून के निकट रायपुर नामक स्थान पर भूमि चयनित कर वहां भी एक विधानसभा भवन बनाने का का शिगूफा छोड़ दिया गया। यह ठीक है कि सत्ता के शीर्ष में हुऐ राजनैतिक परिवर्तन के दौरान सतपाल महाराज के कांग्रेस छोड़ने व विजय बहुगुणा के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद हरीश रावत सरकार के दौर में इस पर शिद्धत से काम हुआ और हरीश रावत सरकार ने गैरसेंण में विधिवत् रूप से विधानसभा सत्र आयोजित कर इस कड़ी को आगे बढ़ाने का काम किया लेकिन हरीश रावत सरकार के तीन साल या कांग्रेस सरकार के पांच सालों में यह मुद्दा कभी स्पष्ट रूप से सामने नही आया कि जनप्रतिनिधि वाकई में राजधानी को लेकर क्या विचार रखते है। गैरसेंण को उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौर से ही जनभावनाओं से जुड़ी राजधानी माना जाता है और उत्तराखंड में जनमत की सियासत करने वाला हर नेता व राजनैतिक दल अभी तक यह मानता आया है कि राज्य आन्दोलकारियों अथवा राज्य आन्दोलन से जुड़े मुद्दों की अनदेखी करना उन्हें राजनैतिक रूप से भारी पड़ सकता है, शायद यहीं वजह है कि कोई भी दल खुलकर गैरसेंण के विरोध में नही खड़ा होना चाहता लेकिन राज्य के मैदानी इलाकों की उत्तराखंड की राजनीति में हिस्सेदारी और इन विधानसभा क्षेत्रों में गैर-पहाड़ी मतदाताओं की ठीक-ठाक संख्या विभिन्न राजनैतिक दलो के नेताओं को खुलकर गैरसंेण के पक्ष में खड़े होने से रोकती भी है। राज्य निर्माण के बाद उत्तराखंड के राजनैतिक व सामाजिक समीकरण बहुत तेजी से बदले है और इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद पहाड़ों पर तेजी से बड़े पलायन के चलते न सिर्फ इस प्रदेश के पहाड़ी जिलो के राजनैतिक समीकरणों में बदलाव आया है कि बल्कि मैदानी जिलों के आंकड़े भी तेजी के साथ बदलते दिख रहे है। उपरोक्त के अलावा उत्तराखंड राज्य आन्दोलन से वर्तमान तक नये मतदाताओं की एक ऐसी पूरी पीढ़ी मैदान में है जिसने उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के अवस्मरणीय क्षणों को न तो देखा है और न ही महसूस किया हैं, इन हालातों में किसी भी राजनैतिक दल के लिऐ यह अन्दाजा लगाना आसान नही है कि गैरसेंण को उत्तराखंड की स्थायी अथवा ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने अथवा न करने से प्रदेश के पहाड़ी व मैदानी इलाकों के विधानसभा क्षेत्रों के समीकरण किस तरह प्रभावित होगें या फिर उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौर के बाद जन्मा इस प्रदेश का युवा सरकार के इस फैसले को किस तरह ले लेगा? शायद यही वजह है कि कोई भी सरकार गैरसेंण के मुद्दे पर स्पष्ट नतीजे तक नही पहुंचाना चाहती और उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के इन सत्रह वर्षो बाद भी हमारे पास एक स्थाई राजधानी नही है। वर्तमान में राज्य की सत्ता पर काबिज भाजपा से उम्मीद नही की जा सकती कि वह अगले पांच सालों में इस समस्या को कोई स्थायी समाधान खोजने की कोशिश भी करेगी और न ही मुख्य विपक्ष का किरदार निभा रही कांग्रेेस इस स्थिति में है कि वह गैरसेंण को लेकर कोई राज्यव्यापी आन्दोलन चला सके। रहा सवाल तथाकथित क्षेत्रीय दलों या फिर स्थानीय मुद्दो व शराब विरोधी आन्दोलनों को हवा दे रही जनवादी विचारधारा का, तो चुनावी नतीजे यह इशारा कर रहे है कि व्यापक जनहित में किये जा रहे अनेक आन्दोलनों व संघर्षों के बावजूद यह ताकतें अभी तक जनता का विश्वास जीतने में तो नाकाम है ही साथ ही साथ इन तमाम जनवादी ताकतों ने अपनी महत्वाकांक्षाऐं छोड़ते हुऐ कभी एक साथ एक मंच पर आने या फिर साझा नेतृत्व चुनने का प्रयास भी नही किया है, तो इन हालातों में सरकार को किसी निर्णय लेने के लिऐ बाध्य करना इनके लिये भी आसान नही होगा। लिहाजा हम यह मानकर चलते है कि उत्तराखंड की स्थायी राजधानी कहां होगी या फिर राज्य की राजनीति में गैरसेंण और वहां निर्मित नये विधानसभा भवन का क्या महत्व होगा, यह तमाम सवाल वर्तमान सरकार के कार्यकाल में भी अनुत्तरित ही रह जायेंगे।